प्रमुख अरब देशों के साथ भारत के संबंध जितने घनिष्ट आजकल हो रहे हैं, उतने वे पहले कभी नहीं हुए। यह ठीक है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन के जमाने में नेहरु, नासिर, नक्रूमा के नारे लगाए जाते थे और भारत व मिस्र के संबंध काफी दोस्ताना थे लेकिन आजकल सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात- जैसे देशों के साथ भारत के आर्थिक और सामरिक संबंध इतने बढ़ रहे हैं कि जिसकी वजह से पाकिस्तान-जैसे देशों की चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। ईरान को भी बुरा लग सकता है, क्योंकि शिया ईरान और सुन्नी देशों में तलवारे खिंची हुई हैं। लेकिन संतोष का विषय है कि ईरान से भी भारत के संबंध मधुर हैं और भारत को अमेरिका ने ईरान पर लगे प्रतिबंधों से छूट दे रखी है। इन इस्लामी देशों से नरेंद्र मोदी सरकार की घनिष्टता भारत के कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए पहेली बनी हुई है। सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात, दोनों ने मोदी को अपने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए हैं और कश्मीर व आतंकवाद के सवालों पर पाकिस्तान को अंगूठा दिखा दिया है। पिछले छह वर्षों में भाजपा सरकार ने इन दोनों देशों से ही नहीं, बहरीन, कुवैत, कतार, ओमान जैसे अन्य इस्लामी देशों के साथ भी अपने संबंध को नई ऊंचाइयां प्रदान की है। इस समय इन देशों में हमारे लगभग 1 करोड़ भारतीय नागरिक कार्यरत हैं और वे लगभग 50 बिलियन डाॅलर बचाकर हर साल भारत भेजते हैं। भारत का व्यापारिक लेन-देन अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज्यादा यूएई और सउदी अरब के साथ ही है। आजकल हमारे सेनापति मनोज नर्वणे इन देशों की चार-दिवसीय यात्रा पर गए हुए हैं। खाड़ी के इन प्रमुख देशों में हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री भी जाते रहे हैं। ये अरब देश औपचारिक रुप से हमारे पड़ौसी देश नहीं हैं। इनकी भौगोलिक सीमाएं हमारी सीमाओं को हालांकि स्पर्श नहीं करती हैं लेकिन इन देशों के साथ सदियों से भारत का संबंध इतना घनिष्ट रहा है कि इन्हें हम अपना पड़ौसी देश मानकर इनके साथ वैसा ही व्यवहार करें तो दोनों पक्षों का लाभ ही लाभ है। इनमें से कुछ देशों में कई बार जाने और इनके जन-साधारण और नेताओं से निकट संपर्क के अवसर मुझे मिले हैं। मेरा सोच यह है कि इन देशों को भी मिलाकर यदि जन-दक्षेस या ‘पीपल्स सार्क’ जैसा कोई गैर-सरकारी संगठन खड़ा किया जा सके तो सिर्फ एक करोड़ नहीं, दस करोड़ भारतीयों को नए रोजगार मिल सकते हैं। सारे पड़ौसी देशों की गरीबी भी दूर हो सकती है। www.drvaidik.in

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