इस आम चुनाव का पहला प्रारूप तो उभर कर सामने आ गया है. वह यह कि सचमुच का भीषण संघर्ष पारंपरिक दुश्मनों के बीच नहीं है, बल्कि कल के दोस्तों और आज के प्रतिद्वंद्वियों के बीच है. खासकर वहां, जहां उन्होंने सत्ता की साझेदारी की थी. उड़ीसा में भाजपा की धोखा खाने की अनुभूति प्रत्यक्ष है. अधिक निर्णयात्मक कहानी यूपीए में है, जहां बदलती हुई मानसिकता और प्रवृत्तियों ने एक विस्फोट की सी हालत पैदा कर दी है.
2004 में कांग्रेस के पास एकमात्र लक्ष्य था. वह लक्ष्य भाजपा को हराने का था. इस बार उसके लक्ष्य कुछ अलग हैं. वह दोगुना हो गया है. 2009 में कांग्रेस का समानांतर उद्देश्य अपने आधार को बढ़ाना है. अब यह विस्तार भाजपा की कीमत पर है, इसमें थोड़ा ही भ्रम है. इसके अलावा मायावती की बढ़ती पकड़ और मुलायम सिंह की लगाई सेंध से भी कांग्रेस को निबटना है.
यूपीए के अंदर के विरोधाभास इस तथ्य में निहित हैं कि गंगा के इलाके और महाराष्ट्र में कांग्रेस का आधार उसके सहयोगियों ने ही कमज़ोर कर दिया है. कांग्रेस ने अपने इरादे तभी साफ कर दिए, जब उसने तय किया कि वह यूपीए गठबंधन के एक साझीदार की तरह नहीं लड़ेगी, बल्कि अपने उद्देश्य के तहत आंशिक समझौते ही करेगी.
इसने अपने गठबंधन सहयोगियों की सूची में से प्रतिद्वंद्वियों की प्राथमिकता तय कर ली है. कांग्रेस के निशाने पर सबसे पहले वाम दल हैं, जिन्होंने अमेरिका की तरफ बढ़ती रणनीतिक पहलकदमी का विरोध किया था. कांग्रेस ने ममता बनर्जी के साथ एक अपमानजनक समझौता किया ताकि वाम के मुख्य गढ़ को दरका सके. व्यावहारिक मायनों में यह गठबंधन कांग्रेस को बहुत अधिक लाभ पहुंचानेवाला नहीं है. कांग्रेस अपनी पहले की छह सीटें तृणमूल के बिना भी बचा ले जातीं, लेकिन कांग्रेस का वोट तृणमूल को उसकी 2004 में जीती एक सीट से 10 या अधिक सीटें भी दिला सकती है.
हैरत की बात है कि कांग्रेस ने बिहार में इसी तरह के समझौते से इंकार कर भाजपा और एनडीए को जीवनदान दे दिया. लालू यादव और रामविलास पासवान ने कांग्रेस को उतनी ही सीटों का प्रस्ताव दिया, जितनी उसके पास हैं. कांग्रेस तीनों सीटें भी हार सकती हैं क्योंकि यह अकेले लड़ रही है. इसने बिहार में अपने उत्थान के लिए दोहरा ख़तरा मोल ले लिया है.
यही बात उत्तर प्रदेश में भी है. मुलायम तो लालू से भी अधिक उदार थे. कांग्रेस को नौ सीटें थीं और उसे 17 सीटों का प्रस्ताव दिया गया. मुलायम-कांग्रेस गठजोड़ ने निश्चित तौर पर मायावती पर दवाब डाला होता, भाजपा की संभावनाएं कम होतीं, और कांग्रेस यहां भी दो अंकों में पहुंच जाती. दोहरा ख़तरा फिर से. बसपा और भाजपा अब अपनी सीटें जरूर ही बढ़ा ले जाएंगी. झारखंड समझौते की विफलता से तो भाजपा को ही सफलता मिलेगी. क्या इन सबका कोई जवाब है.
कांग्रेस पवार के साथ इसलिए चिपकी रही क्योंकि यह अपने मुख्यमंत्री को आगामी विधानसभा चुनाव के पहले इस्तीफा नहीं दिलवाना चाहती थी. हालांकि शरद पवार भी योजना के व्यापक स्वरूप में त्याग ही दिए जाएंगे. वह दूसरे सबसे बड़े राज्य में कांग्रेस के विकास को रोके हुए हैं, ठीक उसी तरह जैसे मायावती और मुलायम ने सबसे बड़े राज्य में इसका दम घोंट दिया है. तमिलनाडु में करुणानिधि ने गठबंधन इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि कुल 39 सीटों में कांग्रेस को 14 ही सीटें मिली हैं.
कांग्रेस की गणना यह है कि जब शिकवा-शिकायत का दौर खत्म हो जाएगा और सीटों की संख्या पर बात होगी, तो कीमत दिल्ली की सत्ता खोना नहीं होगा. कांग्रेस का यकीन है कि वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी और तब उन्हीं सहयोगियों को मनाने या धमकाने में सफल होगी, जिसका अभी उसे नुकसान हो गया है. यह स्थिति भाजपा को किसी क़ीमत पर रोको के अभियान से आएगी. पवार, यादव और राम विलास को राजनीतिज्ञ नहीं कह सकते अगर वे खुद ही इस दवाब के खतरे नहीं समझ पाते. उन्होंने भी दवाब की राजनीति से ही जवाब दिया.
पवार ने चुनाव-पूर्व के दवाब को एक सवाल पूछकर कम कर दिया. वह सवाल यह था कि अगर कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए इतनी ही उत्सुक है,तो कांग्रेस तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर या अदंर से समर्थन क्यों नहीं देती और किसी भी गठबंधन में मुख्य स्थान क्यों चाहती है. 2004 में पवार और दूसरे औचक पकड़े गए थे. इस बार उन्होंने अपनी ही धुन पर नाच करना शुरू कर दिया है. पवार ने यह साफ कर दिया है कि वह खुद को भविष्य का एक बेहतर प्रधानमंत्री मानते हैं न कि डॉ.मनमोहन सिंह को या राहुल गांधी को.
प्रकाश करात के ऊपर कांग्रेस का कोई क़र्ज नहीं है, वह तो खुद को ठगा गया महसूस करते हैं. वह इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट सोच रखते हैं कि वाम मोर्चा कांग्रेसनीत किसी भी सरकार का 2009 में समर्थन नहीं करेगा. अगर यूपीए भारतीय राजनीति का आधुनिक गठबंधन है, तो मार्क्सवादी मानते हैं कि वे उत्तर-आधुनिक हो गए हैं. क्षेत्रीय हितों की लड़ाई ने तीसरे मोर्चे में एक चौथा मोर्चा खोल दिया है, लेकिन ये सभी पार्टियां चुनाव के बाद खुद को फिर से स्थापित करेंगी. जहां लड़ाइयां दूर होने वाली नहीं हैं, सपा और बसपा जैसी पार्टियां अलग कैंप में रहेंगी, जो इस पर निर्भर करेगा कि कौन पहले कहां पहुंचता है. इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि आगे रहने वाली हरेक पार्टी ने एनडीए के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लिए हैं.
भारतीय राजनेता दोराहे की स्वतंत्रता पसंद करते हैं, और कुछ तो किसी भी तिराहे या चौराहे पर खड़ा रहना पसंद करते हैं. हालांकि सारी बातचीत 16 मई के बाद शुरू होगी. पेशेवर राजनेता जनमत सर्वेक्षण के लिए भुगतान करते हैं और उसको खारिज कर देते हैं, जो उनकी पसंद का नहीं. यह कई बार अपने मन की बात नहीं होने पर नकारने का स्वभाव हो सकता है. हालांकि वे यह भी जानते हैं कि सर्वेक्षण ही अंतिम सत्य नहीं हैं. एक जनमत सर्वेश्रण वही है जो यह कहता है-केवल एक सर्वेक्षण. मसला यह है कि अंत में केवल तथ्य ही मायने रखते हैं. तब तक, घुमाव-फिराव और उछाल को नज़रअंदाज कीजिए, बाक़ी चीज़ों का आनंद लीजिए, लेकिन वोट देने जरूर उठिए.
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