iiप्रिय इंदिरा जी,

कुछ दिनों पहले जब मैं एक दिन के लिए दिल्ली में था, तो मुझे पता चला कि कश्मीर के सवाल की समीक्षा के लिए 26 तारीख को आपने मिस्टर सादिक और उनके कुछ सहयोगियों को मुलाकात के लिए बुलाया था. उस मीटिंग के महत्व के मद्देनज़र, मैं अपने कुछ विचार आपके सामने रखना चाहता हूं. मुझे उम्मीद है कि मैं कोई बाधा उत्पन्न नहीं कर रहा हूं और आप यह भी नहीं सोचेंगी कि मैं आप पर कोई दबाव डाल रहा हूं.

कश्मीर के सवाल को लेकर यह देश 19 वर्षों से परेशान है. इसकी कीमत हमने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से चुकाई है. हम लोकतंत्र में विश्‍वास रखते हैं, लेकिन कश्मीर में ताकत के बल पर शासन करते हैं. हम अपने आपको बहलाते रहे हैं कि बख्शी साहब के नेतृत्व में हुए दो आम चुनावों ने जनता की इच्छाओं को व्यक्त कर दिया है और ये कि जनता के एक छोटे हिस्से पाकिस्तान समर्थक गद्दारों को छोड़कर बाकी लोगों के लिए सादिक सरकार लोकप्रिय बहुमत पर आधारित सरकार थी. हमलोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद को येन-केन-प्रकारेण दबाव डालकर स्थापित करने का प्रयास करने देते हैं.

कश्मीर ने दुनिया भर में भारत की छवि को जितना धूमिल किया है, उतना किसी और मसले ने नहीं किया है. रूस समेत दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जो हमारी कश्मीर संबंधी नीतियों की तारीफ करता हो, यद्यपि उनमें से कुछ देश अपने कुछ वाजिब कारणों से हमें समर्थन देते हैं.

ये कोई मायने नहीं रखता कि कितना अधिक, कितने जोर से और कितने लंबे समय से हम इस बात पर गुमान करते रहें कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसलिए कोई कश्मीर समस्या नहीं है. इसके बावजूद यह तथ्य अपनी जगह मौजूद है कि देश के उस हिस्से में हम एक गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या का सामना करते आ रहे हैं. वह समस्या इसलिए नहीं है कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वहां जनता में गहरा और व्यापक राजनीतिक असंतोष है. देश की जनता को कश्मीर घाटी की वास्तविक स्थिति के बारे में अंधकार में रखा जा सकता है. लेकिन नई दिल्ली स्थित सभी विदेशी दफ्तर और सभी विदेशी संवाददाताओं को सच का पता है. यह लग सकता है कि हमारे खुफिया तंत्र को छोड़ कर सभी को सच का पता है. हमें भी तथ्यों की जानकारी है, लेकिन हम उनका सामना नहीं करना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि कोई (शायद सादिक साहब या कासिम साहब) एक दिन जादू की छड़ी घुमाएगा और पूरी घाटी में एक मनोवैज्ञानिक बदलाव हो जाएगा.

कुछ ऐतिहासिक घटनाओं ने, जिनमें से कुछ हमारे नियंत्रण में हैं और कुछ नहीं हैं, ने हमारी कार्यकुशलता (जो भारत सरकार को अब तक आ जानी चाहिए थी) को संकुचित करने का काम किया है. उदाहरण के लिए, अब राज्य के किसी भी हिस्से का किसी भी तरह से अलग होने का प्रयास अव्यावहारिक है, इस संदर्भ में यह बात मायने नहीं रखती कि यह लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के कितने अनुरूप है. जो भी समाधान होगा, वह अधिग्रहण की परिधि में ही होगा.

और यहीं पर शेख साहब की भूमिका निर्णायक हो सकती है. मैं उनकी रिहाई की बात इसलिए नहीं करता हूं कि वे मेरे मित्र हैं. निश्‍चित रूप से मित्रता प्रत्येक मानवीय परिस्थिति में महत्वपूर्ण होती है, लेकिन मुझे उम्मीद है कि मेरे अंदर इतना नैतिक अनुशासन है कि मैं अपने सर्वप्रिय लोगों को, यदि इन्साफ का तक़ाज़ा यही हो तो, बिना किसी विरोध के फांसी पर चढ़ जाने दूं. यही बात राष्ट्रीय हित के मामलों में भी कह सकता हूं, लेकिन कई बार यह तय करना संभव नहीं होता है कि हमारे राष्ट्रीय हित क्या है? विभिन्न व्यक्ति, जो एक समान देशभक्त हैं, एक निश्‍चित परिस्थिति में इसकी अलग-अलग व्याख्या करते हैं.

इस लिहाज़ से मैं यह कहना चाहूंगा कि शेख अब्दुल्ला को उन पर लगे आरोपों के खिलाफ खुद को बेदाग साबित करने का अवसर दिए बिना गिरफ्तार करना न्यायसंगत नहीं था. अपनी तरफ से उन्होंने देश लौटने का फैसला लेकर अपनी वास्तविकता को बेहतर तरीके से स्थापित कर अपने विरोधियों का बेहतर तरीके से जवाब दिया है.

मैं ये भी नहीं सोचता हूं कि वे देश के गद्दार हैं. गोडसे ने सोचा था कि गांधी जी गद्दार थे. आरएसएस समझता है कि जयप्रकाश गद्दार हैं. गोडसे एक व्यक्ति था, जबकि आरएसएस एक निजी संगठन है. एक लोकतांत्रिक सरकार लोगों का प्रतिनिधित्व करती है और इसके कुछ सिद्धांत होते हैं, जिसके अनुरूप वह कार्य करती है. भारत सरकार किसी को गद्दार नहीं करार दे सकती, जब तक पूरी कानूनी प्रक्रिया से ये साबित न हो जाए कि वह गद्दार है. अगर सरकार ऐसा करने में अपने को असमर्थ पाती है, तब डीआईआर का प्रयोग करना और लगातार प्रयोग करना कायरतापूर्ण है, उस समय भी जब देश की सुरक्षा को कोई खतरा महसूस न हो.

मैं सोचता हूं कि चाऊ एन लाई से मिलने का फैसला शेख साहब का एक अविवेकपूर्ण निर्णय था. लेकिन इसके बारे में इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. कोई भी साफ दिल का व्यक्ति यह नहीं सोचेगा कि यह एक देशद्रोही कदम था. जब चीन ने 1962 में आक्रमण किया था, तब क्या उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी वेदना प्रकट नहीं की थी? क्या उन्होंने 25 मई 1964 को रावलपिंडी में चौधरी गुलाम अब्बास को चीनी हस्तक्षेप की मांग करने के लिए सार्वजनिक रूप से डांट नहीं लगाई थी? लंदन में, क्या उन्होंने एक संवाददाता सम्मेलन (टाइम्स 19 मार्च 1965) में यह नहीं कहा था कि चीन का लद्दाख पर दावा करना अमान्य है. शेख के विदेशों में दिए गए बयानों पर तरह-तरह की बातें की गईं. मुझे संदेह है कि अगर इसकी निष्पक्ष जांच की जाए, तो उनके बयान जो विदेशी मीडिया में प्रकाशित हुए हैं और जिसे देश की मीडिया ने विकृत रूप में पेश किया है, में ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे भारत में नहीं कहते रहे हों. मैं इस बात से सहमत हूं कि ज्यादा बेहतर ये होता कि शेख साहब कम बोलते और सतर्कता के साथ अपनी बातें रखते. लेकिन शेख साहब जैसी शख्सियत से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपने आप को बदलेंगे, वे बिलकुल चुप नहीं रह सकते हैं. यह हम भारतीयों की एक आम कमजोरी है. क्या केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों ने सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपनी बारी से पहले बयान नहीं दिए हैं? यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू के जीवनकाल में भी ऐसा होता रहा था.

मैं इस अध्याय को शेख साहब के एक बयान के हवाले से समाप्त करना चाहता हूं. विदेश यात्रा पर जाने से पूर्व 10 फरवरी 1965 को कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में एक स्वागत समारोह में उन्होंने कहा था कि हमारे आपसी मतभेद जरूर हो सकते हैं, लेकिन आखिरकार भारत हमारी जन्मभूमि है. भगवान न करे, अगर ऐसा होता कि भारत वैसा नहीं रहता जैसा अभी है और खंडित हो जाता है तो दूसरों को कौन बचाएगा? हमें समस्या को इस नजरिए से भी देखना चाहिए.

मैं शेख की रिहाई की मांग इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि वे मेरे दोस्त हैं या मैं नागरिक स्वतंत्रता से सरोकार रखता हूं. इस संदर्भ में मेरी प्राथमिक रुचि कश्मीर समस्या के समाधान खोजने की दिशा में है. जैसा कि मैं देख पाता हूं कि अगर इस समस्या का कोई समाधान संभव है, तो वह शेख अब्दुल्ला के सहयोग से ही संभव है. हालांकि मैं इस बारे में पूर्ण रूप से आश्‍वस्त नहीं हूं, लेकिन कोई भी ऐसा नहीं कह सकता है. जो विचार मेरे सामने हैं, वे स्पष्ट रूप से शेख अब्दुल्ला की बिना शर्त रिहाई के पक्ष में हैं. उसमें जोखिम हो सकता है, लेकिन यह जोखिम तो हर बड़े राजनीतिक और सैनिक निर्णय में लेना होता है. वास्तव में, यह जोखिम मानव के अधिकतर निर्णयों में रहता है, यहां तक कि जब दो लोग शादी करने का निर्णय लेते हैं, तब भी रहता है.

यहां मैं विषय से थोड़ा अलग हटना चाहूंगा. ऐसा महसूस होता है कि नंदाजी, श्री आरके पाटील से कहते हैं कि जयप्रकाश कश्मीर मसला और शेख अब्दुल्ला के सवाल पर जन भावनाओं से पूरी तरह से नावाकिफ हैं. मैं सोचता हूं कि हमारे अधिकतर सहयोगी भी कुछ ऐसा ही विचार रखते हैं. इसलिए मैं कुछ बातें कहकर इसे स्पष्ट करना चाहता हूं, जो आपके सहयोगियों को एक सही फैसले तक पहुंचने में मदद करेगी.

सबसे पहले, कुछ लोगों ने, जिनमें छिपे हुए वामपंथी और सभी हिंदू राष्ट्रवादी शामिल हैं, ने जयप्रकाश नारायण की एक खास छवि प्रस्तुत की, जिसमें उन्हें एक बेवकूफ आदर्शवादी और छिपे हुए गद्दार के रूप में पेश किया गया. वे उनके बयानों को ता़ेड-मरोड़कर अपनी बात साबित करने की कोशिश करते हैं. उदाहरण के लिए, ऐसा मान लिया जाता है कि मैं नगाओं के लिए नगालैंड और पाकिस्तानियों को कश्मीर सौंपने की वकालत करता हूं. लेकिन ऐसा मैंने कभी नहीं कहा है. यहां तक कि अक्साई चीन के मामले में, मैंने एक लीज (एक अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त लेन-देन, जिसपर हाल में भारत-नेपाल समझौते में भारत ने सहमति दी है) का सुझाव दिया था. यह सलाह लेन-देन के प्रस्ताव पर आधारित था, जैसा कि चीन, भारत की चुम्बी घाटी या फिर 2500 मील के बॉर्डर पर किसी अन्य जगह के लिए भारत की मांग पर सहमत हो जाता है. लेकिन मेरी एक गलत छवि बनाकर पेश की गई, जिससे दूसरों के लिए आलोचना करना आसान हो गया.

लेकिन ये काम जयप्रकाश के प्रति लोगों के स्नेह को कम नहीं कर सका. मैं बिना लाग-लपेट के जोर देकर ये कहना चाहता हूं कि आपको छोड़कर आपकी सरकार में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है जो मेरी तरह लगातार और व्यापक रूप से लोगों के संपर्क में रहता हो. मैं रोज जनसभाओं को संबोधित करता हूं और मेरा अनुभव ये है कि लोग मुझे पूरी तरह से ध्यान लगाकर सुनते हैं और उसके बाद लोग मेरी बातों पर सहमति जताने के लिए आते हैं और कहते हैं कि उन्हें पूरी तरह से भ्रामक जानकारी दी गई थी. और जो मैं बातें कह रहा हूं, उससे वे पूरी तरह से सहमत हैं. पश्‍चिम पाकिस्तान की यात्रा के बाद दिल्ली में मेरी सिर्फ दो सभाओं में लोगों ने हंगामा किया और ये हंगामा खड़ा करने वाले आरएसएस के लोग थे, जो कुंद दिमाग के लोग थे. मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि सभी लोग जो मुझे सुन रहे थे, उकसाने वाले लोग थे, लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि जिस दृढ़ता और विश्‍वास के साथ मैंने अपनी बात रखी, वो लोगों की समझ से परे नहीं थी.

अंत में, (विषयांतर से पहले) मैं यह कहना चाहूंगा कि देश के नेता जनता के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. नेतृत्व करना नेताओं का काम है, लेकिन उनमें से ज्यादातर इतने डरपोक हैं कि अलोकप्रिय नीतियों पर वे सच्चाई बयान नहीं कर सकते हैं और अगर ऐसे हालात पैदा हुए तो जनता के आक्रोश का सामना नहीं कर सकते हैं. जहां तक मेरा सवाल है, मैं अपने लोगों पर विश्‍वास करता हूं. वे बुद्धिमान और अच्छे हैं. अगर उनके सामने सभी तथ्य रखे जाएं, तो वे सही फैसला लेने में सक्षम हैं. बिना आपकी झूठी तारीफ के मैं यहां कहना चाहूंगा कि हाल में आपके द्वारा उठाए गए साहसिक कदम से आपने यह दिखा दिया है कि आपने जनता को एक उचित और साहसिक नेतृत्व दिया है.

इस पत्र के मूल उद्देश्य की तरफ लौटते हुए, मैं शेख अब्दुल्ला की रिहाई की वकालत क्यों करता हूं? क्योंकि यह हम लोगों को कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में एक महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध करा सकता है. कैसे? क्योंकि अगर कश्मीर के भविष्य को लेकर भारत सरकार उनके साथ कोई समझौता करने में सफल हो जाती है, (जो अधिग्रहण की सीमाओं के दायरे में होगा) तो शेख अब्दुल्ला एकमात्र ऐसे कश्मीरी नेता हैं, जो कश्मीर घाटी के मुसलमानों के जनमत को अपनी तरफ मोड़ सकते हैं. मैं समझता हूं कि यह स्पष्ट है कि भारतीय संघ इस संबंध में अंतिम हद तक जा सकता है और वह है पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता, जो अधिग्रहण की मूल शर्तों के मुताबिक होगा.

इस जगह पर कुछ सवाल पैदा होते हैं. क्या शेख साहब किसी ऐसी स्थिति के लिए सहमत होंगे? अगर उन्होंने ऐसा किया, तो क्या वे कश्मीरियों को इस बात पर सहमति के लिए अपने पीछे गोलबंद कर सकेंगे? क्या स्वायत्त कश्मीर देर-सबेर भारतीय संघ से अलग होने की कोशिश नहीं करेगा?

नंदाजी ने यह पूछकर कि शेख के विचार बदल चुके हैं, क्या इसका कोई प्रमाण है, पूरे मुद्दे पर लीपापोती करने का प्रयास किया है. इससे पहले वे कुछ और सोचते थे. श्री राधाकृष्णन और श्री नारायण देसाई का शेख अब्दुल्ला के साथ मीटिंग का जिक्र करते हुए 26 नवंबर 1965 को राज्य सभा में नंदाजी ने कहा था कि सर्वोदय नेताओं की मुलाकात ने एक बहुत सकारात्मक संकेत दिया था. अगर इसे मान भी लिया जाए कि शेख नहीं बदले हैं, तो भी उनके बारे में कही गई सभी बातें मेरे लिए बचकानी प्रतीत होती हैं. किसी आदमी को अधिक लचीला बनाने के लिए जेल में रखना सही रास्ता नहीं है. नंदाजी ने ब्रिटिश भारतीय जेल में रहकर स्वयं के अनुभव से यह बात ज्यादा सीखी होगी.

इसके अतिरिक्त, शेख बदल चुके हैं, की सरकारी घोषणा कर उन्हें रिहा कर दिया जाए, तो क्या होगा? उसके बाद अगर शेख श्रीनगर पहुंचेंगे तो क्या भीड़ शेर-ए-कश्मीर जिंदाबाद या भारत का पिट्ठू मुर्दाबाद जैसे नारे लगाएगी. कश्मीरियों को एक बेहतर भारतीय नागरिक बनाने के लिए राजी करने के लिए शेख के पास क्या रास्ता रह जाएगा? ये सभी चीजें इतनी स्पष्ट हैं. यह आश्‍चर्यजनक है कि क्यों गृहमंत्री इसे देख नहीं पा रहे हैं.

इसके उलट, मैं निश्‍चित हूं कि शेख साहब रिहाई के बाद कश्मीरियों के अधिकार (अपने भविष्य का निर्णय करने) के सवाल को बार-बार दोहराएंगे. वे फिर घोषणा करेंगे कि अधिग्रहण अंतिम नहीं था और तथाकथित आम चुनाव जनता की इच्छा को अभिव्यक्त नहीं करते हैं. हमलोगों को यह सब समझने के लिए अधिक परिपक्वता दिखानी होगी और उन पर पाकिस्तानी एजेंट का अभियोग नहीं लगाना होगा. वह कभी नहीं कहेंगे कि कश्मीरी भारत के अंदर स्वायत्तता की स्थिति पर सहमति दे दें क्योंकि ये सिर्फकश्मीरी ही हैं जिन्हें यह निर्णय लेना है. इसके बाद अगर वे बाहर आते हैं और घोषणा करते हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान कश्मीर विधानसभा चुनाव और दो आम चुनावों के जरिए हो चुका है, जब वे जेल में थे, तब उनकी बातों का बख्शी साहब और सादिक साहब की तरह कोई महत्व नहीं रह जाएगा.

सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि शेख अब्दुल्ला किस तरीके से चाहते हैं कि कश्मीरी अपने भविष्य का फैसला करेंे? मैं निश्‍चित हूं कि वे जनमत संग्रह नहीं चाहेंगे. तब कैसे? एक रास्ता है. और इन परिस्थितियों में सबसे बेहतर भी कि 1967 के आम चुनाव में लोगों को इस बात का निर्णय खुद करने की आजादी देनी चाहिए. भारत सरकार के साथ अपने समझौते के आधार पर चुनाव लड़कर शेख ऐसा कर सकते है.  क्या कश्मीर के निवासी केंद्र के अधीन अधिक स्वायत्तता जैसी स्थिति पर खुश होंगे? मैं सोचता हूं, वे इसके लिए तैयार होंगे, अगर शेख साहब उनसे स्पष्ट रूप से कहें कि यह अपने आप को आत्म विनाश से सुरक्षित रखने का एकमात्र रास्ता है, नहीं तो उनका क्षेत्र भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का क्षेत्र बनकर रह जाएगा. अगर यह दिखाया जाए कि उन्होंने अपने वास्तविक नेताओं के नेतृत्व में चुनाव के जरिए स्वतंत्र रूप से यह निर्णय लिया है, तब पाकिस्तान को उनके मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं होगा. यह भारत-पाकिस्तान मैत्री की दिशा में सबसे बेहतर रास्ता होगा. तभी भारतीय पुलिस की ज्यादतियों से उन्हें छुटकारा मिलेगा और वे पूरी स्वतंत्रता का मजा ले सकेंगे, वैसी जिंदगी जी सकेंगे, जैसी जिंदगी वे जीना चाहते हैं. अगर यह सब उनके नेतृत्व में हो, जिसे वे अपना नेता मानते हैं, तब मुझे पूरी उम्मीद है कि वे लोग बिना विरोध के अपनी इच्छा से इसे स्वीकार कर लेंगेे.

मुझसे पूछा जा सकता है कि किस आधार पर मैं विश्‍वास करता हूं कि शेख अब्दुल्ला भारत के अंदर स्वायत्तता को स्वीकार कर लेंगे. बहस के एक हिस्से के रूप में, मैंने मीडिया को दिए बयान में कहा था, जिसे तब आप और आपकी सरकार की नोटिस में भी यह बात ली गई थी, उसी बात को मैं नीचे जस का तस रख रहा हूं.

कई वर्षों से माना जाता है कि शेख साहब कश्मीर के पाकिस्तान के साथ विलय के खिलाफ मजबूती से खड़े हैं. उन्होंने निस्संदेह एक स्वतंत्र कश्मीर के विचार का समर्थन किया, लेकिन मैं विश्‍वास करता हूं कि वे एक यथार्थवादी होने के नाते ये महसूस करेंगे कि…

  1. पाकिस्तान से पिछले युद्ध के बाद, भारत कश्मीर समस्या के किसी ऐसे हल पर, जिसमें संघ से अलग होने की बात हो, पर राजी नहीं होगा.
  2. दुनिया के एक ऐसे हिस्से में एक स्वतंत्र राज्य के रूप में जीवित रहने की संभावना बहुत कम है, जहां पाकिस्तान कश्मीर घाटी को हड़पने की इच्छा रखता हो और चीन उस क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ा रहा हो.

इस बहस को आगे बढ़ाते हुए, मैं यह कहना चाहता हूं कि शेख साहब ने नारायण और राधाकृष्णन से कहा था कि वे कश्मीर के पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता की स्थिति पर भी तैयार हो जाएंगे, बशर्ते इस स्वायत्तता को धीरे-धीरे कम नहीं किया जाए और राज्य के आंतरिक मामलों में केंद्र हस्तक्षेप नहीं करे. अंतिम साक्ष्य के रूप में मेरे पास गुल शाह की रिपोर्ट है, जिससे जेजे पूर्ण रूप से आपको अवगत करा चुके हैं.

मैं मानता हूं कि मेरा केस पूरी तरह से फुलप्रूफ नहीं है. ऐसा कोई केस होता भी नहीं है. नंदा जी का केस भी ऐसा नहीं है. शेख अब्दुल्ला को जेल में रखकर कश्मीर में आम चुनाव कराना वैसा ही है, जैसा कि जवाहरलाल नेहरू को जेल में बंद कर ब्रिटिश भारत में एक आम चुनाव का आदेश दे. कोई भी खुले दिमाग का व्यक्ति इसे निष्पक्ष चुनाव नहीं मानेगा. तब यह चुनाव भी पहले के दो आम चुनावों की तरह कोई राजनीतिक समाधान नहीं दे सकेगा. और अगर हमलोग अगले चुनाव के दौरान केंद्र के अधीन रहने के मसले पर कश्मीर की जनता की सहमति हासिल करने के अवसर को गंवा देते हैं तो भारत के पास इसके अलावा कोई दूसरा समाधान नहीं होगा. ऐसा सोचना कि आखिरकार हमलोग वहां के निवासियों को काबू में कर लेंगे और ताकत का प्रयोग कर कम से कम केंद्र के साथ सहयोग के लिए राजी कर लेंगे, अपने को भ्रम में रखना है. वर्तमान स्थिति में वहां की जनता के बीच असंतोष को देखते हुए इसे पाकिस्तान के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए. देर-सबेर चीन भी बहती गंगा में हाथ धो लेने से पीछे नहीं रहेगा. अगर कश्मीर की जनता के बहुमत से इस मुद्दे का समाधान ढूंढ लिया जाता है, तो वहां गड़बड़ी फैलाने वाली बाह्य शक्तियों के लिए कश्मीर एक ऐसी उर्वर भूमि नहीं रह जाएगी, जहां वे गड़बड़ी कर सकें. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब हो रही है. कोई भी उत्तरदायी सरकार फिर हमपर इल्जाम नहीं लगा सकेगी.

जो दूसरा सवाल पूछा जा सकता है वो ये कि क्या शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान को बाहर रखने के लिए भारत सरकार के साथ बातचीत करेंगे? हां, उन्होंने भारत-पाक युद्ध को ध्यान में रखते हुए दो सर्वोदयी मित्रों से कहा था कि वे अपने आप को भारत के साथ द्विपक्षीय बातचीत के लिए तैयार कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि पहले स्टेज का मतलब यह है कि पाकिस्तान को बाद में इसमें शामिल किया जाएगा और उससे कहा जाएगा कि वह भारत सरकार और उनके बीच हुए समझौते पर अपनी सहमति दे. मैं इस प्रयोग में कोई भी अप्रिय बात नहीं देखता हूं. देर-सबेर कश्मीर के मसले से जुड़े किसी भी वास्तविक समझौते पर पाकिस्तान की सहमति ली जा सकती है, ताकि सीमा पर युद्धविराम को लागू किया जा सके और दो देशों के बीच के तनाव को, जिसका बुरा असर कश्मीर पर पड़ता है, को कम किया जा सके. भारत के साथ समझौते पर पाकिस्तान की सहमति लेने की शेख साहब की चिंता पर नाराज हुए बिना हमलोगों को खुद पहल करनी चाहिए और इस संदर्भ में उनके ओहदे का इस्तेमाल करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

मैं एक लंबा पत्र लिखने के लिए आपसे माफी चाहता हूं. लेकिन मैं महसूस करता हूं कि यह मेरा देश के प्रति कर्तव्य था कि इन विचारों को आपके और आपके सहयोगियों के सामने रखूं.

आपका शुभेच्छु

जयप्रकाश नारायण

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