उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित कर इसे केंद्र सरकार को भेजने का निर्णय लिया है. सूची में निषाद, बिन्द, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा तथा गौड़ आदि जातियां शामिल हैं. सरकार का यह कदम इन जातियों को कोई वास्तविक लाभ न पहुंचा कर केवल उनको भुलावा देकर वोट बटोरने की चाल है.
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी वर्ष 2006 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची तथा तीन अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए शासनादेश जारी किया था. अंबेडकर महासभा तथा अन्य दलित संगठनों द्वारा दी गई चुनौती के बाद अदालत ने उसे रद्द कर दिया था.
परन्तु सपा ने यह दुष्प्रचार किया था कि इसे मायावती ने 2007 में सत्ता में आने पर रद्द कर दिया था. वर्ष 2007 में सत्ता में आने पर दलितों की तथाकथित स्वयंभू मसीहा मायावाती ने भी इसी प्रकार से 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने की संस्तुति (2011 में) केंद्र सरकार को भेजी थी. इस पर केंद्र सरकार ने इसके औचित्य के बारे में सूचनाएं मांगीं. मायावती इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकीं, लिहाजा केंद्र सरकार ने उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया था.
इससे स्पष्ट है कि समाजवादी पार्टी और बसपा इन पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने और अधिक आरक्षण दिलवाने का लालच देकर उनका वोट प्राप्त करने की राजनीति कर रही है, क्योंकि दोनों पार्टियां यह अच्छी तरह जानती हैं कि इन जातियों को अनुसूचित जाति की सूचि में शामिल करने का अधिकार उनके पास नहीं है और न ही उक्त जातियां अनुसूचित जातियों के मापदंड पर सही उतरती हैं. वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने अथवा इस से निकालने का अधिकार केवल संसद को है.
राज्य सरकार औचित्य सहित केवल अपनी संस्तुति केंद्र सरकार को भेज सकती है. इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से परामर्श के बाद संसद के माध्यम से किसी जाति को सूचि में शामिल कर सकती है अथवा निकाल सकती है. संविधान की धारा 341 के अनुसार राष्ट्रपति राज्यपाल से परामर्श करके संसद द्वारा कानून पास करवा कर इस सूचि में किसी जाति का प्रवेश अथवा निष्कासन कर सकत हैं.
इसमें राज्य सरकार को कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं है. वास्तव में ये पार्टियां अपनी सिफारिश केंद्र सरकार को भेज कर सारा मामला कांग्रेस (तत्कालीन केंद्र सरकार) की झोली में डालकर यह प्रचार करती रही हैं कि राज्य ने तो उक्त जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने की पहल कर दी, लेकिन केंद्र सरकार इसमें रुचि नहीं ले रही. यह सीधा-सीधा अति पिछड़ी जातियों को गुमराह करके वोट बटोरने की राजनीति है, जिसे अब उक्त जातियां भी अच्छी तरह से समझ रही हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि अखिलेश यादव की सपा सरकार अथवा मायावती की बसपा सरकार द्वारा अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने की जो संस्तुति पहले की गई थी अथवा आगे की जाएगी वह मान्य नहीं होगी, क्योंकि ये जातियां अनुसूचित जातियों की अस्पृश्यता की आवश्यक शर्त पूरा नहीं करती हैं. यह सर्वविदित है कि अनुसूचित जातियां सवर्ण हिन्दुओं के लिए अछूत रही हैं, जबकि सम्बन्धित पिछड़ी जातियों के साथ ऐसा नहीं है.
लिहाजा, उन्हें किसी भी हालत में अनुसूचित जाति की सूचि में शामिल किया जाना संभव नहीं है. यदि सपा सरकार इन पिछड़ी जातियों को वास्तव में आरक्षण का लाभ देना चाहती है, तो उसे इन जातियों की सूची को तीन हिस्सों में बांट कर उनके लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बांट देना चाहिए. वर्तमान में उन्हें पिछड़ों में यादव, कुर्मी और जाट जैसी समृद्ध जातियों के कारण आरक्षण लाभ नहीं मिल पा रहा है. देश के अन्य कई राज्यों बिहार, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि में यह व्यवस्था पहले से ही लागू है. मंडल आयोग की रिपोर्ट में भी इस प्रकार की संस्तुति की गई थी.
उत्तर प्रदेश में इस सम्बन्ध में 1975 में डॉ. छेदी लाल साथी की अध्यक्षता में सर्वाधिक पिछड़ा आयोग गठित किया गया था, जिसने अपनी रिपोर्ट 1977 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंप दी थी. लेकिन उस पर आज तक कोई भी कार्रवाई नहीं हुई. साथी आयोग ने पिछड़े वर्ग की जातियों को तीन श्रेणियों में बांटने तथा उन्हें 29.5 प्रतिशत आरक्षण देने की संस्तुति की थी.
साथी आयोग के मुताबिक तीन श्रेणियों में अ श्रेणी में उन जातियों को रखा गया था जो पूर्ण रूपेण भूमिहीन, गैर-दस्तकार, अकुशल श्रमिक, घरेलू सेवक हों और हर प्रकार से ऊंची जातियों पर निर्भर हों. उन्हें 17 प्रतिशत आरक्षण देने की संस्तुति की गई थी. ब श्रेणी में पिछड़े वर्ग की वे जातियां थीं, जो कृषक या दस्तकार हैं. इन्हें 10 प्रतिशत आरक्षण देने की संस्तुति की गई थी.
स श्रेणी में मुस्लिम पिछड़े वर्ग की जातियां रखी गईं, जिन्हें 2.5 प्रतिशत आरक्षण देने की संस्तुति की गई थी. मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध है. अतः डॉ. छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप पिछड़ी जातियों को तीन हिस्सों में बांट कर उपलब्ध आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बांटना अधिक न्यायोचित होगा. इससे अति पिछड़ी जातियों को अपने हिस्से के अंतर्गत आरक्षण मिलना संभव हो सकेगा.
इन अति पिछड़ी जातियों को यह भी समझना होगा कि सपा सरकार इन अति पिछड़ी जातियों को इस सूचि से हटा कर अपनी समृद्ध जातियों यादव, कुर्मी और जाट के लिए आरक्षण बढ़ाना चाहती है और उन्हें अनुसूचित जातियों से लड़ाना चाहती है. अतः उन्हें सपा और बसपा की इस चाल को समझना चाहिए और उन के झांसे में न आ कर डॉ. छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुसार अपना आरक्षण अलग कराने की मांग उठानी चाहिए.
इसी प्रकार कुछ जातियां जो वर्तमान में अनुसूचित जातियों की सूचि में हैं परन्तु उन्हें अनुसूचित जनजातियों की सूचि में होना चाहिए. ऐसी जातियों को सपा सरकार से मांग करनी चाहिए कि वह एक आयोग का गठन कर उनकी स्थिति का आकलन करे और केंद्र से इसके लिए सिफारिश करे. तभी इन जातियों को भी उचित न्याय मिल सकेगा, वरना वे इन पार्टियों के झूठे आश्वासनों पर इसी तरह ठगे जाते रहेंगे.