कभी कभी सोचता हूं नरेंद्र मोदी को सुलझा हुआ समाजशास्त्री कहूं या कुटिल बुद्धि का कुशल राजनेता कहूं या एक अन्य (गुण) अवगुण से समझूं । कभी समाज को पांच स्तरों पर नापा जाता था । निम्न वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग, उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग ।बाद के समय में यह वर्गीकरण बदल गया । नरेंद्र मोदी इन्हीं दिनों की पैदाइश हैं । हम कल्पना करते हैं जबसे पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति हुई है तब से दो ही तरह के मनुष्य देखने में आये हैं । एक निर्बल और दूसरा सबल । बाद के दिनों में निर्बल सीधा सादा इंसान कहलाया और सबल धूर्त और शोषक । निरंतर विकास की प्रक्रिया ने दोनों तरह के इंसानों में इजाफा किया । गरीबी की मार ने सीधे को और निर्बल और भोला इंसान बना दिया और धूर्त को धुर किस्म का कपटी ।शोषण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई ।शोषण कितने प्रकार का होता है यह कौन नहीं जानता । धूर्त इंसान का चौतरफा विकास उसकी कपटपूर्ण चालों में होता है । ऐसा इंसान यदि राजनीति में आ जाए तो वह कितना सफल होगा यह उसके भीतर और बाह्य रूप पर ही निर्भर करता है । मुझे लगता है मोदी जैसे शासक को समझने के लिए इन कथित मानदंडों को स्वीकार करना होगा । दक्षिण भारत या उत्तर पूर्व की राजनीति का फलसफा उत्तर भारत की राजनीति से एकदम अलग है । भारत जैसे देश पर राज उसी का होगा जिसने उत्तर भारत की राजनीति , भाषा और संस्कारों को सरलता और सुगमता से समझा होगा । जाहिर है मोदी गुजराती हैं लेकिन बरसों तक वे उत्तर भारत में रहे । हरियाणा और शायद पंजाब राज्य भाजपा के प्रभारी रहे ।यह तो मोटा मोटा आकलन है ।उनके जीवन पर जाना हमारा मंतव्य नहीं है ।
यह सब बताने और लिखने का अभिप्राय सिर्फ इतना भर है कि नरेंद्र मोदी ने भारतीय समाज को किस खूबी से पढ़ा, समझा और आत्मसात करके उस पर अपनी जादूगरी की ।ऐसी जादूगरी कि जिसे अच्छे अच्छे नहीं समझ पाए और मोदीमय हो गये । लेकिन मैं उन तमाम प्रबुद्ध लोगों की समझ और बौद्धिकता पर शंका करता हूं जो मोदी की इस जादूगरी में फिसल गये । बेशक उनमें प्रताप भानु मेहता, तवलीन सिंह, मधु किश्वर और अनेक प्रबुद्ध जन हों । मधु किश्वर की बात छोड़ दें वे तो आज भी मोदीमय हैं ।पर मुझे हैरानी हुई मधु को देख कर क्योंकि जब भी उससे मिलना हुआ उसका सोशलिज्म और धाकड़पन अच्छा लगा । लेकिन मैं जानता हूं मोदी की राजनीति प्याज के छिलकों की तरह उतरेगी । इसलिए नहीं कि भोला इंसान समझदार और चतुर हो गया है बल्कि इसलिए कि भारत की राजनीति हवा के रुख के साथ चलती है ।भोला इंसान तो आज भी खुद से ताकतवर के कहने में आकर बटन दबाता है । अपने एटीएम का पिन नंबर कैलैंडर पर लिख कर सार्वजनिक कर देता है । ऐसे भोले इंसान पर हमेशा धूर्त राज करता है । शोषण की भी यही कहानी है जो सदियों से चली आ रही है । आज नरेंद्र मोदी के मंतव्य बहुत साफ हो चुके हैं ।हम समझ चुके हैं कि मोदी के मंतव्य एक तो कारपोरेट को सींचना है और दूसरा देश को हिंदू राष्ट्र की फूहड़ और कबाड़ जैसी अवधारणा पर काम करना है । वे मूर्ख हैं जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे हैं । इस देश की प्रकृति और यहां का संस्कार किसी भी कोण से इसकी अनुमति नहीं देते । मुझे तो हैरानी इस देश के प्रबुद्ध जन पर होती है और उससे भी ज्यादा समाज का हित चाहने वालों पर ।
आप ही देखिए । चुनाव हो रहे हैं । मोदी अपनी पूरी ताकत से लगे हैं ।वे और उनके लोग साम दाम दंड भेद की नीति से जीतने का खेल करते हैं । और हमारे बुद्धिजीवी और विपक्ष के राजनेता हर दृष्टि से पिछाड़ी साबित होते हैं । ताजा उदाहरण पैगासस का है । चुनाव हमेशा अंतिम आदमी के लिए लड़े जाते हैं । जाहिर है पैगासस से मजदूर और किसान का कुछ लेना देना नहीं । लेकिन पैगासस के पीछे सरकार की चाल, मंशा और चोरी की भावना का स्पष्ट संदेश देकर उन्हें प्रौढ़ किया जा सकता है । इसी प्रकार के तमाम मुद्दे, तमाम बातें हम नीचे तक ले जाने में विफल रहते हैं ।वे झूठ से जीतते हैं हम उनके झूठ पर रुदाली करते हैं ।पैगासस पर क्या होगा और क्या नहीं होगा लेकिन यह एक ऐसा बड़ा मुद्दा है जिसको भली प्रकार से समाज को समझा दिया जाए तो यह सरकार पल भर में धराशाई हो जाए ।पर समझाएगा कौन ? मोदी ने इस लायक छोड़ा किसे है । गांधी अंतिम आदमी की नजर से देश को देखते थे । मोदी गांधी के एकदम उलट हैं ।यह बात भी हमारे तमाम वे लोग 2014 में नहीं समझ पाये जो मोदी की ‘रौ’ में बह गये थे । न जाने कैसे उनके पटल से गुजरात साफ हो गया था । बहरहाल, हम चुनाव में हैं और देखा जा रहा है कि मोदी का जलवा धीरे धीरे प्याज के छिलकों की तरह उतर रहा है । कहां तक उतरेगा ।या सीधे सीधे कहिए मोदी कहां तक उतरने देंगे ।यह 10 मार्च की तारीख बताएगी ।
सोशल मीडिया में दो दिनों से पैगासस का मुद्दा छाया हुआ है । सोशल मीडिया की बहसों से इतर वह कहां है । बोफोर्स पर जब एक सरकार जा सकती है तो पैगासस पर क्यों नहीं । पैगासस तो भयानक है ।पर यह कोई मुद्दा नहीं ।समय समाप्त हो चुका है और विपक्ष गफलत में है । ‘सत्य हिंदी’ की धाक है । कहिए कि सोशल मीडिया में वक्त ‘सत्य हिंदी’ का है । सप्ताह का अंत बेहतरीन होता है ‘ताना बाना’ कार्यक्रम से ।कल के कार्यक्रम में अशोक वाजपेई हों या अपूर्वानंद की उर्मिलेश के यात्रा संस्मरण पर समीक्षा ।उस सबसे ज्यादा मन खींचा बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की दलित कविता ने ।यह कविता मैंने फेसबुक पर देखी थी पर लंबी समझ कर बाद में पढ़ने के लिए छोड़ दी । यकीनन गजब कविता है और उस पर प्रियदर्शन की बेबाक टिप्पणी । अशोक वाजपेई इस वर्ष को ‘प्रतिरोध का वर्ष’ की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि जिस लेखक ने सीखना बंद कर दिया उसे लिखना भी बंद कर देना चाहिए ।दो टूक । अपूर्वानंद ने उर्मिलेश के यात्रा संस्मरण पर सारगर्भित टिप्पणियां कीं ।इस कार्यक्रम की यही उपलब्धि है अशोक वाजपेई और अपूर्वानंद । मुकेश कुमार में चमक देखी जा सकती है इन दिनों । ताना-बाना में यह चमक कुछ अलग ही लगी ।
इस रविवार संतोष भारतीय के ‘लाउड इंडिया टीवी’ में अभय दुबे शो सुबह 11 बजे की जगह शाम 5 बजे आया । लेकिन बाद के आधे कार्यक्रम में अभय जी की आवाज कटती रही । कुछ अजीब सी गूंज के साथ ।शायद आडियो खराब रहा ।अभय दुबे को देर से ही सही पर यह समझ आ ही गया कि यदि यह सरकार दोबारा आती है तो प्रबुद्ध लोगों की पेशबंदी होनी चाहिए । देर से की बात मैंने इसलिए कही कि पिछले कई अंकों से मैं इसी पेशबंदी या लामबंदी की बात दोहराया रहा हूं । संतोष भारतीय संसद में बहुमत पर हर बार राजीव गांधी के बहुमत का उदाहरण देते हैं ।कल भी दो अलग-अलग कार्यक्रमों में उन्होंने यह कहा ।वे यह भूल जाते हैं कि राजीव गांधी का बहुमत और आज के बहुमत में जमीन आसमान कि फर्क है ।उस समय के कांग्रेसी अपेक्षाकृत शिष्ट और सभ्य थे ।आज जाहिलों की मुंडिया हैं । बहुमत बहुमत में फर्क है ।यह वे भी मानेंगे और शायद इसे फिर नहीं है दोहरायेंगे । सच तो यह है कि आज की सत्ता की तुलना किसी और की सत्ता से की ही नहीं जा सकती । इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से तुलना भी व्यर्थ है ।
‘सत्य हिंदी’ पर इन दिनों आशुतोष और मुकेश कुमार की धूम है । विजय त्रिवेदी शो इस बार कसा हुआ और रोचक रहा । विषय ही ऐसा था । सावरकर पर अशोक कुमार पाण्डेय की किताब और उस पर बातचीत । विजय भाई का भी प्रिय विषय है । आशुतोष जल्दबाजी में रहते हैं ।कई बार अक्षर भी खा जाते हैं । लगता है बचपन से ही ऐसे हैं ।
आरफा खानम शेरवानी ने छब्बीस जनवरी को अपने बचपन से याद किया । अच्छा लगा ।जब मैं छोटी थी … आरफा के कार्यक्रम में भाषा सिंह की मौजूदगी अच्छी लगी ।भाषा धांसू रिपोर्टर हैं इसमें तो कोई दो राय नहीं ।उनके अपने शो में संप्रेषनीयता में अवरोध रहता है । पैनलिस्ट के रूप में आती हैं तो अच्छा लगता है ।ऐसा ही उर्मिलेश जी के साथ है । अजीत अंजुम के वीडियो रोचक होते हैं । पुण्य प्रसून वाजपेई भी अपनी तरह से लगे हैं । अच्छा है । लेकिन सवाल सिर्फ इतना ही है कि ये सब उस अंतिम आदमी से कोसों दूर हैं जो मोदी का आज भी चहेता है बिना यह जाने मोदी उसके लिए कुछ करने वाले नहीं । पर यही जीवन है जिसे यूंही चलते रहना है जब तक नया गांधी जन्म नहीं लेता ।

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