जनसंघर्ष मोर्चा देश की लोकतांत्रिक और बदलाव चाहने वाली ताक़तों का राष्ट्रीय मंच है. इसमें समाजवादी, दलित, आदिवासी-वनवासी और वामपंथी आंदोलन से जुड़ी ताक़तें शामिल हैं. इसका सबसे प्रमुख आंदोलन है, दाम बांधो-काम दो अभियान. राष्ट्रीय संयोजक अखिलेंद्र प्रताप सिंह पिछले दिनों दिल्ली में थे. चौथी दुनिया ने उनसे जनसंघर्ष मोर्चा के एजेंडे, आंदोलन, स्वरूप और भविष्य की योजनाओं पर विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :

जनता के गुस्से को अगर एक लोकतांत्रिक स्वरूप दिया जाए तो एक राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी का निर्माण हो सकता है, जो वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर कांग्रेस और भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प बन सकती है.

आपने कई सालों तक वामपंथ की राजनीति की है. फिर अलग से जनसंघर्ष मोर्चा बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?
हिंसक रास्ता अपना कर व्यवस्था बदलने में मेरा विश्वास नहीं है. और, यह संभव भी नहीं है. मैं चाहता हूं कि एक मज़बूत जनतांत्रिक आंदोलन खड़ा किया जाए. इसी के ज़रिए मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप भी हमारा लक्ष्य है. रोज़गार और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार चुप्पी साधे हुए है. जनसंघर्ष मोर्चा इन्हीं जन समस्याओं पर एक जनतांत्रिक आंदोलन खड़ा करेगा.
आज देश में महंगाई, रोज़गार के साथ जंगलऔर ज़मीन का मुद्दा आम आदमी को सबसे ज़्यादा प्रभावित कर रहा है. जनसंघर्ष मोर्चा इन समस्याओं को किस रूप में देखता है?
अगर सरकार नरेगा को ईमानदारी से लागू कराती तो लोगों को साल में महज़ सात आठ दिनों का ही रोज़गार नहीं मिलता. वनवासियों-आदिवासियों के लिए भी जो क़ानून बनाया गया था, उसे भी लागू कराने को लेकर सरकार गंभीर नहीं दिख रही है. उत्तर प्रदेश की हालत और ख़राब है. वहां मिर्जापुर, सोनभद्र, इलाहाबाद और चित्रकूट में आदिवासियों की कोल एवं पनिका जाति के लोगों की संख्या अच्छी-खासी है, लेकिन 60 सालों बाद भी उन्हें आदिवासी (एसटी) का दर्ज़ा नहीं मिला है. कुल मिलाकर सामाजिक न्याय का मुद्दा अब तक पूरा नहीं हुआ है. इन्हीं सवालों को लेकर पिछले साल अक्टूबर में हमने दिल्ली में एक रैली की थी. हमारे समर्थन में कुलदीप नैय्यर, राजेंद्र सच्चर जैसे लोग आए. हमने दाम बांधो-काम दो अभियान की शुरुआत की. केंद्र सरकार को इससे अवगत भी कराया, लेकिन अब तक इस पर कोई क़दम नहीं उठाया गया है.
आख़िर इन सबकी आप क्या वजह मानते हैं, सरकार ऐसी मांगों पर ध्यान क्यों नहीं देती?
भारतीय राजनीति आज कांग्रेस और भाजपा के इर्द-गिर्द केंद्रित होती जा रही है. जो अन्य वामपंथी-जनवादी ताक़तें हैं, उनकी तऱफ से जनता के लिए किसी ठोस और अर्थपूर्ण अभियान का अभाव दिखता है. हमारी कोशिश है कि ऐसी वामपंथी-जनवादी ताक़तें एक मंच पर आएं, ताकि हम न स़िर्फ एक सशक्त जनांदोलन खड़ा कर सकें, बल्कि एक मज़बूत राजनीतिक विकल्प भी बन सकें. हम लोग बिहार में राष्ट्रीय समता पार्टी, झारखंड में झारखंड पीपुल्स फ्रंट, उत्तराखंड में उत्तराखंड परिवर्तन दल, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलजुल कर काम कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में हमने सीपीएम के साथ मिलकर चुनाव लड़ा.
देश भर में कई छोटे-मोटे आंदोलन चल रहे हैं. आख़िर ऐसे आंदोलन राजनीतिक विकल्प क्यों नहीं पैदा कर पा रहे हैं?
ऐसे आंदोलनों की सबसे बड़ी कमज़ोरी है उनमें राजनीतिक पहलू का अभाव. ऐसे आंदोलन ग़ैर राजनीतिक या अर्द्ध राजनीतिक भूमिका में हैं. मुख्यधारा की राजनीति में एक राजनीतिक विकल्प बनने की कोशिश नहीं दिखती इन आंदोलनों में. आप राजनीतिक विकल्प बनने की बात कर रहे हैं, लेकिन तीसरे मोर्चे का विकल्प तो कई बार आजमाया जा चुका है और उसके मिले-जुले परिणाम देखने को मिले हैं.
अब तक तीसरा मोर्चा बनाने की जो कोशिश हुई है, वह जैसे-तैसे हुई है. वे कोशिशें कार्यक्रम आधारित नहीं थीं. हालांकि उत्तर प्रदेश में वी पी सिंह की अगुवाई में बने जनमोर्चा ने लोगों में विश्वास जगाया था कि यह सपा, बसपा और कांग्रेस से अलग होगा. तीसरे मोर्चे का प्रयोग इसलिए भी असफल हुआ, क्योंकि इसके घटक दल नीतियों के आधार पर कांग्रेस या भाजपा से अलग नहीं थे. आज हालात थोड़े बदल चुके हैं. यूपी में मुलायम सिंह और बिहार में लालू यादव अपनी राजनीतिक पारी खेल चुके हैं. कांग्रेस इसका विकल्प बनने की कोशिश कर रही है. यहां अगर हम एक लोकतांत्रिक विकल्प खड़ा करें तो लोग समर्थन देंगे.
आज की राजनीति की जो दशा, दिशा और चरित्र है, उसमें बिना धनबल और बाहुबल के राजनीति की कल्पना करना भी मुश्किल हो गया है.
यह राजनीति की पूरी सच्चाई नहीं है. दरअसल, जनता के लिए सटीक राजनीतिक एजेंडा हो तो जनता ख़ुद धन-बल निर्मित कर सकती है. और, जो जन बल होता है, वह धन बल और मा़फिया पर भारी पड़ता है. हमने अपने छात्र जीवन में ऐसा होते हुए देखा है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र यूनियन का मैं प्रेसीडेंट बना, बिना किसी राजनीतिक समर्थन के. आम छात्रों ने हमें सपोर्ट किया.
आज देश का बहुत बड़ा हिस्सा नक्सल समस्या की गिरफ़्त में है. बड़ी संख्या में युवा माओवाद की राह पर जा चुके हैं. जनसंघर्ष मोर्चा में इन जैसे लोगों की क्या भूमिका आप देखते हैं?
देखिए, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, सोनभद्र एवं चंदौली में अब माओवाद की चर्चा नहीं होती. मैं इन इलाक़ों में सरकारी दमन के ख़िला़फ खड़ा हुआ. दूसरी तऱफ हमने माओवादी राजनीति को अराजक नीति कहकर विरोध किया. आदिवासियों-वनवासियों को समझाया कि हथियार उठाने से न व्यवस्था बदलेगी और न ही आपको आपके अधिकार मिलेंगे. इन ज़िलों से माओवाद सरकारी दमन की वजह से नहीं हटा, बल्कि हमारे सशक्तलोकतांत्रिक आंदोलन की वजह से नक्सली युवा हमसे जुड़े.
भारतीय राजनीति में एक सशक्त राजनीतिक विकल्प खड़ा करने में मध्य वर्ग, शहरी वर्ग और युवाओं की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं? ख़ासकर आप अपने मोर्चे के लिए इसे कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
पिछले 20 सालों से देश में रोज़गार की हालत ख़राब है. आज राहुल गांधी देश के यूथ आइकॉन बनाए जा रहे हैं, लेकिन क्या वह रोज़गार का अधिकार क़ानून लागू करा सकते हैं? शहरों में काम करने वाले युवाओं को कम से कम वेतन दिया जा रहा है. इस मुद्दे को कौन उठाएगा? जनता के गुस्से को अगर एक लोकतांत्रिक स्वरूप दिया जाए तो एक राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी का निर्माण हो सकता है, जो वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर कांग्रेस और भाजपा का एक राष्ट्रीय विकल्प बन सकती है. हम ऐसी ही सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं.

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