सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता ने जिस उम्मीद में उसे सत्ता सौंपी थी, अगर वह उम्मीद टूटती है, तो वही जनता उसे सत्ता से बाहर भी कर सकती है. ज़मीन का प्रत्यक्ष संबंध इस देश के 80 फ़ीसद से भी अधिक लोगों के साथ है. अध्यादेश के ज़रिये लाए गए उक्त संशोधन इस क़ानून को देश के किसानों, दलितों, आदिवासियों और ग़रीबों के ख़िलाफ़ खड़ा कर देते हैं. सरकार ने जिस जल्दबाजी में उक्त संशोधन किए हैं, उससे एक बात तो साफ़ हो गई है कि कम से कम इस देश के किसानों के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं.

jameenजमीन एक ऐसी संपत्ति है, जिसे एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करती है. यह ज़मीन ही है, जो इस देश की अस्सी फ़ीसद आबादी को रोजी-रोटी-कपड़ा-मकान मुहैया कराती है. ज़मीन और किसान के बीच मां और बेटे का संबंध होता है. लेकिन, 90 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण और निजीकरण की आंधी आने के साथ ही ज़मीन और किसान के इस सनातन संबंध को कमज़ोर बनाने का प्रयास किया जाने लगा. यह सब सरकार, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की साठगांठ की वजह से हुआ. कभी सेज के नाम पर, कभी औद्योगिक विकास के नाम पर, टाउनशिप के नाम पर, यहां तक कि सड़क (एक्सप्रेस-वे) बनाने के नाम पर और अब नए जमाने में पीपीपी मॉडल के नाम पर सरकार किसानों से उनकी ज़मीन हड़पने की कोशिश करेगी. सरकार, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, पूरी तरह से प्रॉपर्टी डीलर बन गई है. ज़मीन की दलाली होने लगी है. हज़ार रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से ज़मीन खरीद कर पूंजीपति अरबों-खरबों की कमाई करेंगे. इसकी वजह से भट्टा पारसौल, सिंगुर एवं नंदीग्राम की कहानी हमारे सामने आ चुकी है और आगे न जाने कितने नंदीग्राम और भट्टा पारसौल की कहानियां देखने को मिलेंगी.
यूपीए-2 के शासनकाल में अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को संशोधित करने की मांग शुरू हुई. खुद राहुल गांधी ने भी इस क़ानून में संशोधन की मांग की थी. संशोधन हुआ भी. मामला स्थायी समिति के पास भी गया. अंत में जो संशोधित बिल सामने आया, उसमें स्थायी समिति के ज़्यादातर सुझाव नहीं माने गए थे. यह कहानी तो यूपीए सरकार की रही. अब कहानी शुरू होती है एनडीए सरकार की. जनता को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाकर सत्ता में आने वाली भाजपा सरकार ने भी इस क़ानून को और कमज़ोर बनाने का काम किया है. इस बार भाजपा ने आधारभूत संरचना के विकास, औद्योगिक विकास, रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचागत, ग्रामीण आवास, औद्योगिक गलियारे से जुड़ी पीपीपी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण क़ानून में अध्यादेश के ज़रिये संशोधन किए हैं. अरुण जेटली ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 की धारा 10-ए में पांच नए उद्देश्य भी जोड़े गए हैं. इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा एवं रक्षा उत्पादन, विद्युतीकरण आदि के लिए ग्रामीण आधारभूत संरचना, सस्ते आवासों के निर्माण, औद्योगिक गलियारे बनाने एवं पीपीपी मॉडल पर सामाजिक उद्देश्य के लिए बुनियादी ढांचा विकसित करने के वास्ते भी ज़मीनों का अधिग्रहण किया जाएगा. जेटली के मुताबिक, इस क्षेत्र में भी भूमि अधिग्रहण के लिए उच्च मुआवजा जारी रहेगा और ज़मीन पर मालिकाना हक़ सरकार के पास रहेगा. अरुण जेटली ने कहा है कि गांवों के ढांचागत विकास के लिए ही इस क़ानून में संशोधन किए गए हैं, ताकि लोगों को सस्ते घर बनाकर दिए जा सकें, क्योंकि 65 फ़ीसद लोगों के पास घर नहीं है. भूमि अधिग्रहण से ही स्मार्ट शहर बनेंगे और कच्चे घरों में रहने वालों को पक्के मकान मिल सकेंगे. उक्त संशोधन आर्थिक विकास की गति बढ़ाने के नाम पर किए गए हैं. अब इन परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण करना और भी आसान हो जाएगा. अब ज़मीन अधिग्रहण के लिए 80 फ़ीसद किसानों की रजामंदी ज़रूरी नहीं होगी. इसके साथ ही ज़मीन अधिग्रहण से होने वाले सामाजिक प्रभाव की जांच भी ज़रूरी नहीं होगी.
बहरहाल, यह समझते हैं कि पीपीपी मॉडल और सार्वजनिक मकसद का अर्थ क्या है और अन्य देशों में इसे लेकर वहां का ज़मीन अधिग्रहण क़ानून क्या कहता है. जाहिर है, ऑस्ट्रेलिया हो या जापान, दोनों विकसित देश हैं. इन दोनों देशों में इस क़ानून को लेकर क्या प्रावधान हैं, यह जानना भी दिलचस्प होगा. सार्वजनिक मक़सद यानी पब्लिक परपस की जो बात कही जाती है, उसे समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि किसी भी पूंजीपति देश और विकसित लोकतांत्रिक देश में भूमि अधिग्रहण निजी लाभ के लिए नहीं होता है. ऐसा कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान में नहीं होता है. कोई भी ऐसा देश नहीं है सिवाय भारत के, जहां भूमि अधिग्रहण सरकार की तरफ़ से किया जाता है और फिर वह भूमि निजी संस्थानों को दे दी जाती है. एक उदाहरण नॉर्दन टेरेट्रीज ऑफ ऑस्ट्रेलिया का है, जहां बहुत सारे आदिवासी रहते हैं. कोई भी निजी कंपनी वहां जाकर ज़मीन नहीं ख़रीद सकती है. ऑस्ट्रेलिया की तक़रीबन 90 फ़ीसद ज़मीन नॉर्दन टेरेट्रीज से जुड़ी हुई है. निजी संस्थाएं ज़मीन ख़रीदने के लिए सरकार को आवेदन देती हैं. वहां की सरकार मौ़के पर जाकर देखती है कि वहां हालात क्या हैं. इससे वहां कितना विस्थापन होगा और उसकी एवज़ में सेटेलमेंट की क्या व्यवस्था होगी, तभी वह ज़मीन निजी कंपनियों को दी जा सकती है. इसी तरह का एक और उदाहरण है, जापान का नरीता एयरपोर्ट. यह शायद विश्‍व में सबसे बड़े एयरपोर्टों में से एक है. इसे विस्तृत करने की कोशिश की गई, लेकिन स्थानीय लोग अपनी ज़मीन बेचने को तैयार नहीं हुए. उसके बाद एयरपोर्ट अथॉरिटी ने सरकार से कहा कि आप इस ज़मीन का अधिग्रहण कीजिए. सरकार ने कहा कि हम कोई अधिग्रहण नहीं कर सकते. आप उस ज़मीन के मालिकों से बात कीजिए. अगर वे अपनी ज़मीन देने को तैयार नहीं हैं, तो हम इस एयरपोर्ट को विकसित नहीं कर सकते. फ्रांस और जर्मनी में जबरन भूमि अधिग्रहण तो क़तई नहीं किया सकता.
अब बात केंद्र सरकार द्वारा किए गए संशोधन की, जिसके तहत अब ज़मीन अधिग्रहण के लिए 80 फ़ीसद किसानों की रजामंदी आवश्यक नहीं होगी. सवाल है कि अगर ज़मीन अधिग्रहण के लिए 70 से 80 फ़ीसद किसानों की रजामंदी की शर्त ख़त्म कर दी गई है, तो इसका अर्थ है कि सरकार जहां की भी ज़मीन, जितनी भी ज़मीन चाहेगी, उसका अधिग्रहण कर पाने में सक्षम हो जाएगी. जाहिर है, विकास के नाम पर टाउनशिप, अस्पताल, होटल, इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट्स बनाने का काम निजी कंपनियां करेंगी. उन्हें इस अधिग्रहीत ज़मीन से फ़ायदा होगा. मुनाफ़ा उक्त कंपनियां कमाएंगी. तब, क्यों सरकार उक्त कंपनियों के लिए प्रॉपर्टी डीलर बनना चाहती है? क्यों नहीं ज़मीन की खरीद-बिक्री सीधे किसानों के ज़रिये कराने की कोशिश की जा रही है.
नव-उदारवाद के दौर में व्यवसायिक घरानों के निवेश और फ़ायदों को लेकर स्थापित किए जाने वाले उद्योग बहुमूल्य ज़मीनों-खनिज संपदा पर क़ब्ज़ा करके अपनी जड़ें मज़बूत करते जा रहे हैं और पीढ़ियों से अपनी ज़मीन पर रह रहे लोगों को बेदखल करते जा रहे हैं. यह बंद होना चाहिए और यह तभी संभव है, जब सरकारें व्यवसायिक घरानों के लिए ग़रीब किसानों की ज़मीनों का अधिग्रहण बंद कर दें. दूसरी बात यह कि ऐसे संशोधन के बाद विकेंद्रीकृत सत्ता यानी ग्रामसभा जैसी संस्था की महत्ता क्या रह जाएगी? लोकतंत्र में जन-सहमति का क्या मतलब रहेगा? संसद की स्थायी समिति ने भी भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल (यूपीए-2 के वक्त) कहा था कि किसी भी निजी अथवा पीपीपी प्रोजेक्ट, जिसे सार्वजनिक उद्देश्य के प्रोजेक्ट के रूप में चिन्हित न किया गया हो, उसके लिए ज़बरदस्ती ज़मीन का अधिग्रहण न किया जाए. लेकिन, तब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्थायी समिति के इस सुझाव को सिरे से नकार दिया था. तब मंत्रालय ने कहा था कि किसी भी निजी प्रोजेक्ट से प्रभावित होने वाले 80 फ़ीसद लोगों की सहमति मिलने पर ज़मीन अधिग्रहीत कर ली जाएगी. अब मौजूदा सरकार ने पीपीपी परियोजनाओं के लिए इस 80 फ़ीसद सहमति वाले प्रावधान को भी ख़त्म कर दिया है.
इस संशोधन के ज़रिये कुछ ख़ास परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण से होने वाले सामाजिक प्रभाव के आकलन वाले प्रावधान को हटा दिया गया है. जबकि ज़रूरी यह है कि किसी भी काम के लिए होने वाले ज़मीन अधिग्रहण से भविष्य में पड़ने वाले सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए. यह आकलन विशेषज्ञ समिति द्वारा ग्रामसभा के सहयोग से किया जाना चाहिए और संबंधित रिपोर्ट ग्रामसभा को भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए. वर्षों से जन संगठन भी इस बात की मांग करते रहे हैं कि भूमि अधिग्रहण क़ानून में सरकारी और निजी, हर तरह के प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए ग्रामसभा की सीधी भागीदारी और सहमति आवश्यक होनी चाहिए. इस संशोधन से पहले भी भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. यूपीए-2 में भी जब इसमें संशोधन किए गए थे, तब कई सवाल खड़े हुए थे. उनमें एक महत्वपूर्ण सवाल स्थायी समिति ने उठाया था. समिति ने कहा था कि ज़बरदस्ती कृषि भूमि का अधिग्रहण न किया जाए, जिसमें एक-फसली और बहु-फसली, दोनों तरह की ज़मीनें शामिल हैं. लेकिन, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स़िर्फ यह कहा कि केवल बहु-फसली ज़मीन को ही अधिग्रहण के दायरे से बाहर रखा जाएगा. ऐसा हुआ भी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस तरह तो देश के 75 फ़ीसद किसान अधिग्रहण के दायरे में आ जाएंगे, क्योंकि देश में अधिकांश जगहों पर खेती वर्षा पर निर्भर है. इन खेतों में वर्ष में केवल एक फसल ही सिंचाई के साधनों की अनुपलब्धता के कारण पैदा की जा सकती है. ऐसी ज़मीनें भी अधिकांशत: दलितों, आदिवासियों एवं छोटे किसानों के अधीन हैं. अधिग्रहीत की गई ज़मीन की वापसी को लेकर भी इस बिल में कुछ सवाल उठाए गए थे. मसलन, स्थायी समिति ने कहा था कि यदि अधिग्रहीत की गई ज़मीन का पांच साल तक उपयोग नहीं होता है, तो ज़मीन अधिग्रहण की तिथि के पांच साल बाद भूमि मालिक को वापस कर देनी चाहिए. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पांच साल की बात स्वीकार भी की. लेकिन, अनुभव यह बताता है कि ऐसी बहुत-सी अधिग्रहीत ज़मीनें हैं, जिनका इस्तेमाल 25 सालों तक नहीं हुआ और फिर भी वे उनके पुराने मालिकों को नहीं लौटाई गईं. फिर इस बात की क्या गारंटी है कि पांच साल बाद ज़मीन वापस कर दी जाएगी.
बहरहाल, भाजपा सरकार ने पूर्व की ग़लतियां दोहराते हुए या कहें कि एक क़दम और आगे बढ़कर इस क़ानून को कमज़ोर बनाने का काम किया है. इन संशोधनों को देखने और इनके दूरगामी प्रभाव को समझने के बाद पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और मौजूदा एनडीए सरकार की नीतियों में कोई फ़़र्क करना मुश्किल है. इन संशोधनों के बाद यह साफ़ हो गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार भी वही काम कर रही है, खासकर ग़रीब किसानों के ख़िलाफ़, जो यूपीए-2 सरकार ने किया था. लेकिन, मौजूदा सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता ने जिस उम्मीद में उसे सत्ता सौंपी थी, अगर वह उम्मीद टूटती है, तो वही जनता उसे सत्ता से बाहर भी कर सकती है. ज़मीन का प्रत्यक्ष संबंध इस देश के 80 फ़ीसद से भी अधिक लोगों के साथ है. अध्यादेश के ज़रिये लाए गए उक्त संशोधन इस क़ानून को देश के किसानों, दलितों, आदिवासियों और ग़रीबों के ख़िलाफ़ खड़ा कर देते हैं. सरकार ने जिस जल्दबाजी में उक्त संशोधन किए हैं, उससे एक बात तो साफ़ हो गई है कि कम से कम इस देश के किसानों के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं.


कितना कारगर होगा विपक्ष का विरोध
सरकार के इस ़फैसले का विरोध भी शुरू हो गया है. कांग्रेस और जनता दल (यूनाइटेड) ने भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन के लिए मोदी सरकार द्वारा अध्यादेश लाए जाने का विरोध किया है. इन दोनों पार्टियों ने इस अध्यादेश का संसद के आगामी सत्र में विरोध करने की बात कही है. जनता दल (यूनाइटेड) ने तो इस अध्यादेश के ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन करने का भी ़फैसला किया है. कांग्रेस ने कहा है कि तीन साल के गहन विचार-विमर्श के बाद यह क़ानून बनाया गया था और इसमें सभी पहलुओं को ध्यान में रखा गया था. अब मोदी सरकार इसमें संशोधन करने के लिए अध्यादेश लाई है. हम उसका संसद में विरोध करेंगे. जदयू के मुताबिक, नया अध्यादेश कॉरपोरेट एवं औद्योगिक घरानों और बिल्डरों के हितों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है. पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा कि सरकार ने इस तरह किसानों के हितों की अनदेखी की है और संसद का भी अपमान किया है. उन्होंने कहा कि अगर सरकार ने यह अध्यादेश वापस नहीं लिया, तो जनता दल परिवार उसके ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन छेड़ेगा. ज़मीन अधिग्रहण क़ानून में संशोधन के लिए केंद्र सरकार की ओर से अध्यादेश लाने की सिफारिश का पश्‍चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जोरदार विरोध करते हुए इसे अनुचित करार दिया है. बनर्जी ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि हम प्रतीक रूप में इसकी प्रतियां जलाकर ज़मीन अधिग्रहण पर इस काले और अनुचित अध्यादेश का विरोध करेंगे.
पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन करने के सरकार के फैसले को निराशाजनक बताया. रमेश के मुताबिक, इससे जबरन अधिग्रहण, अत्यधिक अधिग्रहण और किसानों के स्वामित्व वाली ज़मीन को दूसरे काम में लगाने का चलन शुरू हो जाएगा.

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