यह सवाल पंजाब में स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों के बाद भी उठा था और अब भी मौजूं है कि देश के विभिन्न राज्यों में हो रहे स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों के परिणामों को किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में परखा जाए या नहीं, यदि हां तो किस हद तक? और यह भी राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय निकाय चुनावों की लाइफ लाइन कैसे तय करते हैं? इन सवालों को हाल में केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने अपनी ‘उत्साह से भरी’ पत्रकार वार्ता के दौरान किए गए दावों ने फिर हवा दे दी है। जावडेकर ने देश की राजधानी दिल्ली में मीडिया को गुजरात स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा की बंपर जीत और कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने की खबर गदगद होते हुए दी।
उन्होंने यह भी दावा किया कि ये चुनाव नतीजे इस बात को भी साबित करते हैं कि कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन का गुजरात के किसानों पर कोई असर नहीं है। वो भाजपा के साथ हैं। इस व्याख्या में छुपा आग्रह यह भी है कि गुजरात के मतदाता की भावना को पूरे देश के मतदाता की भावना के आईने में देखा और समझा जाए।
बात सही है, गुजरात के चुनाव नतीजे फिर चाहे वो,लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय अथवा पंचायतों के ही क्यों न हों, भाजपा की राजनीतिक धड़कन की ऊंच-नीच नापने के ब्लड प्रेशर माॅनीटर की तरह है।
यह बात खुद भाजपा मानती है। ऐसे में भाजपा ही गुजरात के स्थानीय निकाय व पंचायत चुनाव नतीजों को दिल्ली में करीब सौ दिनो से जारी और अब तक बेनतीजा रहे किसान आंदोलन की छाया में देख रही है। जबकि गुजरात में भाजपा का जीतना वैसा ही है कि जैसे हिमालय पर बर्फ का जमना। हां, अगर यह बर्फ पिघल कर विरोधी दलों के समर्थन के रूप में बह निकलती तो बड़ी खबर बनती। गुजरात भाजपा का अभेद्य गढ़ था और है। और फिर गुजरात ही क्यों, किसी भी राज्य में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजे आना कोई बड़ी खबर नहीं होती।
अमूमन यह माना जाता है कि राज्य में सत्तासीन पार्टी के पास लोकल चुनाव जीतने के तमाम औजार, हथकंडे और शगूफे होते हैं। यदि राज्य सरकार ने कुछ अच्छे काम भी किए हों और सही चुनावी पांसे फेंके हों तो सोने पे सुहागा। मतदाता भी समझता है कि राज्य पर राज कर रही पार्टी के खिलाफ मत देकर उसे क्या लाभ होना है? विकास की स्थानीय परिभाषा जरूरी बजट से ही आकार लेती है और देश में अधिकांश स्थानीय निकाय व पंचायतें धन के लिए राज्य सरकार पर ही निर्भर होते हैं। ऐसे में प्रतिपक्ष अथवा अन्य किसी पार्टी को जिताने का मतलब विकास के रास्ते पर खुद पत्थर रखना है।
यूं भी किसान आंदोलन में गुजरात के किसानो की भूमिका नहीं के बराबर है। क्योंकि वहां कृषि व्यापार का अपना तंत्र है। ऐसे में कृषि कानूनों के विरोध को राजनीतिक दृष्टि से भुनाने की संभावना नहीं के बराबर ही थी। अलबत्ता यह खबर जरूर है कि गुजरात में बरसों से विपक्ष की बेंच पर बैठी कांग्रेस को फिर भारी झटका लगा है। यूं तो आज पूरी पार्टी ही शीर्ष से लेकर निचले स्तर पर अंतर्कलह में डूबी है, ऐसे में मतदाता उसे जिताकर भी क्या हासिल करता ? राज्य में कांग्रेस का नेतृत्व उन हार्दिक पटेल के भरोसे था, जो खुद अभी तक अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पाए हैं और जिनका पाटीदारों को आरक्षण का मुद्दा भी अब ठंडे बस्ते में जा चुका है।
इन नतीजों के बाद गुजरात प्रदेश कांग्रेस अमित चावड़ा ने पद से इ्स्तीफा दे दिया है। कांग्रेस का जो हुआ, सो ठीक। लेकिन जावडेकर ने गुजरात में ‘आम आदमी पार्टी’ की चेतावनी भरी एंट्री पर कुछ नहीं कहा। नतीजे बताते हैं कि गुजरात का जो मतदाता भाजपा को वोट नहीं देना चाहता तो अब वह ‘आप’ को वोट डाल रहा है। यह भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। वैसे जावडेकर के दावे को सही मानें तो हाल में हुए पंजाब में स्थानीय चुनावों के परिणामों की व्याख्या इस रूप में करनी पड़ेगी कि वहां स्थानीय निकाय चुनावो में कांग्रेस की बंपर जीत मोदी सरकार के कृषि कानूनों के प्रति किसानो की गहरी नाराजी का परिणाम थी ? शहरी विकास की आकांक्षा पर कृषि कानूनों का साया भारी पड़ा। ध्यान रहे कि पंजाब के स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को जमीन सुंघाई थी।
राज्य के सभी आठों नगर निगम चुनावों पर उसने कांग्रेसी तिरंगा फहराया दिया था। इन नतीजों के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को सफाई देनी पड़ी थी कि पंजाब में अभी तक हम अकालियों के भरोसे थे, लेकिन अब हम अकेले अपनी ताकत बढ़ाएंगे। उसमें वक्त लगेगा। इसके पूर्व राजस्थान में हुए स्थानीय निकाय चनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस का परफार्मेंस ठीक ही रहा था, हालांकि वह विपक्ष में बैठी भाजपा ने भी कई जगह कड़ी टक्कर दी। लेकिन उन नतीजो को भी किसान आंदोलन के संदर्भ में देखना सही नहीं होगा। मध्यदप्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव अभी होने हैं, यहां क्या परिणाम आता है और उसकी व्याख्या सुविधानुसार किस फैक्टर को लेकर होगी, यह अभी देखना है।
मजेदार बात यह है कि जब जावडेकर दिल्ली में गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों को लेकर अभिभूत हो रहे थे, उसी वक्त देश की राजधानी नई दिल्ली के महानगरपालिका के पांच वार्डों के उपचुनावों में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिल रही थी। उल्टे अपनी एक सीट उसने ‘आप’ के हाथों गंवा दी? देश की राजधानी के मतदाता के इस रूख को भाजपा के संदर्भ में क्या मानें? किसान आंदोलन के विरोध या उसके समर्थन का नतीजा? यह बात इसलिए भी अहम है कि दिल्ली सुशिक्षित लोगों का शहर है और किसान आंदोलन की गूंज उसी की सरहदों पर हो रही है। एमसीडी में भाजपा का हारना इसलिए भी हैरानी भरा है कि देश पर राज करने वाली भाजपा खुद दिल्ली प्रदेश में अपने पैर नहीं जमा पा रही है, यानी ‘दीया तले अंधेरा’ जैसी स्थिति।
कहने का आशय ये कि लोकल चुनाव नतीजों का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अंतिम निष्कर्ष निकालना या ऐसा करने की कोशिश राजनीतिक जल्दबाजी से ज्यादा कुछ नहीं है। स्थानीय निकाय चुनाव के अपने तकाजे , रंग और जरूरतें होती हैं। गुजरात के चुनाव नतीजो पर चहकने वाले जावडेकर दिल्ली महानगरपालिका के उपचनाव नतीजों पर चुप्पी साध गए। कृषि कानूनों का विरोध राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा तो हो सकता है, किसी स्थानीय निकाय या पंचायत चुनाव का प्रमुख मुद्दा नहीं हो सकता।
बावजूद इसके कि पंचायत चुनावों के ज्यादातर मतदाता किसान ही होते हैं। दरअसल ये चुनाव सत्ता की माइक्रोलेवल पर हिस्सेदारी के लिए होते हैं न की राष्ट्रीय अथवा राज्यस्तरीय मुद्दों पर निर्णायक मंथन के। बड़े मुद्दों का इन चुनावों पर असर होता भी है तो उतना ही कि जितना कोई वैक्सीन लगाने के बाद शरीर में होने वाली हरारत का। सत्ता की यह मिनी लड़ाई हकीकत में ग्रासरूट लेवल पर मलाई के बंटवारे की लड़ाई होती है, जिसमें कामयाबी हासिल होने पर आगे सत्ता के महाद्वार खुलते हैं। राजनीति का गणित दूर की नहीं सोचता। इसीलिए सफलता के दावे और असफलता को नकारने की कोशिशें बहका तो सकती हैं वक्त की आंखों में धूल नहीं झोंक सकती।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल