वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग अपने ब्लॉग में राहुल गांधी और उनकी यात्रा के संदर्भ में लिखते हुए कहते हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस के नरेंद्र मोदी हो गये हैं । जाहिर है यह उक्ति नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व से तुलना के लिए तो कम से कम नहीं है। जिस प्रकार आज भाजपा मतलब नरेंद्र मोदी हो गया है उसी अर्थ में श्रवण गर्ग यात्रा की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए तमाम शंकाओं और चिंताओं के बीच राहुल गांधी को कांग्रेस का नरेंद्र मोदी यानी कांग्रेस मतलब राहुल गांधी के अर्थ में देख रहे हैं। फिलहाल कहा नहीं जा सकता कि भविष्य में यह उक्ति कितनी उचित साबित होगी । लेकिन इसे लिख कर श्रवण गर्ग जी ने यात्रा में राहुल गांधी की उंचाई नाप दी है। राहुल गांधी को लेकर श्रवण जी की तमाम चिंताओं और शंकाओं से मैं पूरी तरह से खुद को सहमत पाता हूं। हालांकि राहुल गांधी के व्यक्तित्व और उसमें राजनीतिक चातुर्य के सरासर अभाव के संदर्भ में पूर्व में इस कालम में काफी लिखा गया है । कांग्रेस और राहुल गांधी के अंधभक्त या समर्थक चिढ़ते भी रहे हैं लेकिन श्रवण गर्ग साहब की सोच का मैं समझता हूं मुझे साथ मिला है । श्रवण जी ने कहा था कि मैं यह देखना चाहता हूं कि इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी क्या बड़ी गलती करते हैं । ऐसा अंततः हुआ ही । हालांकि यात्रा अब आगे बढ़ गयी है लेकिन सावरकर को लेकर व्यापक चर्चा में रही उसेक बात को दोहराना जरूरी लगता है। उसी के परिप्रेक्ष्य में हम आगे के समय को देख सकते हैं।
बहुत से लोगों को लगता है कि सावरकर का मुद्दा छेड़ कर राहुल गांधी ने कुछ भी गलत नहीं किया । ऐसे कांग्रेस के लोग, उनके प्रवक्ता और राहुल गांधी की अंधभक्ति में लीन लोग तो हैं ही, बहुत से पत्रकार भी हैं । समझ नहीं आता क्यों। जबकि यह नजरिये की बात नहीं है । यह तो हमें राहुल गांधी के ‘पप्पू’ के व्यापक विकास से छूटी हुई चिंदियों पर चिंता समान लगती है जो उनके राजनीतिक व्यक्तित्व में अंतर्निहित है । राहुल गांधी की सादगी में ओतप्रोत उनका व्यक्तित्व जितना निखरा है और यात्रा के दौरान और भी जितना निखर कर आ रहा है उतना ही उनमें राजनीति का नटखट और अबूझ बच्चा भी उसी अंदाज में विराजमान है। अध्यादेश को फाड़ देने की नासमझी लोग भूले नहीं हैं । इसी तरह शानदार चल रही यात्रा के दौरान महाराष्ट्र में सावरकर का मुद्दा उछाल कर उनकी नासमझी का रूप फिर नजर आया है । कुछ लोग मान रहे हैं कि यह राहुल गांधी की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है ।वे यानी राहुल गांधी इसे अपनी दीर्घकाल की राजनीति के लिए उपयुक्त मान रहे हैं । ऐसे तर्क हमें तो मूर्खतापूर्ण ज्यादा लगते हैं । दीर्घकालीन राजनीति के लिए भरपूर समय बाकी है । यात्रा के दौरान मोरबी हादसे पर राहुल गांधी ने कहा था मैं इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहता । यात्रा राजनीतिक नहीं है । सबको बहुत अच्छा लगा था । फिर अब अचानक ऐसा क्या हो गया। सावरकर पर कांग्रेस और बीजेपी शिवसेना विरोधियों के विचार हर किसी को मालूम हैं। गठबंधन के समय कांग्रेस और शिवसेना में समझौता हुआ था कि ऐसे मुद्दों को उठाने से बचा जाएगा । महाराष्ट्र के कांग्रेसियों ने भी सलाह दी थी कि सावरकर का मुद्दा उठाने से बचा जाए लेकिन राहुल गांधी नहीं माने । …. ज्यादा नुकसान नहीं हुआ । यात्रा फिर से चल पड़ी है और उसी जोशोखरोश से । कह सकते हैं कि यात्रा के दौरान कड़ुआ पानी पी लिया गया था, अब सब ठीक है । दुख सिर्फ इतना हुआ कि राहुल गांधी की , हमारी नजर में , इस मूर्खता का समर्थन करने वालों का नजरिया भी क्या है । बड़े बड़े पत्रकार अचानक से सावरकर पर चर्चा करने लग गए । जाहिर है राहुल गांधी ने इसलिए तो सावरकर पर टिप्पणी नहीं की थी कि मीडिया में सावरकर पर चर्चा होने लगे । सच पूछिए तो आज राहुल गांधी स्वयं नहीं बता सकते कि उन्होंने यात्रा के दौरान ऐसा क्यों किया । पर चर्चाएं हुईं और जम कर हुईं। विरोध में सिर्फ वे ही बोले जो समझते थे कि सफल चल रही यात्रा के बीच ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए । श्रवण जी की चिंताएं यही हैं और हमारी भी । सावरकर हमेशा मुद्दा रहे हैं और रहेंगे । लेकिन राजनीति चतुराई का नाम है । इसलिए राहुल गांधी को कांग्रेस का नरेंद्र मोदी मानना शायद ‘संपूर्णता में’ उचित नहीं लगता । एक बात और भी है कि यात्रा के बाद स्थितियां कैसी बनती हैं, यह देखना अभी बाकी है । क्या यात्रा अपनी मंजिल तक इसी शानोशौकत और सफलता के साथ पहुंचती है या इसमें व्यवधान डाल कर इसे रोका जाता है और क्या राहुल गांधी पूरी यात्रा में अंत तक इसी तरह बने रहते हैं । अभी कई प्रश्न हैं । पर मोदी के भारत को एक दमदार विकल्प चाहिए इसीलिए उप्र चुनाव में अखिलेश के पीछे की भीड़ दिखी थी और आज राहुल के पीछे हिंदुस्तान दिख रहा है । मुख्य मीडिया इस यात्रा से जी चुरा रहा है । कई लोग तो सावरकर मुद्दे को इस अर्थ में भी ले रहे हैं कि इससे मुख्य मीडिया तो यात्रा पर बात करेगा ही । फिलहाल हम आश्वस्त हो सकते हैं कि आगे की यात्रा में राहुल गांधी ऐसे किसी प्रकरण को नहीं लाएंगे जिससे यात्रा सवालों और शंकाओं के घेरे में आये ।
कल ऐसा खयाल आ रहा था कि ‘लाउड इंडिया टीवी’ के अभय दुबे शो में चर्चा इसी राहुल – सावरकर प्रकरण पर हो और प्रोफेसर रजनी कोठारी पर होने वाली बातचीत को अगले हफ्ते के लिए टाल दिया जाए । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और प्रो. कोठारी पर बात हुई और गजब हुई । प्रो. कोठारी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अभय दुबे ने खूब अच्छे से रोशनी डाली और उनके एक ऐसे लेख का जिक्र किया जो 1984 में लिखा गया था लेकिन जिसमें भविष्य की दृष्टि थी । सब कुछ वही और वैसा ही जैसा आज का राजनीतिक और सामाजिक वातावरण है उस लेख में दृष्टव्य था । एक सामाजिक चिंतक की दृष्टि कैसी होनी चाहिए वह CSDS जैसी संस्था को देख कर समझा जा सकता है जिसका निर्माण प्रो. कोठारी ने साठ के दशक में (संभवतः) किया था । CSDS आज भारत की अग्रणी शोध संस्थाओं में से एक है । आपका सम्मान इसीलिए हो सकता है कि वह आपने CSDS में कार्य किया है । कुछ व्यक्ति और संस्थाएं अपने समय से आगे की हुआ करती हैं। मित्र लोग इस बातचीत को जरूर देखें और CSDS को समझें।
कल ही संतोष भारतीय ने अखिलेंद्र प्रताप सिंह से भी बातचीत की आर्थिक रूप से लाए गए या सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले पर । अच्छी बातचीत रही ।
रवीश कुमार ने संकेत दिए हैं एनडीटीवी से अलविदाई के । वे अमरीका के न्यूयॉर्क में अपने पर बनाई गयी फिल्म के प्रीमियर शो पर बोल रहे थे । साफ है या तो अडानी या तो रवीश ।
इस बार ‘सिनेमा संवाद’ में अमिताभ श्रीवास्तव ने अंधविश्वास पर अच्छा टापिक लिया । ऐसी चर्चाओं से कुछ लोगों की असलियत भी सामने आ जाती है । कमलेश पांडे कितने ही बड़े फिल्म लेखक हों और चाहे जितनी उनकी फिल्में हिट हुई हों पर यह तो पता चल ही गया कि वे अच्छे खासे अंधविश्वासी व्यक्ति हैं । बाकी के तीनों पैनलिस्टों ने पांडे की अच्छी मजम्मत की । ‘सिनेमा संवाद’ फिल्मों पर अच्छा दमदार कार्यक्रम है । इसी तरह रात्रि के कार्यक्रम ‘ताना बाना’ में मुकेश कुमार की मेहनत दिखाई देती है लेकिन कल ‘साहित्य मेलों’ पर हुई चर्चा में कात्यायनी की बात बिल्कुल सुनाई नहीं दी । बहुत अधिक व्यवधान था, शोर था । मुकेश भाई इस ओर गौर करें । उनकी मुख्य चर्चा में अकसर ऐसा होता है ।
पिछले हफ्ते इंदिरा गांधी की जयंती गुजरी है। अब इंदिरा जी को कोई बहुत ज्यादा याद नहीं करता । मौजूदा सत्ताधीशों को समझना चाहिए वक्त झड़ते पत्तों की तरह हर किसी को झाड़ देता है । फिर भी इंदिरा गांधी के समय जो समाज था वैसा ही समाज आज भी है । देश डिजिटल जरूर हुआ है लेकिन जितना डिजिटल हुआ है भीतर से उतना ही जर्जर भी हुआ है । इंदिरा ने गरीब को स्वप्न दिखा कर लूटा नहीं, पर आज की सत्ता के सर्वोच्च नेता श्रीमान मोदी जी ने तो गरीबों को थोक में स्वप्न दिखाए और उनके वोट हर बार लूट कर ले जाते रहे । यह सिलसिला अभी चालू है और तब तक चलता रहेगा जब तक गरीब अपने हर कष्ट के लिए सरकार की बजाय भगवान को जिम्मेदार मानता रहेगा । मुझे लगता है जिस तरह एक शानदार इमारत को जर्जर होने में वक्त लगता है उसी तरह मोदी के तिलिस्म को दरकने में भी समय लगेगा । अंततः वह यह समय आएगा ही पर कब आएगा यह है तो समय ही बताएगा न !!

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