एक बार फिर ये साबित हो गया है कि कश्मीर के ज़मीनी तथ्य और यहां के हालात व घटनाओं के बारे में इंटेलीजेंस एजेंसियां जितनी बेबस हैं, उतनी ही बेख़बर भी हैं. किसी ने सोचा भी नहीं था कि श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लिए केवल 7.14 प्रतिशत लोग ही मतदान करेंगे. ज़ाहिर है कि अगर खुफिया एजेंसियों को इस स्थिति की पहले से जानकारी होती, तो सरकार को इतनी शर्मिंदगी न उठानी पड़ती. सरकार ने अपने तरीके से ठीक-ठाक व्यवस्था की थी. कानून व्यवस्था बेहतर बनाए रखने के लिए सुरक्षाबल और पुलिस की 168 अतिरिक्त कंपनियां तैनात की गईं थीं.

चुनावों से एक दिन पूर्व पूरी घाटी में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं. यहां तक कि श्रीनगर में अख़बार के कार्यालयों तक को भी इंटरनेट से वंचित रखा गया. मतदान क्षेत्रों में चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाबल तैनात कर दिए गए थे. लेकिन इन सबके बावजूद, हालात पर सरकार या सुरक्षा एजेंसियों का कोई नियंत्रण नही रहा. ज़ाहिर है कि अगर इंटेलीजेंस एजेंसियों को इस हालात का अनुमान पहले होता, तो सरकार और चुनाव आयोग वोट की तारीखें तय करने से पहले सोच-विचार कर लेते या हालात से निबटने के लिए बेहतर व्यवस्था की जाती. लेकिन साफ़ ज़ाहिर है कि सरकार को इस प्रकार के हालात पैदा होने का कोई अंदाज़ा नहीं था.

विश्लेषकों ने इस स्थिति का अलग-अलग तरह से विश्लेषण किया है. कुछ का कहना है कि अलगाववादियों की बायकॉट की अपील का पूरा प्रभाव पड़ा है. वहीं, कुछ का कहना है कि दरअसल हिंसा के कारण भय का वातावरण बना और लोग वोट डालने नहीं निकले. कुछ विश्लेषकों ने तो यहां तक कहा कि हिंसा के द्वारा चुनाव बायकॉट करवाया गया. सच जो भी हो, दिखाई तो यही दे रहा है कि यहां सरकार और इंटेलीजेंस एजेंसियां पूरी तरह से असफल हो चुकी हैं.

किसी भी तरह से ये चुनाव नहीं लग रहा था, ऐसा लगा कि सड़कों पर मौत का नंगा नाच जारी था. सुरक्षा बलों के हाथों 8 युवा मारे गए, दर्जनों घायल हुए. कुछ ही घंटों में हिंसा की 200 घटनाएं घटीं. सुरक्षा बलों और आम युवाओं की मुठभेड़ में दोनों ओर से दर्जनों लोग घायल भी हुए. गंभीर घायलों को जब श्रीनगर के प्राथमिक उपचार केन्द्र या शेर-ए-कश्मीर मेडिकल इंस्टीट्‌यूट पहुंचाया जा रहा था, तो इन अस्पतालों में अजीब सा माहौल देखने को मिला. हर घायल के साथ बड़ी संख्या में युवा नारे लगाते हुए आ रहे थे. सड़कें और राजमार्ग या तो सुनसान थे या फिर हिंसा की आग में जल रहे थे.

श्रीनगर संसदीय क्षेत्र में तीन ज़िले हैं- श्रीनगर, बडगांव और गांदरबल. हिंसा की अधिकतर घटनाएं बडगांव में घटीं. अन्य जगहों के मुक़ाबले श्रीनगर में हालात शांतिपूर्ण रहे. हालांकि इसके बावजूद इस ज़िले में महज़ 3.84 प्रतिशत मतदान हुआ. यानि जहां हिंसा नहीं हुई, वहां भी पोलिंग का प्रतिशत बेहद कम रहा. 12 लाख 60 हज़ार से अधिक मतदाताओं में से केवल 80 हज़ार लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.

गौरतलब है कि 3 वर्ष पूर्व यानि 2014 के संसदीय चुनावों में श्रीनगर में 3 लाख 12 हज़ार से अधिक लोगों ने मतदान किया था. जीतने वाले प्रत्याशी तारिक़ हमीद ने अकेले 1 लाख 75 हज़ार से अधिक वोट प्राप्त किए थे, जबकि दूसरे नंबर पर फारूक़ अब्दुल्ला थे, जिन्हें 1 लाख 15 हज़ार से अधिक वोट मिले थे. लेकिन आज स्थिति ये है कि साढ़े 12 लाख से अधिक मतदाताओं में से महज़ 80 हज़ार लोगों ने मतदान किया है. इस स्थिति को देखकर चुनाव आयोग ने अनंतनाग संसदीय सीट का चुनाव स्थगित कर दिया है, जो 12 अप्रैल को होना था.

उन 38 जिलों में तो महज 2 फीसदी वोटिंग ही हुई, जहां आयोग ने दूबारा मतदान कराने के निर्देश दिए थे. अनंतनाग के चुनाव को स्थगित करने की अपील यहां से पीडीपी के उम्मीदवार व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के भाई तस्दीक़ मुफ्ती ने चुनाव आयोग से की थी. स्पष्ट है कि सरकार श्रीनगर संसदीय क्षेत्र में शर्मिदंगी उठाने के तुरंत बाद इस प्रकार का एक और रिस्क नहीं लेना चाहती थी या यह कहा जा सकता है कि अब सरकार को ज़मीनी हालात का पूरी तरह से अंदाज़ा हो गया है.

ऐसा नहीं है कि घाटी में इंटेलीजेंस एजेंसियों और सरकार की असफलता का यह एकमात्र उदाहरण है. जुलाई 2016 में भी यही हुआ था, जब हिंसा के कारण कश्मीर 6 महीने तक बंद रहा, 100 लोग मारे गए, हज़ारों लोग घायल हुए. पैलेट गन के प्रयोग से सैंकड़ों युवा आखों से वंचित हुए और अरबों रुपए का व्यापारिक नुक़सान हुआ.

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तब खुद कहा था कि उन्हेंं 8 जुलाई को दक्षिण कश्मीर के एक गांव में हुई झड़प के बारे में पता नहीं था, जिसमें हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी मारा गया था. अगर पता होता, तो बुरहान को एक मौक़ा दिया जा सकता था. उल्लेखनीय है कि महबूबा मुफ्ती के पास राज्य का गृह मंत्रालय भी है. इसलिए पता नहीं कि सुरक्षा एजेंसियों ने उन्हेंे जानबूझकर बुरहान वानी के बारे में ख़बर नहीं दी या सुरक्षा एजेंसियों को खुद भी इस बारे में पता नहीं था.

अब सुरक्षा एजेंसियों का दावा है कि 2016 में घाटी में हालात ख़राब करने की तैयारियां बहुत पहले से शुरू की गई थीं और इसका संरक्षण पाकिस्तान ने किया था. एक पत्रिका ने हाल ही में इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें आईबी का कहना है कि पाकिस्तान की आईएसआई ने घाटी में हालात ख़राब कराने के लिए अलगाववादियों को 800 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए थे. कहने में तो कुछ नहीं जाता है. इसे 800 करोड़ के बजाय 8 हज़ार करोड़ भी कहा जा सकता है. लेकिन तब भी यह सवाल पैदा होता है कि इतनी बड़ी राशि घाटी में कैसे पहुंचाई गई? क्या इतनी बड़ी रक़म बोरियां में बंद करके कांधे पर लादकर कंट्रोल लाइन पार करके यहां लाई गई या फिर बैंकिंग के रास्ते यहां पहुंचा दी गई या फिर हवाला के द्वारा ये पैसे कश्मीर में लाए गए.

इसका जवाब इंटेलीजेंस एजेंसियों से पूछा जा सकता है कि इस संदर्भ में कोई एक व्यक्ति भी क्यों नहीं पकड़ा गया? जब इंटेलीजेंस एजेंसियों को मालूम है कि कितनी राशि यहां पहुंचाई गई है, तो फिर ये पता क्यों नहीं कि वो रुपए किसके द्वारा पहुंचाए गए हैं और फिर कैसे बांटे गए हैं? ज़ाहिर है, अरबों रुपए के इस लेनदेन में दर्जनों लोगों की सेवाएं शामिल रही होंगी, लेकिन क्या ये हैरान करने वाला नहीं कि इस मामले में किसी एक व्यक्ति को भी नहीं पकड़ा गया.

इन्हीं सवालों के कारण कोई भी साधारण सूझबूझ वाला व्याक्ति इंटेलीजेंस एजेंसियों के ऐसे दावों पर विश्वास नहीं करता. अगर यह सच है कि 2016 में हालात ख़राब करने की तैयारियां बहुत पहले से हो रही थीं, तो पूछा जा सकता है कि सुरक्षा एजेंसियां क्यों सोई हुई थीं. उन्हें बुरहान वानी की मौत से पहले दो वर्ष तक यह पता नहीं चला कि वो सोशल मीडिया की वेबसाइटों पर कैसे सक्रिय था. वह कहां से अपने बयानों, फोटो और वीडियो संदेश अपलोड करता था.

सरकार और इंटेलीजेंस एजेंसियों को इस बात की भनक भी नहीं थी कि बुरहान वानी की लोकप्रियता की सीमाएं कब दक्षिणी कश्मीर लांघकर पूरी घाटी में फैल गई थीं और कब वह कश्मीर के नौजवानों का हीरो बन चुका था. सरकार और उसकी संस्थाएं उस समय हक्का-बक्का रह गईं, जब बुरहानी की मौत के बाद उसकी अंतिम क्रिया में लाखों लोग शामिल हुए और घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में कमोबेश 50 बार उसकी अंतिम क्रिया की औपचारिकता पूरी की गई.

किसी भी इंटेलीजेंस एजेंसी ने सरकार को इस प्रकार की परिस्थितियां पैदा होने की संभावना के बारे में अग्रिम सूचना नहीं दी थी. पिछले कुछ महीनों के दौरान घाटी में नौजवानों ने सशस्त्र पुलिसकर्मियों से दर्जनों राइफलें छीन लीं, लेकिन इनमें से कोई भी हथियार बरामद नहीं किया जा सका. आए दिन यह दुष्प्रचार किया जाता है कि कश्मीरी युवाओं को पैसे देकर पथराव कराया जाता है. अगर ये सही है, तो ऐसे 10-20 युवाओं को पकड़कर सबूत समेत मीडिया के सामने पेश क्यों नहीं किया जाता. अगर मान भी लिया जाए कि यहां होने वाली हर घटना के पीछे पड़ोसी देश और उसकी एजेंसियां हैं, तो ये मानना पड़ेगा कि इस क्षेत्र में इंडिया की नहीं बल्कि पड़ोसी देश की रट है.

ऐसी दर्जनों मिसालें हैं, जो इंटेलीजेंस एजेंसियां, सुरक्षा संस्थान और सरकार को नाकाम साबित करती हैं. केंद्र सरकार कश्मीर के बारे में ज़मीनी तथ्यों को स्वीकार करने के बजाय बल प्रयोग से हालात से निबटने की कोशिश करती नज़र आ रही है. श्रीनगर संसदीय सीट के चुनाव के दो दिन बाद ही यानि 11 अप्रैल को मुंबई में एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि कश्मीर के हालात एक वर्ष के अन्दर बदल दिए जाएंगे.

उन्होंने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि बदलाव कैसे आए, लेकिन यह पक्का है कि कश्मीर एक साल के अन्दर-अन्दर बदल जाएगा. गृहमंत्री ने कहा कि वे सेना प्रमुख के उस बयान से पूर्ण सहमति रखते हैं कि कश्मीर में सुरक्षा बलों को अपनी ड्‌यूटी में रूकावट डालने वालों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए. घाटी में अधिकतर विश्लेषकों का मानना है कि गृहमंत्री का ये बयान इशारा करता है कि कश्मीर में हालात बेतहाशा बल प्रयोग से ठीक किए जाएंगे.

अगर ऐसा ही है, तो संभव है कि आने वाले समय में घाटी में सुरक्षा बलों के हाथों बड़े पैमाने पर मारधाड़ होगी. लेकिन सवाल पैदा होता है कि क्या इससे वाक़ई हालात सामान्य हो जाएंगे. संभव है कि इस प्रकार की नीति के कारण यहां क़ब्रिस्तान जैसी ख़ामोशी पैदा होगी, लेकिन पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इस प्रकार की खमोशी किसी भी स्थिति में पूर्ण शांति में नहीं बदल सकती है. ये बात कितनी भी कड़वी हो, लेकिन सच तो यही है.

कश्मीर समस्या की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. भारत सरकार की अनगिनत वादाखिलाफियों और भ्रम के साथ-साथ मानवाधिकार के खुले उल्लंघन का सिलसिला इस समस्या से जुड़ा हुआ है. यह एक राजनीतिक समस्या है, जिसका हल ताक़त के प्रयोग से हरगिज़ नहीं हो सकता. जम्मू-कश्मीर में फिलहाल लाखों की संख्या में सेना और अर्द्धसैनिक बल मौजूद हैं, लेकिन इसके बावजूद सच्चाई यही है कि पिछले तीन दशकों के दौरान इतनी बड़ी सेना और अन्य सुरक्षा एजेंसियां यहां हिंसा को खत्म नहीं कर सकी.

घाटी में हालात ठीक करना सेना के वश में होता, तो इस काम के लिए तीन दशकों का समय काफी था. इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि कश्मीर में जारी आंदोलन को भरपूर जनसमर्थन प्राप्त है. कश्मीरियों की नई नस्ल पूर्ण रूप से इस आंदोलन के साथ जुड़ी हुई है. इस समस्या को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के लिए, बिना शर्त बातचीत ही एकमात्र रास्त हो सकता है. सभी पक्षों के साथ गंभीर और सकारात्मक बातचीत से ही इस समस्या का हल निकाला जा सकता है. इस समस्या के शांतिपूर्ण समाधान के बाद ही यहां शांति की स्थापना संभव हो सकती है.

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