लोकतंत्र की संभावित मौत की आशंका ने एक ओर उन्हें चिंतित किया है, जिनका लोकतंत्र में भगवान की तरह भरोसा है, तो दूसरी ओर मीडिया के एक वर्ग को भी चिंतित किया है. मीडिया के दोनों अंगों के बड़े नाम वाले  संस्थानों ने अभियान चलाया है कि जनता को जाग्रत करें और उसे सही लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित करे. कई टेलीविज़न चैनलों पर फिल्म स्टार अपील करते नज़र आ रहे हैं, तो कई पर लोगों को प्रेरित करती छोटी-छोटी विज्ञापन फिल्में चल रही हैं.
वैसे तो हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव तो जैसे हमारे सामने सवाल ही सवाल लेकर खड़ा है. क्या ऐसी लोकसभा चुनकर हमारे सामने आएगी जिस पर अच्छे भविष्य को बनाने की ज़िम्मेदारी का अहसास देश को हो सके. सिद्धांत है, किताबें हैं, नैतिकता का ज्ञान है, धर्म है, लेकिन नहीं है तो सही आदमी. लोकतंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी राजनैतिक दलों पर है, और राजनैतिक दलों को जो लोग चला रहे हैं, वे सही आदमियों को दल के दायरे में लाना ही नहीं चाहते. दलों में जो सही लोग हैं, ज़मीन से जुड़े हैं, जिन्होंने सालों-साल अपना खून-पसीना एक कर अपना दल बनाया है, जब चुनाव आता है तो सबसे पहले उन्हें ही अनदेखा कर दिया जाता है. कहा जाता है कि ये लोग चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि चुनाव में खर्च करने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं और विरोधियों को हराने के लिए बाहुबल नहीं है.
परिणाम होता है कि दलों के उम्मीदवार पैसे वाले और बाहुबल वाले हो जाते हैं, कार्यकर्ता या सही आदमी फिर अगले चुनाव की प्रतीक्षा करने लगता है कि शायद तब उसकी क़िस्मत जाग जाए. यह प्रतीक्षा कार्यकर्ता की मौत तक चलती है. कार्यकर्ताओं की आशाओं की मौत धीरे-धीरे लोकतंत्र की मौत में बदलने की ओर चल पड़ी है.
लोकतंत्र की संभावित मौत की आशंका ने एक ओर उन्हें चिंतित किया है, जिनका लोकतंत्र में भगवान की तरह भरोसा है, तो दूसरी ओर मीडिया के एक वर्ग को भी चिंतित किया है. मीडिया के दोनों अंगों के बड़े नाम वाले  संस्थानों ने अभियान चलाया है कि जनता को जाग्रत करें और उसे सही लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित करे. कई टेलीविज़न चैनलों पर फिल्म स्टार अपील करते नज़र आ रहे हैं, तो कई पर लोगों को प्रेरित करती छोटी-छोटी विज्ञापन फिल्में चल रही हैं.
कुछ अख़बार भी यह अभियान चला रहे हैं और यह अभियान लोगों का ध्यान खींच रहा है. पाठक ऐसे अभियानों से अपने को जोड़ रहा है. ज़रूरत अभी तत्काल इस बात की है कि स्वंयसेवी संस्थाएं इस तरह के अभियान से जुड़ें. स्वयंसेवी संस्थाओं पर उस क्षेत्र के लोगों का भरोसा होता है, क्योंकि ये संस्थाएं लोगों के दुख-सुख में खड़ी होती हैं, उनकी बेहतरी के लिए काम करती हैं. स्वंयसेवी संस्थाएं लोकतंत्र की बेहतरी के लिए अच्छे उम्मीदवार चुनें, जो कि इस अभियान से अभी तक नहीं जुड़ी है. इसी तरह सर्वोदय समाज और आर्य समाज जैसे संगठन भी लोकतंत्र को बेहतर बनाने के अभियान से जुड़े नहीं दिखाई देते. कभी सर्वोदय समाज के लोग, वोट कैसे लोगों को दें  जैसे अभियान, मतदाता शिक्षण के नाम से चलाते थे. अब यह अभियान चलता नहीं दिखाई देता.
ऐसे समय मीडिया द्वारा इस अभियान को हाथ में लेना एक सुखद संकेत है. इस अभियान को जितना तेज़ किया जा सके, उतना करना चाहिए और लोगों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र किसी और की ज़िम्मेदारी नहीं, उनकी अपनी ज़िम्मेदारी है. लोगों को यह भी बताना चाहिए कि यदि अच्छे लोग नहीं चुने गए, तो उनका भविष्य कैसे अंधकारमय हो जाएगा. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि संसद को दलालों का अड्डा बनाने से रोकने की ज़िम्मेदारी आम आदमी की सबसे ज़्यादा है. अगर अभी नहीं चेते, तो फिर चेतने का कोई मतलब नहीं होगा.
यह पहला चुनाव है, जिसमें नौजवान बड़ी संख्या में वोट डालेंगे. भारतीय राजनीति का यह सबसे दुखद क्षण है कि नौजवानों के सामने राजनीतिक क्षेत्र के किसी व्यक्ति का कोई उदाहरण ही नहीं बचा है, जो उसे उन जैसा बनने के लिए प्रेरित करे. उनके सामने उदाहरण है, तो बाहुबलियों के, संसद में दलाली कर रहे राजनेताओं के तथा सिनेमा से आये ऐसे लोगों के, जो जीतने के बाद अपने क्षेत्र से उतना ही रिश्ता रखते हैं, जितना ज़रूरी होता है. धर्मेंद्र जैसे सांसद तो यह भी नहीं रखते.
नौजवान बहुत जल्दी जाति, धर्म और संप्रदाय के बहकावे में आ जाते हैं. मीडिया को सबसे ज़्यादा ध्यान नौजवानों के दिमाग़ को लोकतंत्र के प्रति समर्पित बनाने में लगाना चाहिए. उन्हें उन नौजवानों को बताना चाहिए जो गांव में रहते हैं. जो पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक व कमज़ोर आर्थिक स्थिति के हैं कि एक रात की शराब या कुछ सौ रुपए में उनका भटकना उनके सुनहरे भविष्य को हमेशा के लिए काला कर देगा. आजकल राजनैतिक दल और उनके उम्मीदवार खुलेआम पैसे बांटते देखे जा रहे हैं. इस अपराध के  खिलाफ लोग खड़े हों, इसके लिए भी मीडिया को कोशिश करनी चाहिए.
चुनाव का यह ऐसा समय है, जब मीडिया की इज्ज़त भी दांव पर लगी है. एक न्यूज़ चैनल की मालकिन स्वयं रिपोर्टर के रूप में राजनेताओं के इंटरव्यू ले रही हैं. वह नीतीश कुमार का इंटरव्यू ले रही थीं और नीतीश कुमार उन पर गरज रहे थे तथा कह रहे थे कि आप पत्रकार क्या हैं, आप दलाली करते हैं, लॉबिंग करते हैं, आप लोगों का चरित्र नहीं है आदि आदि. अब वह मोहतरमा ठहरीं मालकिन. कुछ बोल ही नहीं पा रही थीं. अगर कोई पत्रकार होता, तो आंख में आंख डाल कर कहता कि आप लोगों की बिरादरी से ज़्यादा दलाली पत्रकार नहीं करते, नीतीश कुमार जी. आप लोग हैं, जो पत्रकारों को भ्रष्ट करते हैं, उन्हें लोभ-लालच देते हैं, बिगाड़ते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे पैसे वाले आप राजनेताओं को बिगाड़ते हैं और अपना दलाल बना लेते हैं. नीतीश कुमार के साथी राजनेता, चाहे वे किसी भी दल के हों, बड़े दलाल हैं, जो छोटे दलाल तलाशते रहते हैं. उस बेचारी मालकिन ने अपनी मजबूरियों के तहत नीतीश कुमार की गालियों को सारे पत्रकारों के लिए सुना. इस महिला को कहना चाहिए था कि आप लोकतंत्र बिगाड़ते हैं, पर मीडिया लोकतंत्र को ठीक करने का अभियान बिना आपसे पैसा लिए चला रहा है. लेकिन यह घटना संकेत देती है कि अब राजनेता खुलकर लोकतंत्र के चौथे खंभे की आलोचना करने लगे हैं और उन्हें मीडिया की बहुत सी बातें पसंद नहीं आ रही है.
पर चलिए, राजनेताओं को छोड़ते हैं. अभी तो लोकतंत्र की चिंता करते हैं और आम आदमी से आशा करते हैं कि वह पार्टियों के दायरे से ऊपर उठ कर उन्हें चुनेगा, जिनमें समझदारी होगी, जिनमें ज्ञान होगा, जिनमें देश-प्रेम होगा और जो लोकतंत्र के प्रति समर्पित होंगे. हमें लोकतंत्र को कट्टा तंत्र या दलाल तंत्र या राइफल तंत्र में बदलने से रोकने की कोशिश करनी ही होगी.

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