बिहार में चुनावी पुआ का स्वाद तभी स्वादिष्ट होता है जब उसे जातीय चाशनी में डूबोेकर परोसा जाए. कहने को तो सभी दल इस तरह के पुए से परहेज करते हैं पर हर चुनाव की यही कहानी है कि पुआ हो तो जातीय चाशनी वाला वरना इसके स्वाद की गारंटी कोई नहीं ले सकता है. 2014 के चुनावी समर में भी सभी दलों ने टिकट बंटवारे पर जातीय गणित को फिट करने के लिए जमकर मंथन किया और जहां तक बन पड़ा अपने लिए सोशल इंजीनियरिंग का चुनाव जिताऊ मॉडल पेश करने की कोशिश की. दलों की इस कवायद का साइड इफेक्ट भी हुआ और कई दिग्गजों के पत्ते कट गए और कुछ ऐसे सिक्के भी चल निकले जो खुद भी नाउम्मीद हो गए थे. चुनाव जिताऊ सोशल इंजीनियरिंग के लिए दूसरे दलों से दिल खोलकर नेेताओं को लिया गया और रातों-रात उन्हें टिकट देकर यह बता दिया गया कि पार्टी की सेवा और जिंदाबाद व मुर्दाबाद के नारे एक तरफ हैं, लेकिन चुनावी समर में वह शख्स सबसे अहम है जो भले ही दूसरे दल से आया हो पर जातीय समीकरण में फिट बैठता हो और चुनाव जीतने की गारंटी देता हो. अब एक नजर पहले सभी दलों के टिकट बंटवारे पर डाल लेते हैं. एनडीए यानि भाजपा, लोजपा और रालोसपा गठबंधन की बात करें तो इस खेमे से आठ राजपूत और पांच भूमिहार प्रत्याशियों को मैदान में उतारा गया है. एनडीए से यादव जाति के चार, दो कुशवाहा, दो मुसलमान, तीन वैश्य, चार अतिपिछड़ा, दो महादलित, एक कायस्थ और चार दलित प्रत्याशियों को चुनावी अखाड़े में उतारा गया है. मतलब एनडीए ने यह साफ किया कि अगड़ी जातियों के साथ ही साथ वह वैश्यों, अतिपिछड़ों, कुशवाहा, दलित व महादलितों को भी सम्मान देने की नीति पर वह आगे बढ़ गई है.
पिछले आठ साल के शासन में बीजेपी और जदयू ने साथ रहते हुए एक दूसरे के वोट बैंक में सेंध लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. जदयू अपनी राजनीति के तहत सवर्णों को तरजीह दे रही थी, वहीं बीजेपी आठ सालों तक दलित, पिछड़े और अति पिछड़े की राजनीति करती रही. बीजेपी का दलित सहभोज, कर्पूरी को बड़े फलक पर याद करना, उनके लिए भारत रत्न की मांग करना इसी रणनीति का हिस्सा था. इतना ही नहीं बिहार भाजपा ने सूबे में अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक को अतिपिछड़ा बताकर ही प्रचारित किया. पिछले दिनों खुद नरेंद्र मोदी मुजफ्फरपुर की रैली में पिछड़े अति पिछड़े की वकालत कर रहे थे. प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि जनता जातिवादी है कि पार्टियां जातिवादी हैं ये बताइए. वे कहते हैं कि 1989 में भाजपा ने देश भर में 50 प्रतिशत ब्राह्मणों को ही उम्मीदवार बनाया था. और ऐसी ही नीतियों की वजह से लालू और मुलायम जैसे नेता जन्म लेते हैं. मणि कहते हैं कि बीजेपी ओबीसी कार्ड खेल रही है. यह पूछे जाने पर कि बीजेपी तो पिछले आठ सालों से अतिपिछड़ा कार्ड ही खेल रही है लेकिन प्रतिनिधित्व देने की बारी आई तो बात नहीं बनी. मणि कहते हैं कि कांग्रेस ने अपने शासन काल में सिर्फ सवर्णों को ही तरजीह दी. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो. 80 से 90 तक के दौर में पांच मुख्यमंत्री कांग्रेस ने बनाए और पांचों सवर्ण. ऐसे में ही लालू का उदय हुआ. सामाजिक न्याय के नाम पर कांग्रेस चुप रही तो बीजेपी अपर कास्ट का आरामगाह बनता गया. लेकिन रालोसपा के रामबिहारी सिंह का मानना है कि टिकट में प्रमुखता देना और राजनीति करना दोनों दो मामला है. वे मानते हैं कि बीजेपी में बदलाव आया है और ये भी कहते हैं कि फिलहाल तो प्रदेश बीजेपी का प्रतिनिधित्व ही पिछड़े के हाथ में हैं. देखा जाए तो एनडीए ने एक जातीय गणित बैठाने का प्रयास किया जिसमें इनके परंपरागत अगड़े और वैश्य वोट तो उनसे खुश रहे ही साथ में दलित, महादलित और कुशवाहा वोटों का भी समागम हो जाए ताकि सोशल इंजीनयरिंग का सर्किट पूरा हो जाए और चुनावी नतीजे उसके पक्ष में आए. नीतीश कुुमार सोशल इंजीनियरिंग के एक्सपर्ट माने जाते हैं और देखा जाए तो उन्होंने यथा संभव अपने इस हुनर का इस बार प्रत्याशियों के चयन में भरपूर उपयोग किया.
जदयू की लिस्ट देखें तो उसने दूसरे दलों से आए बारह उम्मीदवारों को टिकट दिया है. जदयू ने सात कुशवाहा, दो ब्राह्मण, चार भूमिहार, तीन राजपूत, सात यादव, पांच मुसलमान, तीन अतिपिछड़ा और दो कुर्मियों को टिकट दिया है. ऐसा कहा जाता रहा है कि 1995 के चुनाव से ही गैर यादव दलित, पिछड़े को अपने साथ करने की कोशिश में नीतीश लग गए. यादवों के वर्चस्व को तोड़ने में, उससे लड़ने में कोयरी-कुर्मी नीतीश के साथ आगे बढ़कर आए और धीरे-धीरे दलित और अतिपिछ़डे भी नीतीश के साथ होते गए. इसका फायदा नीतीश को 2005 और 2010 के विधानसभा में जबरदस्त रूप से मिला. इस बार के टिकट बंटवारे की लिस्ट देखेंगे तो साफ दिखता है कि नीतीश ने ऐसी कोशिश की है कि कोयरी-कुर्मी का समीकरण बिखरे नहीं. कुर्मी अपना नेता उन्हें मानता ही है. यही वजह है कि नीतीश ने सात कोयरी को इसबार टिकट दिया है. साथ ही यादवों को भी तरजीह दी है. लालू के माय समीकरण में सेंध लगाने के लिए नीतीश ने पांच मुसलमानों को भी टिकट दिया है. राजीनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं कि मुस्लिम वोट बैंक अकेले लालू का नहीं रह गया है. मुसलमानों में यह आम धारणा बनी है कि राजद जदयू में से जिसका भी उम्मीदवार मजबूत होगा वे उसी को वोट करेंगे. ऐसा देखा गया है कि नीतीश मुसलमानों की राजनीति में पसमांदा और अशरफ की वकालत करते रहे हैं. लेकिन सुमन कहते हैं कि इसबार मुसलमान इस आधार पर वोट नहीं करेंगे. वहीं सुमन ये भी कहते हैं कि एनडीए के प्रमुख घटकों में से सबसे पहले नीतीश ने ही नरेंद्र मोदी की मुखालफत की इस लिहाज से उन्होंने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और मजबूत किया है. साथ ही यह भी मानते हैं कि इस बार मुसलमानों का वोट बंटेगा और इससे भाजपा को फायदा होगा. वहीं बात अगर राजद की करें तो लालू ने पुराने पर ही दांव लगाया है. लालू को लगता है कि यह धारा अब भी काम आ सकती है. राजद के 27 प्रत्याशी में से 15 प्रत्याशी माय समीकरण के ही हैं. इसमें से नौ प्रत्याशी यादव जाति से हैं तो छह प्रत्याशी मुसलमान हैं. जहां राजद ने तीन राजपूत को टिकट दिया है वहीं भूमिहार और कुर्मी में से किसी को टिकट नहीं दिया है. लंबे समय से यह देखा जा रहा था कि लालू सवर्णों को मनाने की कोशिश में लगे हुए थे. वे घूम-घूमकर यह कह रहे थे कि उन्होंने कभी भी भूरा बाल साफ करों का नारा नहीं दिया था. साथ ही सवर्णों से माफी भी मांग रहे थे. लालू अंतिम समय तक पश्चाताप की राजनीति तो करते रहे लेकिन जब टिकट देने की बारी आई तो उन्होंने सिर्फ राजपूत को छोड़कर किसी भी भूमिहार और ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया. लालू के एक पुराने साथी कहते हैं कि 2010 के चुनाव के बाद लालू ने कहा था कि हमसे गलती हो गई कि हमने अपर कास्ट के प्रति नरमी बरती थी कि वे भूलवश हमें वोट करेंगे. लालू की यह सोच इस बार के टिकट बंटवारे में दिखी भी. प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि लालू ने पिछड़ावाद से अपनी राजनीति शुरू की, फिर यादववाद पर आए और अब परिवारवाद की राजनीति कर रहे हैं. वह कहते हैं कि लालू विचारों की दरिद्रता के शिकार हो गए हैं. लालू और नीतीश दोनों दूसरे नंबर की लड़ाई लड़ रहे हैं. दोनों में होड़ लगी है कि कौन एंटी बीजेपी पॉलिटिक्स का मुखिया बनता है. किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करें तो यह कह सकते हैं कि सभी बड़े दलों ने खुलकर अपने संभावित वोट बैंक को जातीय चश्मे से देखा और दिल खोलकर इसी नजरिये से अपने टिकट बांटे. इस कवायद में दल के कई समर्पित और दमदार नेता हाशिये पर धकेल दिए गए पर पार्टी सुप्रीमो ने उफ्फ तक नहीं कि क्योंकि सवाल बिहार की चालीस सीटें और जीत की गारंटी का जो है.
जातीय चाशनी में सराबोर चुनावी पुआ
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