जम्मू-कश्मीर में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम बीते 23 दिसंबर को सामने आए. जनता के फैसले ने सभी राजनीतिक दलों को परेशान कर दिया. राज्य में किसी भी पार्टी को जनता ने इतनी सीटें नहीं दीं, जिससे वह आसानी से सरकार का गठन कर सके. 87 सदस्यीय राज्य विधानसभा में पीडीपी को जहां सबसे अधिक 28 सीटें मिलीं, वहीं भाजपा को 25, नेशनल कांफ्रेंस को 15 और कांग्रेस को केवल 12 सीटें मिल सकीं, शेष सात सीटें अन्य के खाते में गई हैं. 2008 के विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस को 28 सीटें मिली थीं, जबकि पीडीपी को 21, कांग्रेस को 17 और भाजपा को 11 सीटें मिली थीं. इस बार जहां मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी (पीडीपी) 28 सीटों के साथ राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, वहीं भारतीय जनता पार्टी भले ही अपनी उम्मीदों के अनुरूप मिशन-44 का लक्ष्य हासिल कर पाने में असफल रही हो, लेकिन उसकी सीटें 11 से बढ़कर 25 ज़रूर हुई हैं. इसी तरह 15 सीटों के साथ नेशनल कांफ्रेंस तीसरे और 12 सीटों के साथ कांग्रेस चौथे नंबर पर पहुंच गई. हैरानी की बात तो यह है कि उमर अब्दुल्लाह, जो पिछले 6 वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे, सोनावार सीट से चुनाव हार गए. इसी तरह भारतीय जनता पार्टी को लग रहा था कि श्रीनगर के अमीराकदल और हब्बाकदल से उसके उम्मीदवारों का जीतना तय है, क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों में कश्मीरी पंडितों की बड़ी आबादी रहती है. लेकिन, अमीराकदल से डॉक्टर हिना भट्ट और हब्बाकदल से मोती कौल के हार जाने से पार्टी की उम्मीदों पर पानी फिर गया. यही नहीं, श्रीनगर की हब्बाकदल सीट को छोड़कर भाजपा ने घाटी की जिन 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, उन सबकी ज़मानत भी ज़ब्त हो गई. घाटी में भाजपा को केवल 3 प्रतिशत वोट मिले.
लद्दाख में भी भाजपा को निराशा का सामना करना पड़ा. वहां की कुल चार सीटों में से तीन सीटें कांग्रेस के खाते में गईं, जबकि एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की. दूसरी ओर जम्मू क्षेत्र में भाजपा को जो भी सीटें मिलीं, वे वहां कांग्रेस की गिरती हुई साख के कारण मिलीं. भाजपा को अनुमान था कि वह जम्मू की सभी 37 सीटें, लद्दाख की चार और घाटी की तीन सीटें जीतकर अपना मिशन-44 पूरा करने में कामयाब हो जाएगी और इस तरह जम्मू-कश्मीर में पहली बार अपनी सरकार बना लेगी, लेकिन उसका अनुमान ग़लत साबित हुआ. उसे न तो जम्मू की सभी सीटें मिलीं, बल्कि लद्दाख और कश्मीर में उसका खाता तक नहीं खुला. हालांकि, वोट प्रतिशत की बात करें, तो 23 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा पहले नंबर पर रही, जबकि 22.7 प्रतिशत वोटों के साथ पीडीपी दूसरे नंबर पर, 20.8 प्रतिशत वोटों के साथ नेशनल कांफ्रेंस तीसरे नंबर पर और 18 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस चौथे नंबर पर रही. दरअसल, भाजपा को लग रहा था कि अलगाववादियों की ओर से इस बार भी मतदान का बहिष्कार किया जाएगा. लिहाजा, अगर कश्मीरी पंडित बड़ी संख्या में उसे वोट देते हैं, तो उसके उम्मीदवारों का हर जगह जीतना तय है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हैरानी की बात तो यह रही कि खुद कश्मीरी पंडितों ने उतनी बड़ी संख्या में वोट नहीं डाले, जितनी भाजपा उम्मीद कर रही थी. शायद इसका एक कारण यह भी था कि धारा 370 पर भाजपा के रुख से कश्मीरी पंडित भी कहीं न कहीं उससे नाराज़ थे. दूसरे यह कि पहले की तरह इस बार कट्टर अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने चुनाव बहिष्कार का आह्वान नहीं किया था. उन चुनाव क्षेत्रों में कश्मीरियों ने बड़ी संख्या में मतदान किया, जो अतीत में हुर्रियत कांफ्रेंस के प्रभाव वाले माने जाते थे.
अगर पीडीपी की बात करें, तो उसने 28 में से 25 सीटें घाटी में जीतीं, जबकि शेष तीन सीटें उसे जम्मू के राजोरी, पूंछ और दरहाल से मिलीं. जम्मू के ये तीनों क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य हैं. लद्दाख के लोगों ने इस बार भाजपा के साथ-साथ पीडीपी को भी अपना समर्थन नहीं दिया, यहां की चार में से तीन सीटों पर कांग्रेस को सफलता मिली, जबकि एक सीट स्वतंत्र उम्मीदवार के खाते में गई. कांग्रेस को पांच सीटें जम्मू से, चार सीटें घाटी से और तीन सीटें लद्दाख से मिलीं. शायद इसीलिए कांग्रेस के नेता यह दावा कर रहे हैं कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो राज्य के तीनों क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है. जहां तक नेशनल कांफ्रेंस की बात है, तो उसे 11 सीटें घाटी से और शेष चार सीटें जम्मू से मिलीं. उमर अब्दुल्लाह इस बात से खुश हैं कि मीडिया ने जिस तरह उनकी पार्टी को अपने एग्जिट पोल में पांच से अधिक सीटें नहीं दी थीं, उतनी खराब हालत चुनाव परिणाम आने के बाद उनकी पार्टी की नहीं हुई. कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस को इतनी सीटें मिलने का एक बड़ा कारण वोट डालने के लिए बड़ी संख्या में लोगों का अपने घरों से निकलना रहा. अगर मतदान प्रतिशत में बढ़ोत्तरी न हुई होती, तो शायद इन दोनों ही पार्टियों की हालत आज इतनी अच्छी न होती और पीडीपी के साथ-साथ भाजपा भी सरकार बनाने के नंबर के क़रीब होती.
इस चुनाव की एक दिलचस्प बात यह रही कि 2008 में 87 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव में जहां 1,344 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, वहीं इस बार यह संख्या 39 प्रतिशत घटकर केवल 821 रह गई. इस दृष्टि से भी देखा जाए, तो जम्मू-कश्मीर में इस बार विभिन्न उम्मीदवारों के बीच वोटों का विभाजन कम हुआ. दूसरी ओर मतदान प्रतिशत में भी जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई, जिसकी उम्मीद किसी भी राजनीतिक दल को नहीं थी. राज्य में केवल 1987 में औसत मतदान 76 प्रतिशत हुआ था. इसके बाद पहली बार 2014 के विधानसभा चुनाव में औसत मतदान 66 प्रतिशत हुआ. आम तौर पर यह सोचा जा रहा था कि इस बार पूरा कश्मीर बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ है, इसलिए मतदान केंद्रों तक कम ही लोग पहुंच पाएंगे, लेकिन हुआ बिल्कुल इसके उलट. इसका एक कारण यह भी था कि राज्य में खुफिया रूप से जनता को कहीं न कहीं यह संदेश देने की भी कोशिश की गई कि अगर वे वोट नहीं डालेंगे, तो वहां भाजपा की सरकार बन सकती है.
राज्य के चुनाव परिणाम को अगर सामूहिक रूप से देखा जाए, तो वहां पर एक भी ऐसी पार्टी नहीं है, जो राज्य के तीनों हिस्सों यानी जम्मू, कश्मीर और लद्दाख का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सके. इसके उलट चुनाव परिणाम यही बता रहे हैं कि भाजपा जम्मू की सबसे बड़ी पार्टी है, पीडीपी कश्मीर की सबसे बड़ी पार्टी और कांग्रेस लद्दाख की सबसे बड़ी पार्टी है. ऐसे में जम्मू-कश्मीर का अगला मुख्यमंत्री जो भी शख्स बनेगा, उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि वह राज्य के इन तीनों हिस्सों के लोगों का विश्वास हासिल कर सके और कह सके कि वह किसी एक हिस्से का नहीं, बल्कि पूरे राज्य का प्रतिनिधि है.