इस सवाल में हमारे कई दिग्गज लोग भी उलझे हुए हैं। बल्कि कहूं कि वे स्वीकार करते हैं कि मोदी एक अच्छे ‘ओरेटर’ हैं। दो का नाम मैं यहां ले सकता हूं। रवीश कुमार और अभय कुमार दुबे। और भी कई हैं और यह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि आप किस पैमाने से मोदी को अच्छा ‘ओरेटर’ मानें। ‘ओरेटर’ या वक्ता या अच्छा वक्ता का पैमाना मोदी के संदर्भ में जो है उस पर हम तर्कों से सवाल खड़ा कर सकते हैं। मुझे याद आते हैं डा. नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी या राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग जिन्हें हम निर्विवाद रूप से अच्छे वक्ता कह सकते हैं। केवल अटल जी की ही बात करें तो वे ऐसे वक्ता थे जिनकी भाषा, शैली और लहजा समाज के हर तबके को अपील करती थी। कथ्य सटीक होता था। संसद में या सभा में बोलते थे तो हर ओर सन्नाटा छा जाता था। डा. लोहिया और चंद्रशेखर के संदर्भ में भी यह मशहूर था। उस समय संसद में आज जैसे (एक ही दल के) उछलकूद करने वाले सड़कछाप लोग नहीं थे। अंतर यह था कि तब हास्य विनोद के साथ मुद्दे और आंकड़े भी होते थे। आज समय बदल चुका है या कहें जानबूझ कर बदल दिया गया है।
मोदी जी पर बात करने से पहले यह भी जान लें कि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके अतीत की परछाईयों में गुंथा होता है। मोदी का बचपन, यौवन और अधेड़ काल महत्वाकांक्षाओं की ‘लाट’ पर खड़ा है। व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारतीय समाज को बहुत बारीकी से परखा और जाना कि लोकतंत्र की कौन सी वो कमजोर नस है जिसकी डोर बना कर ऊपर चढ़ा जा सकता है। उन्होंने बहुत बारीकी से यह पढ़ा कि हर चुनाव मध्यवर्ग को सामने रख कर लड़ा गया। लेकिन समाज का सबसे निचला तबका भी है जिसे कभी किसी ने ‘एड्रेस’ नहीं किया। यही वह तबका है जो केवल भावनाओं पर वोट देता है। जिसे आसानी से हास्य विनोद के साथ अपने पाले में लाया जा सकता है। वैसे भी मोदी का पढ़ लिखे और बौद्धिक समझे जाने वाले वर्ग से कभी कोई सरोकार नहीं रहा। बल्कि उन्होंने स्वयं को कई बार इस वर्ग से खुद को अपमानित महसूस भी किया है। इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। तो मोदी ने 2013 से कुछ निर्णायक मानक तय किये। जैसे कांग्रेस और इसके नेताओं को इस देश के लिए इतना घातक सिद्ध कर देना कि लोगों के मन में कांग्रेस की वह छवि और वह चरित्र मटियामेट हो जाए जो आजादी के आंदोलन से उपजे दल के रूप में अंकित है। यह इसलिए ज्यादा जरूरी था क्योंकि मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती केवल कांग्रेस से ही मिल सकती थी। अपने इस लक्ष्य के लिए मोदी ने तय किया रहा होगा कि जिस सीमा तक जाया जा सके जाना होगा। उसके लिए झूठ, फरेब, ईर्ष्या, धूर्तपन, लच्छेदार भाषा शैली के जरिए लोगों के दिल दिमाग पर इस प्रकार की पैठ करना कि उनकी छवि देश के अब तक के सबसे बड़े उद्धारक की बन कर खड़ी हो जाए। इतनी गहरी कि जिसे उखाड़ने में अच्छों अच्छों का पसीना निकल जाए। मोदी ने सारी रणनीति इसी चक्रव्यूह के इर्द गिर्द बुनी।
बेशक मोदी ने अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व झोंक दिया। इस अर्थ में उनकी मेहनत काबिलेगौर है। उन्होंने चुनाव में सफलता के बाद अपनी छवि को सुधारने और साफ सुथरी बनाने के प्रयत्न में ‘मन की बात’ या बच्चों और परीक्षार्थियों से संवाद आदि के कार्यक्रम भी रखे जो आज भी जारी हैं।
लेकिन प्रश्न अपनी जगह है कि क्या मोदी अच्छे वक्ता हैं। तो ऊपर का विश्लेषण बताता है कि वे वक्ता नहीं, चतुर खिलाड़ी हैं। अच्छे वक्ता के पास शब्दों का चुनींदा गुच्छा, वाक्य विन्यास, भाषा शैली, तेवर, लहजा, कथन का आरोह अवरोह और माधुर्य होना जरूरी होता है जो मोदी के पास नहीं है। शायद बहुत से पाठक नहीं भूले होंगे कि बिहार में उन्होंने किस प्रकार की ‘बोली’ लगाई थी। या नेहरू, मनमोहन सिंह, सोनिया, राहुल और विपक्षी नेताओं के संदर्भों में किन किन शब्दों और शैली का प्रयोग किया। सच तो यह है कि यदि आप केवल समाज के निचले और निम्न मध्यवर्ग को सामने रख कर अपना संबोधन करेंगे तो आपको उसी स्तर पर मजबूरन उतरना पड़ेगा जो मोदी जी आसानी से कर ले जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मोदी जी अच्छा ‘कनैक्ट’ करते हैं। वे निश्चित ‘कनैक्ट’ करते हैं लेकिन एक खास तबके को। ठीक उसी समय समाज का श्रेष्ठी वर्ग उस भाषा शैली से स्वयं को लज्जित सा समझता है। तो जो वक्ता या देश का नेता समाज के हर वर्ग को अपने भाषण से प्रभावित न कर पाये उसे हम कैसे अच्छा वक्ता या ‘ओरेटर’ कह सकते हैं। यह कला अटल बिहारी वाजपेयी में कूट कूट कर भरी हुई थी। बंगाल चुनाव में मोदी जी ने जिस प्रकार की भाषा और शैली का प्रदर्शन किया उसे खुलेआम ‘सड़कछाप’ कहा जा रहा है। इस बात में उनकी वक्तृत्व की चतुराई देखी जा रही है जब वे ममता के मुस्लिम वोटों के संदर्भ में कहते हैं कि यदि हमने कहा होता कि सारे हिंदू हमें वोट दो या हमारे लिए एक हो जाओ तो चुनाव आयोग हमें तुरंत नोटिस पकड़ा देता। इस पर प्रति प्रश्न यह किया जाना था कि खालिस हिंदुओं का आप विशेष से ताल्लुक क्या है। कुछ है तभी तो इसी वक्तव्य पर चर्चाएं और बहसें हो रही हैं। आलोक जोशी ने भी अपने प्लेटफार्म पर चर्चा की। इन संदर्भों में मोदी और अमित शाह की शैली लगभग समान है। जिनमें अक्सर झूठ का बोलबाला होता है। बेवकूफ बनाने के तर्क होते हैं। लोग आमतौर पर ऐसी भाषा को ‘मदारियों’ की भाषा बोलते हैं। वे ‘कनैक्ट’ करते हैं निश्चित लेकिन निचले तबके को जोकि एक बड़ा संख्या का वोटर है। और मोदी का सारा खेल फिलहाल वोट के लिए होता है। बावजूद इसके हैरानी है कि अच्छे अच्छे लोग मोदी को अच्छा वक्ता बोलते हैं, किस नजरिये से पता नहीं।
हर रविवार को सुबह ग्यारह बजे अभय कुमार दुबे को ‘लाऊड इंडिया टीवी’ पर लाइव सुनना बड़ा लाभप्रद रहता है। पिछले हफ्ते अभय जी ने संतोष भारतीय की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए यहां तक कह दिया जो सच भी है कि जब मैं लिखने बैठता हूं तो उस समय कई ऐसी बातें भी दिमाग में घर किये होती हैं जो आपके मिलने से पहले नहीं थीं। ऐसा होता है। खासतौर पर जब आप धाराप्रवाह बोलते हैं। यह मौका संतोष जी हर किसी को देते हैं जो उनके यहां आता है।
इस बार ‘आज की बात’ में उर्मिलेश जी ने राहुल सांकृत्यायन को याद किया। बहुत अच्छा लगा। धर्म और किसान के संदर्भ में राहुल जी की सोच और विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं, उन्होंने बताया।उर्मिलेश जी बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा लाए। भाषा सिंह इधर उधर खूब घूमीं। कभी तमिलनाडु, कभी केरल, कभी असम तो कभी बंगाल। उनकी मेहनत दिखाई पड़ती थी। आरफा खानम शेरवानी का केरल के कालीकट से विश्लेषण बहुत पसंद आया। बल्कि मैं समझता हूं कि एक एक दो दो आदमी के सामने माइक लगा देने से अच्छा है ऐसा विश्लेषण हो जो कुल मिलाकर लब्बोलुआब बताता हो। दिनेश त्रिवेदी से नीलू व्यास ने इंटरव्यू लिया। अच्छा था। पर और तीखा होना चाहिए था। कई जरूरी सवाल करने से रह गये। त्रिवेदी सुलझे हुए व्यक्ति हैं इसलिए आसानी से आसान से सवालों को झेल गये। नीलू को अपने संबंधों को पीछे रख कर सवालों में धार लानी चाहिए। कल का पुण्य प्रसून वाजपेयी का विश्लेषण बढ़िया रहा। ‘सत्य हिंदी’ की बहस और चर्चाओं का आनंद लेते रहिए। लेकिन मोदी को अच्छा वक्ता मानने से कृपया गुरेज करें अन्यथा राजनीति का स्तर इस रसातल पर पहुंच जाएगा कि फिर प्रलय की ही दरकार होगी।

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