उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण के चाहे जितने आरोप लगें, लेकिन असलियत यह है कि अखिलेश सरकार उर्दू, अरबी एवं फारसी भाषाओं की जड़ें मजबूत नहीं होने दे रही है. वह पूर्ववर्ती मुलायम सिंह सरकार की जड़ें काट रही है. उर्दू को रोज़गारपरक और मुख्य धारा की भाषा बनाने की घोषणाएं तो खूब की जाती रही हैं, वोट भी बटोरे जाते रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त में उक्त सारे फैसले निहायत खोखले साबित हुए हैं. अल्पसंख्यक विभाग की इस्लामिक शोध से जुड़ी संस्था की ज़मीन और इमारत आजम खान की निजी संस्था को कौड़ियों के मोल लीज पर दिए जाने की ख़बरें हाल ही सुर्खियों में रही हैं. यह विवाद अभी चल ही रहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार के उर्दू विरोधी रवैये का आधिकारिक खुलासा हुआ. अखिलेश सरकार के उर्दू के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये का शिकार ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय हो रहा है. राज्य में दूसरी राजभाषा के रूप में स्थापित उर्दू को अधिक से अधिक विकसित करने के उद्देश्य से लखनऊ में उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, लेकिन यहां उन्हीं भाषाओं की प्राथमिकता समाप्त कर दी गई है. यह विश्वविद्यालय आज अराजकता और विरोधाभास का अड्डा बन गया है. इसका अब उर्दू, अरबी एवं फारसी भाषाओं के विकास से कोई लेना-देना नहीं रहा, इसका अस्तित्व गड्ड-मड्ड कर दिया गया है.
उर्दू, अरबी एवं फारसी के विकास और अकादमिक शोध के लिए जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, उसका दिलचस्प पहलू यह है कि विश्वविद्यालय के सारे शीर्ष पदों पर विराजमान हस्तियां उर्दू, अरबी या फारसी भाषा की शैक्षिक योग्यता नहीं रखतीं. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर खान मसूद अहमद जामिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं. रजिस्ट्रार नाजिम हुसैन अल जाफरी के क्या कहने! उर्दू तो छोड़िए, इनका अकादमिक करियर से ही कोई लेना-देना नहीं रहा. यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बाबू (लिपिक) थे और प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव एवं मौजूदा मुख्य सूचना आयुक्त जावेद उस्मानी की एएमयू में पदस्थापित रहीं बहन के मातहत काम कर चुके हैं. जानकार बताते हैं कि उसी के पुरस्कार स्वरूप एएमयू के इस बाबू को यहां रजिस्ट्रार का पद दे दिया गया. सरकार ने इस नियुक्ति में वह नियम खुद ताख पर रख दिया, जिसमें रजिस्ट्रार को कम से कम पीसीएस संवर्ग का अधिकारी होना अनिवार्य बताया गया है. मजे की बात यह कि नाजिम हुसैन अल जाफरी ही विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक (एक्जामिनेशन कंट्रोलर) भी हैं. इसी तरह प्रॉक्टर डॉ. नीरज कुमार शुक्ला का उर्दू भाषा से कोई लेना-देना नहीं. यह लखनऊ के एक कॉलेज में कॉमर्स के अस्थायी लेक्चरर थे. लाइब्रेरियन दुआ नकवी की लाइब्रेरी साइंस में पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई है, जबकि इस पद के लिए लाइब्रेरी साइंस से जुड़ी शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य होती है. डिप्टी प्रॉक्टर डॉ. सबीना बानो भी उर्दू या अरबी-फारसी भाषा से जुड़ी शैक्षणिक योग्यता नहीं रखतीं. यह भूगोल विषय से जुड़ी हैं. विश्वविद्यालय के ओएसडी डॉ. जीआर यादव कॉमर्स फैकल्टी के हैं और इस्टेट अफसर प्रोफेसर माहरुख मिर्जा भी कॉमर्स फैकल्टी से जुड़े रहे हैं.
यानी जिस विश्वविद्यालय की स्थापना उर्दू, अरबी एवं फारसी भाषा के विकास के लिए हुई, वहीं इन भाषाओं के विद्वानों और जानकारों को किसी भी शीर्ष पद पर नियुक्त नहीं किया गया. शीर्ष अधिकारियों की शैक्षणिक योग्यता के बारे में पूछे जाने पर विश्वविद्यालय प्रशासन कहता है कि मांगी गई सूचना व्यक्तिगत है. उल्लेखनीय है कि 21 सितंबर, 2012 को विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल की बैठक में उर्दू के साथ अरबी एवं फारसी की शिक्षा, शोध और रा़ेजगारपरक विकास के विभिन्न मुद्दे तय किए गए थे. बैठक में यह तय हुआ था कि विश्वविद्यालय में होने वाली नियुक्तियों में उर्दू, अरबी एवं फारसी के जानकारों को प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन नतीजा सबके सामने है. विश्वविद्यालय का नाम पहले उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय रखा गया था, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने इसका नाम बदल कर मान्यवर कांशीराम उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय कर दिया. जब समाजवादी पार्टी की सरकार आई, तो इसका नाम बदल कर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय कर दिया गया. हालांकि, अजमेर शरीफ दरगाह के सज्जादनशीन सैयद जैनुल आबेदीन अली खान ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई थी. उनका कहना था कि महान सूफी संतों को सियासत से दूर रखा जाना चाहिए. अगर सरकार को ख्वाजा साहब में गहरी आस्था है, तो वह ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के नाम पर किसी नए संस्थान की बुनियाद डाले, लेकिन किसी संस्थान का नाम बदल कर राजनीतिक विवाद में संत का नाम घसीटने की कोशिश से परहेज किया जाना चाहिए. मायावती ने भी नाम-बदल पर तीखी प्रतिक्रिया जताई थी.
उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाह रहे और उर्दू साहित्य के विद्वान डॉ. अनीस अंसारी को कुलपति नियुक्त किया गया था. डॉ. अंसारी के कार्यकाल में विश्वविद्यालय उर्दू भाषा के विकास की दिशा में आगे बढ़ता रहा, लेकिन अखिलेश सरकार ने उन्हें हटाकर जामिया मिलिया के प्रोफेसर खान मसूद अहमद को जून 2014 में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का वीसी बना दिया. प्रोफेसर अहमद ने 10 जुलाई, 2014 को यह घोषणा कर दी कि विश्वविद्यालय में उर्दू अनिवार्य भाषा नहीं रही. वीसी और रजिस्ट्रार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिये घोषणा की कि उर्दू, अरबी या फारसी भाषा वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी और उनके अंक रिजल्ट के पूर्णांक (एग्रीगेट) में नहीं जोड़े जाएंगे. इस तरह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का औचित्य नष्ट कर इसके मूल अस्तित्व को नकार दिया गया. स्वाभाविक है कि ऐसा राज्य सरकार की सहमति या इशारे के बगैर नहीं हुआ होगा. आरटीआई एक्टिविस्ट सलीम बेग ने राज्यपाल को पत्र लिखकर इन करतूतों का विरोध किया और उर्दू के विकास के लिए पूर्व के निर्णय बहाल कराने की मांग की. राज्यपाल ही प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं, लेकिन उनकी तरफ़ से भी कोई जवाब नहीं आया. उर्दू के साथ हो रहे खिलवाड़ और विश्वविद्यालय द्वारा बरती जा रही अनियमितताओं के मसले में राज्य सरकार और विश्वविद्यालय ने घालमेल का जो खेल रचा, वह सुनियोजित धोखाधड़ी का नायाब नमूना है. सूचना के अधिकार के तहत सलीम बेग ने इस बारे में राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव-उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय के कुलपति से औपचारिक सूचना मांगी. बेग ने उर्दू, अरबी एवं फारसी भाषा के शैक्षणिक विकास की गति के ख़िलाफ़ काम करने वाले और अनियमितताओं में लिप्त अधिकारियों- कर्मचारियों के ख़िलाफ़ जांच कर कार्रवाई की मांग उठाई थी, लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं आया. केवल मुख्य सचिव के यहां से बताया गया कि उनका पत्र उच्च शिक्षा विभाग को अग्रसारित कर दिया गया है. मुख्य सचिव का पत्र संलग्न करते हुए सलीम बेग ने फिर उच्च शिक्षा विभाग से इसका जवाब मांगा, तो कहा गया कि उनका पत्र आवश्यक कार्रवाई के लिए विश्वविद्यालय के कुलसचिव (रजिस्ट्रार) को भेज दिया गया है. उच्च शिक्षा विभाग ने एक तरफ़ लिखा कि कार्रवाई के लिए विश्वविद्यालय को पत्र भेज दिया गया है और दूसरी तरफ़ यह भी लिख दिया कि इस मामले में कोई दोषी नहीं है. बेग का पत्र जब विश्वविद्यालय प्रशासन को भेजना था, तो बिना किसी जांच के उच्च शिक्षा विभाग ने यह कैसे तय कर लिया कि कोई दोषी नहीं है?
राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव तक ने विश्श्वविद्यालय प्रशासन को मामले की जांच तथा आवश्यक कार्रवाई का आदेश जारी करने का साझा प्रहसन खेला. जब जांच व कार्रवाई के बारे में विश्वविद्यालय प्रशासन से पूछा गया तो, जवाब मिला कि इस मामले में न कोई जांच कमेटी गठित हुई और न कोई जांच कराई गई. विश्वविद्यालय प्रशासन ने मांगी गई अन्य सूचनाओं का जवाब भी गड्ड-मड्ड कर दिया. राज्यपाल सचिवालय की अनु सचिव मधुबाला सहगल ने विश्वविद्यालय प्रशासन को निर्देश भेजा था कि राज्यपाल ने मामले की जांच एवं आवश्यक कार्रवाई करने को कहा है. प्रदेश सरकार ने भी अनु सचिव वीरेंद्र नाथ के ज़रिये विश्वविद्यालय प्रशासन को मामले की जांच और आवश्यक कार्रवाई का निर्देश दिया, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा, जांच नहीं कराई. ऐसा जवाब देते हुए उसे शर्म नहीं आई. सलीम बेग ने विश्वविद्यालय से कुलपति, रजिस्ट्रार, प्रॉक्टर एवं अन्य शीर्ष अधिकारियों के उर्दू-अरबी ज्ञान के बारे में पूछा, तो आधिकारिक जवाब मिला कि पूछी गई सूचना व्यक्तिगत है. उर्दू के विकास के बारे में एक्जीक्यूटिव काउंसिल की बैठक में लिए गए ़फैसलों की जानकारी चाही गई, तो कहा गया कि दफ्तर आकर संबंधित पत्रावली देख लें. ताकि, आरटीआई कार्यकर्ता की पहचान हो जाए और उसका जीवन मुश्किलों से भर जाए. ऐसे जवाब देकर विश्वविद्यालय ने आरटीआई एक्ट के प्रावधानों की धज्जियां उड़ा दीं. जबकि क़ानून आरटीआई एक्टिविस्ट की हिफाजत के लिए उसकी पहचान गोपनीय रखने की हिदायत देता है.
उर्दू, अरबी एवं फारसी की प्राथमिकता समाप्त करने और इनमें प्राप्त अंक परीक्षाफल में न जोड़ने के अहमकी ़फैसले के बारे में जानकारी मांगने पर विश्वविद्यालय ने कहा कि यह फैसला प्रोफेसरों की एक कमेटी ने किया है, फिर कहा कि कमेटी के पास यह मसला विचाराधीन है. जबकि उसके पहले वीसी ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इसकी घोषणा कर दी थी. सवाल यह है कि सरकार के नीतिगत ़फैसले को प्रोफेसरों की कमेटी ताख पर कैसे रख सकती है? विश्वविद्यालय प्रशासन के जवाब काफी विरोधाभासी हैं. एक तरफ़ वह कहता है कि छात्रों के लिए उर्दू, अरबी या फारसी पढ़ना अनिवार्य है, दूसरी तरफ़ कहता है कि इन विषयों के अंक परीक्षाफल में जोड़े नहीं जाएंगे. जब अंक जोड़े नहीं जाएंगे, तो छात्र पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय क्यों आएंगे? विश्वविद्यालय प्रशासन ने उर्दू की अनिवार्यता के बारे में जारी अधिसूचना से वह हिस्सा ही हटा दिया है. विश्वविद्यालय प्रशासन पर आरोप है कि वह ज़मीनों पर कब्जा कर रहा है. अपने लिखित जवाब में विश्वविद्यालय कहता है कि उसके पास 28 एकड़ ज़मीन है, इसके अलावा कोई भूमि नहीं है, जबकि उसकी आधिकारिक वेबसाइट पर लिखा है कि सरकार की तरफ़ से उसे 30 एकड़ ज़मीन उपलब्ध कराई जा चुकी है. इसके अलावा बाईपास के नज़दीक 32 एकड़ और दूसरी तरफ़ 150 एकड़ ज़मीन हासिल करने की अलग से कार्रवाई की जा रही है. विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर उल्लिखित इन तथ्यों का विवरण मांगा गया, तो जवाब देने के बजाय वेबसाइट से वह पेज ही गायब कर दिया गया. वेबसाइट का वह हिस्सा चौथी दुनिया के पास सुरक्षित है. वेबसाइट से हिंदी वाला पूरा हिस्सा गायब है. अराजकता का आलम यह है कि यहां के कर्मचारी (स्टाफ) दूसरे विश्वविद्यालय में रेगुलर कोर्स करते हैं और विश्वविद्यालय से गायब रहते हैं. पकड़े जाने पर कई कर्मचारियों को पूर्व वीसी डॉ. अनीस अंसारी ने नौकरी से निकाल दिया था, लेकिन नए वीसी ने आते ही उन सबको बहाल कर दिया. इसी तरह अवकाश अवधि के अनाप-शनाप भुगतान और अन्य किस्म की वित्तीय अनियमितताएं सामने आई हैं, जिन्हें देखने और अंकुश लगाने का कोई इंतजाम नहीं है.
यह शोध पत्र मुख्यमंत्री तक पहुंचा दें…
उर्दू की शेरो-शायरी पढ़ना और ग़ज़लें गुनगुनाना न केवल मन को सुकून देता है, बल्कि दिमाग की नसों का बेहतर इलाज भी करता है. लखनऊ स्थित सेंटर फॉर बायो-मेडिकल रिसर्च (सीबीएमआर) के न्यूरो-इमेजिंग विभाग के वैज्ञानिक उत्तम कुमार ने एक शोध के ज़रिये यह निष्कर्ष निकाला है. उनका शोध अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका न्यूरो साइंस लेटर्स में प्रकाशित हुआ है. लखनऊ के एक बुद्धिजीवी ने कहा कि विज्ञान पत्रिका में छपे इस शोध की एक प्रति मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक पहुंचा देनी चाहिए, ताकि वह उसे पढ़ लें. सीबीएमआर का यह शोध बताता है कि उर्दू पढ़ने से दिमाग का वह अहम हिस्सा प्रभावित होता है, जहां से कोई भी व्यक्ति अच्छे और बुरे का फ़़र्क कर उचित फैसले लेता है, जहां से भावनाएं नियंत्रित होती हैं, जहां से तनाव नियंत्रित होता है और जहां से सूचनाएं हासिल कर उनकी समीक्षा करने की शक्ति मिलती है. उर्दू पढ़ने से भूलने की प्रवृत्ति भी कम होती है. मुख्यमंत्री को शोध पत्र पढ़ने की सलाह देने वाले सज्जन ने यह भी कहा कि उर्दू किसी शख्स के दिमाग को सकारात्मक बनाने में इतनी ही प्रभावकारी है, तो आतंकी और देश विरोधी गतिविधियों में लगे लोगों को क्यों नहीं सुधार पाती?
हिंदू छात्र मदरसे और मुस्लिम छात्र संघ के स्कूल में!
हाल में ख़बर आई कि उत्तर प्रदेश के रामपुर में हिंदू छात्रों ने मदरसे में और मुस्लिम छात्रों ने आरएसएस के स्कूल में दाखिला लेकर सांप्रदायिक कट्टरता की सियासत को करारा तमाचा लगाया. यह खास तौर पर उल्लेखनीय और उदाहरण योग्य इसलिए भी है, क्योंकि उसी रामपुर के निवासी आजम खान अपनी सांप्रदायिक कट्टरता के कारण देश भर में जाने जाते हैं. ख़बर के मुताबिक, रामपुर के 11 हिंदू छात्रों ने मदरसे और 140 मुस्लिम छात्रों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्कूल में अपना नाम लिखवाया है. इन बच्चों ने अपनी मर्जी से अपनी-अपनी पसंद के स्कूल और मदरसे में दाखिला लिया. मदरसे के प्रिंसिपल जमीतुल अंसार ने बताया कि इन छात्रों के अभिभावकों को उर्दू भाषा के प्रति लगाव है, जिसके चलते उन्होंने उक्त दाखिले कराए. अंसार ने कहा कि हिंदू छात्र एवं उनके अभिभावक उर्दू को मिर्जा गालिब और राहत इंदौरी जैसे बड़े शायरों की वजह से पसंद करते हैं. ऐसे में वे मदरसे में पढ़कर उर्दू ज़ुबान के और ज़्यादा क़रीब होना चाहते हैं. दूसरी तरफ़ 140 मुस्लिम बच्चों ने भी आरएसएस के स्कूल में दाखिला लेकर एक मिसाल कायम की.
नेता बहाते हैं घड़ियाली आंसू
हिंदी हो या उर्दू, दोनों भाषाओं के लिए नेता स़िर्फ घड़ियाली आंसू बहाते हैं, उनके विकास के लिए कुछ नहीं करते. इन दोनों भाषाओं को लेकर राजनीति खूब होती है, लेकिन बढ़ावा अंग्रेजी को दिया जाता है. जहां तक उर्दू का मसला है, छह अक्टूबर, 1989 को एक अधिसूचना जारी कर इसे द्वितीय राजभाषा घोषित किया गया था और सात अक्टूबर, 1989 को उर्दू के सरकारी कामकाज में इस्तेमाल के विभिन्न बिंदु तय किए गए थे. उस समय मुलायम सिंह पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप लगे थे, लेकिन अदालत ने भी उनके ़फैसले को सही करार दिया था. अफ़सोस! मुलायम सिंह की सारी कवायद बेमानी साबित हुई. वर्ष 2005 में सरकार ने चिंता जाहिर की थी कि दूसरी राजभाषा के रूप में उर्दू का प्रयोग और विकास संतोषप्रद नहीं है. वर्ष 2009 में प्रदेश में उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय खोलने का निर्णय लिया गया था. इसके लिए उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 में संशोधन किया गया. पांच मार्च, 2010 को बाकायदा गजट प्रकाशित हुआ. शासन ने बताया कि उर्दू, अरबी एवं फारसी में शिक्षा, अनुसंधान और उर्दू के विकास के लिए लखनऊ में उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है. लेकिन, राजनीति ने इसे तहस-नहस करके रख दिया. प्रदेश में हज़ारों मदरसे हैं, जहां लाखों छात्र उर्दू में तालीम हासिल करते हैं, लेकिन मदरसों की शिक्षा मुख्य धारा में शामिल नहीं है और रा़ेजगारपरक भी नहीं है. विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे उन तमाम छात्रों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने और प्रोफेशनल बनाने का भी इरादा था, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सका. विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर स्थापना के उद्देश्य के तहत लिखा है कि उसकी स्थापना उर्दू, अरबी, फारसी भाषा एवं संस्कृति के अध्ययन और विकास के लिए की गई है, लेकिन ज़मीनी असलियत इसके ठीक विपरीत है.