एक अंग्रेज फिल्म निर्माता जब अस्सी वाले दशक में ! महात्मा गाँधी जी के उपर फिल्म बनाने जा रहे थे ! तो भारत के उन कुछ लोगों में से एक मै भी था ! कि यह अंग्रेज आदमी महात्मा गाँधी जी के बारे में तोडमरोडकर फिल्म बनाएगा ! इसलिये हम कई गांधीवादी लोगों को इसे सहयोग न देने की बात कहते हुए घुमे थे !


लेकिन उस अंग्रेज ने जिसका नाम रिचर्ड एटंनबरो था ! उन्होंने गांधी नाम से जो फिल्म बनाई है ! वह देखने के बाद मै गलत साबित हुआ ! और वह फिल्म विश्व की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक बनीं है ! रिचर्ड एटंनबरो इंग्लैंड में पैदा हुए ! और उन्हिके पूर्वजों की सत्ता को भारत से, अपने अहिंसक तौर – तरीको का इस्तेमाल करते हुए ! महात्मा गाँधी जी ने अंग्रेजो को 15 अगस्त 1947 को भारत छोडकर जाने के लिए मजबूर कर दिया ! और उसी थीम पर ! रिचर्ड एटंनबरो एक फिल्म बनाते हैं ! जिसे थीम को डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सिविल नाफरमानी की उपमा दी है ! जो महात्मा गांधी ने 1906 में दक्षिण अफ्रीका के भूमि पर इजाद किया ! जिसे उन्होंने पहले सत – आग्रह और बाद में ‘सत्याग्रह के नाम से जाना गया है ! जो विश्व के मानवीय इतिहास में एक साधारण आदमी – औरत भी ! अगर अपने उपर हुए अन्याय के खिलाफ, न्याय के लिए अकेला निहत्था भी जमीन पर बैठे ! या खड़े रहते हुए या चलकर ! अपने उपर हो रहें, अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध कर सकता है ! और विश्व के विभिन्न हथियारों की स्पर्धा में ! इतना शक्तिशाली औजार आजसे 117 साल पहले महात्मा गाँधी ने इजाद किया ! और आज समस्त विश्व में सभी देशों में इसका प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है ! और जहाँ तक मुझे रिचर्ड एटंबरो की गांधी टाईटल से बनी फिल्म समझ में आई है ! उसमें दक्षिण अफ्रीका से लेकर, चंपारण के, और बारडोली, खेडा के किसानों के आंदोलनों से लेकर ! 1930 का दांडी मार्च ! और नमक सत्याग्रह तथा 1942 का भारत छोडो आंदोलनों को लेकरं ! बंगाल, बिहार, दिल्ली के दंगों के दौरान शांति – सद्भावना के काम को ! जिसे हमारे देश के अंतिम व्हायसराय ! लॉर्ड मौंटबॅटन ने ‘वन मॅन’ आर्मी की उपमा देते हैं ! यह सब कुछ रिचर्ड एटंबरो अपनी तीन घंटों से अधिक समय की फिल्म में दिखाने में कामयाब होते हैं ! और इसी कारण ! एक अंग्रेज फिल्मनिर्माता महात्मा गाँधी जी के जीवन के निचोड को काफी हद तक कवर करने के कारण ! वह उस समय के सभी रेकॉर्ड तोड पुरस्कारो से लेकर, शायद उस समय की विश्व की सबसे प्रसिद्धि पाने वाली फिल्म बनाने का काम किया है !


महात्मा गाँधी, विश्व के सभी प्रतिभावान लोगों को प्रभावित करने वाले लोगों में से एक रहे हैं ! इसलिए उनके उपर सिनेमा, नाटक, कथा – उपन्यास तथा चित्र, व्यंगचित्रकार से लेकर कवी, मूर्तीकार ! तथा हर तरह की अभिव्यक्ति करने वाले लोगों ने, उनके उपर सब तरह की विधाओ के द्वारा ! अपनी अभिव्यक्ति की है ! और भारत की पहचान ही गांधी जी के देश होने के कारण ! हमारे देश के सभी तरह के कलाकारों को भी ! उनके उपर अपनी कला के माध्यम से, अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है !
मेरे नागपुर के मित्रों में से एक मराठी भाषी कवि और लेखक ने कल सुबह मुझे व्हाट्सअप के उपर जनवादी लेखक संघ का हिंदी में एक निषेध निवेदन भेजा है ! जिसे पढ़ने के बाद मै यह पोस्ट लिख रहा हूँ ! इस निवेदन में फिल्म की खुब खबर ली गई है !

गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ फ़िल्म पर जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी में पारित प्रस्ताव
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आज जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के प्रतिनिधि मौजूद थे। बैठक में ‘गाँधी गोडसे : एक युद्ध’ फिल्म को लेकर कार्यकारिणी सदस्यों ने तीखा आक्रोश व्यक्त किया और निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ:

हिदी के प्रख्यात कथाकार और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले 2011 में ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ नामक नाटक लिखा था। कई सालों बाद इस नाटक का संशोधित रूप 2020 में ‘बनास जन’ पत्रिका द्वारा प्रकाशित हुआ। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ। इसी वर्ष 25 जनवरी 2023 को इस नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर लेखकों के बीच तीव्र विवाद भी खड़ा हो गया है। ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ असग़र वजाहत के इसी संशोधित नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित है। इसकी पटकथा इस फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक राजकुमार संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है।

यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता। लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है।

जनवादी लेखक संघ लेखकीय स्वतंत्रता का सदैव पक्षधर रहा है। वह इसमें यक़ीन नहीं करता है कि वह लेखकों को बताये कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और कैसे लिखना चाहिए। वह जो कुछ भी लिखा गया है उसकी आलोचना करने की स्वतंत्रता का भी समर्थन करता है। लेकिन यदि ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर लेखक और फ़िल्मकार अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल ज़रूर पूछा जायेगा कि ठीक इस समय जब देश पर एक सांप्रदायिक फासीवादी राजनीतिक संगठन सत्ता में है और जो हिंदुत्व की उसी विचारधारा को मानता है जो सावरकर और गोडसे की विचारधारा थी, तो इस तरह की फ़िल्म आखिर किस लिए बनायी गयी है जो अपने वस्तुगत सत्व में उनके पक्ष की पैरवी करती नज़र आती है। दर्शक यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है। इस फ़िल्म ने गोडसे को न केवल गांधी के समकक्ष ला खड़ा किया है बल्कि उसे महान देशभक्त के रूप में स्थापित कर गोडसे (और प्रकारांतर से सावरकर) की व्यापक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।

दरअसल, यह पूरी फ़िल्म वस्तुगत रूप में संघ परिवार के हिंदुत्ववादी एजेंडे का समर्थन करती लगती है। यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, साथ ही साथ उन्हें अवमानित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन की गौरवशाली परंपरा को विकृत करने और हिंदुत्ववादी हत्यारे नाथुराम गोडसे को महान देशभक्त और जननायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के प्रसार का हथियार बन गयी है। यह महज संयोग नहीं है कि विवादास्पद विषय पर फ़िल्म होने के बावजूद संघ परिवार द्वारा इसको लेकर किसी तरह का विरोध नहीं किया गया है। इस फ़िल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है जिसके लिए फ़िल्म के आरंभ में ही वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बायकाट अभियान के सरगना गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र का आभार प्रकट किया गया है। साफ़ है कि फ़िल्म की शूटिंग की इजाज़त पटकथा देखकर ही दी गयी होगी। राजकुमार संतोषी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म निर्माता को सलाह दी है कि यह फ़िल्म स्कूलों और कालेजों में भी दिखायी जानी चाहिए। हिंदू महासभा ने फ़िल्म को कर-मुक्त करने की मांग भी की है।

जनवादी लेखक संघ सदैव से सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर सक्रिय रहा है। 2014 से जलेस हिंदुत्ववादी नीतियों और गतिविधियों के विरुद्ध प्रखर रूप से संघर्षरत रहा है। यह फ़िल्म न केवल इस संघर्ष को कमज़ोर करती है वरन जनवादी लेखक संघ के बारे में भ्रम फैलाने में भी सहायक हुई है। यही वजह है कि जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह स्पष्ट करना ज़रूरी समझती है कि ‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ फ़िल्म में व्यक्त किये गये विचारों और इतिहास को हिंदुत्ववादी ताकतों के पक्ष में विकृत करने की कोशिशों को वह पूरी तरह से अस्वीकार करती है और ऐसी कोशिश की भर्त्सना भी करती है। जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह मानती है कि ऐसे समय में जब देश हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताक़तों के चंगुल में जकड़ा हुआ है, उसके विरुद्ध समझौताविहीन अनवरत संघर्ष को और तेज़ करने की ज़रूरत है। ऐसे समय उन सभी लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से, जो जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यक़ीन करते हैं, जलेस उम्मीद करता है कि वे उन वैचारिक विभ्रमों से भी संघर्ष करेंगे जो कई बार वैचारिक भटकावों का कारण बन जाते हैं।
Janvadi Lekhak Sangh India से

लेकिन फिल्म के पटकथा लेखक जो खुद जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष पद पर विराजमान है उन्हें एक शब्द से भी बगैर छूते हुए यह निवेदन एक पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है ! मै निवेदन इस लेख के साथ दे रहा हूँ !


‘गांधी गोडसे : एक युद्ध’ नाम से 25 जनवरी 2023 को रिलीज की गई एक कमर्शियल हिंदी फिल्म ! जो मशहूर उर्दू और हिंदी के मुर्धन्य साहित्यकार, श्री. असगर वजाहत के नाटक ‘गोडसे @ गांधी. कॉम के’ उपर यह फिल्म राजकुमार संतोषी ने बनाई है ! जिसका नाम है ‘गाँधी गोडसे : एक युध्द ‘ जिसकी मध्य प्रदेश में शुटिंग की गई है ! इसलिए फिल्म के शुरू में ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और एक बैनफेम मंत्री महोदय के विशेष आभार प्रकट किया गया है ! और विश्व हिंदू परिषद ने इस फिल्म को हर स्कूल कालेज में दिखाने तथा टैक्स फ्री करने की शिफारस की है ! मतलब साफ है ! कश्मीर फाईल्स के बाद, अब वर्तमान समय की सरकार सिर्फ़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कब्जे में कर के संतुष्ट नहीं है ! तो बॉलीवुड के सिनेमा जगत को भी अपने सांप्रदायिक अजेंडा के प्रचार-प्रसार के लिए ! मुख्य रूप से ‘कश्मीर फाईल्स’ नाम की एक प्रोपेगेंडा फिल्म ! विवेक अग्निहोत्री के द्वारा बना कर ! खुद भारत के प्रधानमंत्री उसे प्रमोट करने के कारण ! बीजेपी शासित प्रदेशों में उसे टॅक्सफ्रि करने से लेकर ! उसके शो शासकीय स्तर पर करने का प्रयास किया गया है ! और शायद यही सब देख कर राजकुमार संतोषी को भी लगा होगा कि बहती गंगा में हाथ गंदे कर ले !


विशेष रूप से, अपने दल के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए, काम में आने वाली फिल्मों को प्रोजेक्ट करना ! और कुछ फिल्म निर्माता-निर्देशक भी उस होड में शामिल होने के क्रम में अब राजकुमार संतोषी भी ! वर्तमान सरकार को खुश करने के लिए ! विवेक अग्निहोत्री के बाद (‘कश्मीर फाईल्स’) नाम के फिल्म में तथ्यों को तोडमरोडकर पेश किया ! और आंतराष्ट्रीय स्तर के लोगों की भी कड़ी टिप्पणी “जो सस्ती और प्रपोगंडा के लिए बनी फुहड फिल्म का सर्टिफिकेट मिला है !”
अब रिचर्ड एटंबरो के टक्कर में और भाई राजकुमार संतोषी आप कहाँ बैठना चाहते हो ? एक हत्यारे का महिमामंडन करने का कोई औचित्य ? मध्य प्रदेश और केंद्र की सरकार आर. एस. एस. के राजनीतिक ईकाई होने के कारण और संघ भारतीय फासीवाद की भ्रष्ट नकल होने के कारण ! आर. एस. एस. के शाखाओं में गांधी जी के खिलाफ बदनामी की मुहिम शुरू से ही चलती है ! और नाथूराम उसी मुहिम का पैदाइश था ! और इसीलिये उसने गांधी की हत्या करने के बावजूद !(30 जनवरी 1948 के तुरंत बाद भले ही वह हमारे संघठन से अतिवादी विचारों का होने के कारण उसे निकाल बाहर किया था ! जैसा कोर्ट में बयान दिया है !वही बयान प्रज्ञा सिंह ठाकुर के मालेगांव विस्फोट में लिप्त होने की खबर देखने के बाद संघ के द्वारा उन्हीं शब्दों में दिया गया है ! और 2019 के भोपाल लोकसभा चुनावों के दौरान मैंने खुद अपनी आंखों से संघ के लोग प्रज्ञा सिंह ठाकुर के लिए चुनाव प्रचार में घर घर जाकर प्रचार कर रहे थे और उसी चुनाव में प्रज्ञा ने नाथूराम के तारिफ के पूल बांधे थे और महामना प्रधानमंत्री ने उन्हें जीवन में कभी भी माफी नही दी जा सकती कहा है ! इतना पाखंड शायद ही कहीं और होता होगा ! ) आज संघ के लोग नाथूराम का महिमामंडन करने का प्रयास कर रहे हैं ! आप लोगों को उसमे शामिल होकर देखने के बाद, विवेक अग्निहोत्री के बाद ! राजकुमार संतोषी भी संघ के गांधी विरोधी प्रचार प्रसार के लिये एक और, स्वयंसेवक मिल गया है ! लेकिन याद रखना यह भी दिन बदलने वाले हैं ! क्योंकि आजसे नब्बे साल पहले जर्मनी में हिटलर ने विधिवत 1930 से 1945 तक पंद्रह साल फासीवाद के प्रयोग के तहत लाखों यहुदीयो को मौत के घाट उतार दिया और उसके पहले इसी तरह डॉ गोएबल्स की मदद से जर्मनी के मिडिया संस्थाओं का इस्तेमाल किया है और ऐसे अग्निहोत्री और संतोषी उन्होंने भी खुब इस्तेमाल करने का इतिहास मौजूद है ! लेकिन 30 अप्रैल 1945 के दिन हिटलर को खुद अपनी कनपटी पर बंदूक रखकर अपने आप को समाप्त करने की नौबत आई है ! इतिहास बडा बेरहम होता है !
आज गत तिस – पैतिस सालों से, भारत के अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंदुत्ववादी तत्वो द्वारा आयोजित हमले हिटलर के देखा – देखी में ! फिर गुजरात के इक्कीस साल पहले के दंगों से लेकर ! आदित्यनाथ के द्वारा उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों घरों पर बुलडोजर चढा कर नष्ट करने की कृती ! फासीस्ट जर्मनी और झिअॉनिस्ट इस्राइल की याद दिला रहे हैं !
लेकिन जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष पद पर ! कई सालों से बैठे हुए श्री. अजगर वजाहत जैसे लेखक ने ! इस तरह की हरकतों में शामिल होने की बात बहुत ही हैरानी की लगती है ! वह गांधी की तुलना गोडसे से करते हुए ! गोडसे को बडा दिखाते हुए ! गांधी, नेहरू मौलाना आझाद जैसे लोगों को छोटे दिखाने की बात ! और वह भी अजगर वजाहत जैसे लेखक की कलम से ?
यह साल उनकी हत्या को, इस जनवरी में गिनकर पचहत्तर साल हो गये हैं ! और शायद राजकुमार संतोषी ने जानबूझकर 25 जनवरी 2023 को इस फिल्म को रिलीज करने की कृती की है ! उसके बावजूद गांधी जी के हत्यारों में से नंबर एक, नाथूराम 30 जनवरी 1948 के दिन 38 साल की उम्र का था (19 मई 1910 का जन्म!) नंबर दो के, नारायण आपटे (1911)नंबर तीन के विष्णू करकरे अनाथ था ! लेकिन अंदाजन वह भी अपने उम्र की चालिस से निचे था ! और चौथा नथूराम का छोटा भाई गोपाल गोडसे ! और पांचवां मदनलाल पहावा ! बटवारे के कारण विस्थापित होने के बाद, मुंबई में फटाका बनाने का काम करता था ! और इसने बीस जनवरी को, बिडला हाऊस के नौकरों के घरों की एक खिड़की से ! गांधी जी की प्रार्थना सभा पर, 20 जनवरी 1948 के दिन बम फेका था ! इन पांच में से पहले दो नाथूराम और नारायण आपटे को 21 जून 1949 फांसी की सजा दी गई थी ! और विष्णु करकरे गोपाल गोडसे, मदनलाल पहावा, शंकर किश्तैया को आजिवन कारावास की सजा सुनाई गई थी ! और दत्तात्रेय परचुरे और विनायक दामोदर सावरकर सबुतो के अभाव में छुट गए थे ! लेकिन कपूर कमिशन ने बाद में बताया “कि सावरकर के बारे में मुंबई और दिल्ली पुलिस ने जानबूझकर उन्हें बचाने के लिए विशेष रूप से कुछ तथ्यों की अनदेखी की है !” उदाहरण के लिए उन्होंने कोर्ट में कहा था ! “कि वह नाथूराम को नही पहचानते है !” जो कि नाथूराम अपने उम्र के उन्नीस साल के समय से 1929 में मॅट्रिककी परीक्षा में फेल होने के कारण ! और उसके पिताजी का तबादला रत्नागिरी के पोस्ट अॉफीस में होने के कारण ! तीन दिन के भीतर नाथूराम को पता चला कि ! विनायक दामोदर सावरकर भी गृहबंदी की सजा के कारण रत्नागिरी में ही है ! तो वह 1929 से रोज सुबह से, सावरकर को जिस घर में रखा था ! वहां जाकर रात को सोने के पहले ! अपने घर वापस आने वाले नाथूराम को ! सावरकर ने वह स्कूल में नही जा रहा था ! इसलिए उन्होंने उसे संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी पढाने के लिए विशेष रूप से मदद की है ! तथा उसकी एक ‘अग्रणी’ नाम की मराठी पत्रिका में सावरकर आर्थिक और लेखक के नाते मदद करते थे ! और वह कोर्ट में कहते हैं ! “कि मै नाथूराम को जीवन में कभी भी मिला नहीं हूँ !” और नथुराम भी अपने गुरु दक्षिणा के रूप में ही सही बचाने के लिए खुद भी कोर्ट में कहता है ! “कि मैं कभी भी सावरकर से मिला नहीं ?” शायद सावरकर ने अपने जीवन में एक डझन के आसपास, आतंकवादी हमले करने के लिए ! मदनलाल धिंग्रा से लेकर नथुराम तक ! अपने बैरिस्टरी की पढाई के ज्ञान का उपयोग, बगैर कोई प्रॅक्टीस कीए ! अपने आप को हर षडयंत्र से सहिसलामत बचाने के लिए ! विशेष रूप से इस्तेमाल किया है ! आखिरी आतंकी नाथूराम था ! लेकिन रत्नागिरी में अपने उम्र के उन्नीस साल का नाथूराम ! रोज बारह घंटे से अधिक समय सावरकर की सोहबत में रहने वाले को ! मै कभी मिला नहीं ! यह कोर्ट में सावरकर कहते हैं ! और नाथूराम भी उन्हें बचाने के लिए कहता है ! “कि हम कभी भी सावरकर को मिले नहीं ! और सरकारी वकील इस छुठ को लेकर कुछ भी नहीं बोला ! यह सब बहुत ही हैरानी वाली बात है ! उस समय श्री. मोरारजी देसाई मुंबई राज्य के गृहमंत्री थे ! और नगरवाला नाम के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सावरकर की संशयास्पद हलचलों को देखते हुए ! मोरारजी देसाई को सावरकर को हिरासत में लेने की इजाजत मांगी थी ! और मोरारजी देसाई ने इजाजत देना तो दूर की बात है ! उल्टा नगरवाला को धमकाया “की खबरदार सावरकर को हाथ भी लगाया तो ! ” मुंबई से लेकर दिल्ली तक के ! उन दिनों के सभी घटनाओं को देखते हुए, मुझे लगता है कि “संघ की स्थापना के समय से ही पुलिस से लेकर सेना तक अपने लोगों को घुसाने के कारण ! भी महात्मा गाँधी जी के हत्या करने के लिए विशेष मदद हुई है ! ”
पुराणों में विषकन्या की बात है ! उस तरह, सावरकर ने अपने जीवन में एक डझन से अधिक ! विष-युवक तैयार किए हैं ! यह पूर्व इतिहास मदनलाल धिंग्रा से लेकर, और भी कई लोगों को तैयार करने के लिए ही ! सावरकर को काला पानी की सजा सुनाई गई थी ! लेकिन हमारे कोर्ट और उसमे जिरह कर रहे वकिलो के आचरण को देखते हुए ! मुझे लगता है ! “कि गांधी हत्या के मामले में शुरू से लेकर आखिर तक ! कुछ गडबडी हुई है !” और इसी कारण नथुराम गोडसे के, तथाकथित नौ घंटा के निवेदन ! ( जो सावरकर ने ही लिखकर दिया था ! ऐसी मान्यता है ! )
और उसे मराठी से लेकर ! उर्दू – हिंदी के मुर्धन्य साहित्यकार श्री. असगर वजाहत तक के लोगों ने ! उसकी नाटकिएता को बढ़ा-चढ़ा कर ! पेश करने के कारण ! सभागार में कुछ प्रेक्षकोने तालियां बजाने की खबरें सुना हूँ !
हिंदुत्ववादीयो के तरफसे चलाए जा रही ! महात्मा गाँधी जी के खिलाफ बदनामी की मुहिम ! संघ के स्थापना के समय से लगातार जारी है ! लेकिन हमारे वामपंथी मित्र, श्रीमान असगर वजाहत तो शायद कम्युनिस्ट है ! हां एक संभावना हो सकती है ! कि कम्युनिस्टों ने भी महात्मा गाँधी जी के खिलाफ, बदनामी की मुहिम चलाने का इतिहास बहुत पुराना है !

उन्हें वह पूंजीपतियों के दलालों से लेकर साम्राज्यवादी तथा स्वर्णमानसिकता के हिमायती लगने के आरोप लगाए लेखन को मैंने खुद यशपालकी ‘गांधीवादकी शवपरिक्षा’ , से लेकर ई. एम. एस. नबुंद्रीपाद,बी टी रणदिवे तथा राहुल सांकृत्यायन, बिमल मित्र और अन्य वामपंथी लोगों ने ! लिखि हुई किताबों को खुद पढा है ! और मेरे संग्रह में गोपाल गोडसे की “गांधी हत्या और मै “तथा मनोहर मलगावकर की किताब “THE MEN WHO KILLED GANDHI” नाम से सिर्फ गांधी हत्या के मामले पर लिखा है ! जिसमें षडयंत्र करने वाले लोगों के पत्रों से लेकर ! उनके विमान के टिकट( नकली नाम से ) तथा होटलों में ठहरने के बिलो की भी फोटो कॉपी करके दिया है !


कम्युनिस्टों ने गांधीजी के बारे में काफी लंबे समय तक दुष्प्रचार किया है ! और उन्हें पूंजीपतियों के दलाल के रूप में प्रचारित किया है ! अब संघ के हिंदूत्व के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए ! कम्युनिस्ट गांधीजी के बारे में थोड़ा अलग राग अलाप रहे हैं ! लेकिन असगर वजाहत के जैसे लोगों की यह हरकत किस बात का परिचायक है ?
और वही गलती बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक नेता ! श्री. कांशीरामजीने पुणे की अपनी डिफेंस की नौकरी में रहते हुए (70 के दशक में) की है ! हमारे दोस्त और मराठी भाषा में सांप्रदायिकता और जाति-धर्म को लेकर बहुत ही गहन अध्ययन करने के पस्चात ! लेखन करने वाले मित्र ने ! मुझे व्यक्तिगत रूप से कहा “कि एक दिन अचानक कांशीराम मेरे पुणे के घर आकर कहने लगे ! कि मुझे मेरे राजनीति के लिए एक शत्रु मिल गया है !” तो मैंने पुछा कौन ? तो कांशीरामजीने कहा कि महात्मा गांधी ! तो मैंने पुछा की कैसे ? तो कांशीरामजीने कहा कि पूना पॅक्ट ! तो मैंने कहा कि अरेभाई पूना पॅक्ट में तो दलितों को डबल सिटे मिली है ! और खुद डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी की येरवडा जेल के बाहर ! पूना पॅक्ट पर हस्ताक्षर करने के बाद ! विजय के प्रदर्शन के तौर पर ! दो उंगलियों के फोटो इतिहास प्रसिद्ध है ! आप ऐसा कैसे गलत प्रचार कर सकते हो ? तो कांशीरामजीने ठंढे स्वरों में कहा “! कि राजनीतिक दलों को कोई न कोई शत्रु की आवश्यकता होती है ! और हमे गांधी जैसा इतना बड़ा शत्रु मिला है ! और हम उसके इर्द-गिर्द हमारे राजनीति का ताना – बाना बुनेंगे ! और आज वर्तमान हमारे – अपने सामने है ! कितने प्रकार के लोगों ने गांधी द्वेष का पालन किया है ?


हिंदुत्ववादीयो से लेकर मुस्लिम लीग ! दोनो सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीति करने वाले ! तथा कम्युनिस्ट ! जिन्होने आजादी के आंदोलन में 1942 तथा आपातकाल की घोषणा के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी को समर्थन देने का इतिहास ! और सबसे हैरानी की बात कम्यूनिस्ट पार्टी अॉफ इंडिया यह पहला राजनीतिक दल है ! जिसने 23 मार्च 1940 के मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव जिसमें बटवारे के समर्थन की बात की है ! और महात्मा गाँधी जी के खिलाफ बदनामी की मुहिम चला रहे थे ! सो अलग बात है ! लेकिन मेरा अजगर वजाहत जो हिंदू-मुस्लिम भाईचारा के हिमायती है ! और हमारे उपमहाद्वीप की नदियों से सौ सालों के दौरान इतना कुछ पानी निकल गया है ! कि आप क्या सोच रहे हो ? असगर वजाहत साहब, राजकुमार संतोषी तो एक सीनेमा वाले लोगों में से एक है ! वह अपने बिझनेस के लिए जो भी माल बिकाऊ है ! उसे लेकर बिझनेस करेंगे ! मुझे उनसे कोई उम्मीद नहीं है ! लेकिन आप एक प्रतिबद्ध लेखक ! और सबसे बड़ी बात आज इस देश की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वास्तविक स्थिति को देखते हुए ! क्या आपको लगता नहीं कि ? नाथूराम गोडसे के जीवन में महात्मा गाँधी जी के हत्या के अलावा और कोई भी योगदान न रहते हुए ? उसका महिमामंडन करने की कृती आप क्यों कर रहे हैं ? और कर रहे हैं ! तो फिर आपके हिंदू – मुस्लिम समस्या को लेकर चल रहे अन्य प्रयास नेकी कर दरिया में डाल वाली कहावत जैसा होगा !


अभी राजकुमार संतोषी के निर्देशन में बनी फिल्म काफी विवाद में है ! ऐसा देख रहा हूँ ! असगर वजाहत उस फिल्म के लेखक है ! असगर वजाहत के साथ मेरी जान पहचान सिर्फ उन्होंने लिखा हुआ साहित्य और आजकल, डिजिटल तकनीक के कारण चल रहे ! फेसबुक के माध्यम से कभी-कभी, हम दोनों एक-दूसरे से क्रॉस हो जाते हैं ! लेकिन गांधी और गोडसे को लेकर उन्होंने पहले नाटक लिखा है ! और उसी पर राजकुमार संतोषी ने फिल्म बनाई है ! इसके पहले मराठी में (मी नथुराम बोलतोय ! ) मतलब ! “मै नथुराम बोल रहा हूँ ! के” नाम से एक नाटक काफी विवादास्पद रहा है ! उसमे भी, और इस फिल्म में भी जाने – अनजाने में नाथूराम को महिमामंडित करने की कोशिश की है ! ऐसा आलोचना करने वाले लोगों का कहना है ! मैंने खुद नहीं मराठी नाटक पढा या देखा हूँ और नही राजकुमार संतोषी की फिल्म, या असगर वजाहत ने लिखा हुआ नाटक !
गुजरात यह उनका जन्म पोरबंदर में हुआ ! और 1869 को पैदा होने के बाद मॅट्रिक तक की पढाई करने ! और दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद कोचरब और बाद में साबरमती आश्रम की गतिविधियों के कुछ चंद समय को छोड़कर उनके 79 सालों के जीवन में गुजरात में रहने का समय बहुत कम है ! भारत के स्वतंत्रता संग्राम के कारण जेल और जेल से बाहर निकलते थे ! तो देश भर में प्रवास और चंपारण, सेवाग्राम तथा अन्य गतिविधियों में शामिल होने के कारण ! गाँधी जी गुजरात में पैदा हुए ! लेकिन अस्सी साल के जीवन में एक चौथाई हिस्सा भी ! गुजरात में रहने या कार्य करने का नहीं है ! इसलिए मुझे गांधी जी का गुजरात यह वाक्यप्रयोग ठीक नही लगता है !

कोचरब अहमदाबाद के करीबी गांव, आज अहमदाबाद का महत्वपूर्ण हिस्सा है ! 15 मई 1925 के दिन पच्चिस लोगों के साथ (दक्षिण अफ्रीका के पुराने साथी ) जिसमें तेरह तमील थे ! कोचरब के सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई है ! जिसमें जल्द ही दादाभाई दफदा नाम के शिक्षक जो ढोर जाती (मरे हुए जानवरों की चमड़े को निकालने वाली जाति!) के थे ! और अपनी पत्नी दानीबेन और छोटी बच्ची के साथ, कोचरब के सत्याग्रह आश्रम में रह रहे थे ! उन्हें लेकर विवाद शुरू हुआ ! जिसकी आगुआई कस्तूरबा कर रहीं थीं ! और गांधी जी ने उन्हें बताया कि वह आश्रम के बाहर जा सकती है ! लेकिन यह ढोर परिवार नही जायेगा ! मगनलाल गांधी और उनके पत्नी संतोक बेन ने भूकहडताल शुरू किया ! कि ढोर परिवार को आश्रम के बाहर निकाला जाए ! तो गांधी जी ने उसके जवाब में खुद भूकहडताल शुरू कर दिया ! तो मगनलाल और संतोक बेन अंत में मान गए ! लेकिन सबसे बडी समस्या खड़ी हो गई आश्रम को आर्थिक सहायता देने वाले अहमदाबाद के धनी लोगों ने ! आश्रम में ढोर परिवार के रहते हुए किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं करने की घोषणा ! के कारण जब मगनलाल ने बताया कि अब आश्रम को आगे चलाने के लिए पैसे नहीं है ! तो गांधी जी ने कहा “कि हम लोग ढोर बस्ती में रहने के लिए चले जायेंगे !” तो दुसरे दिन अंबालाल साराभाई खुद अपने कार में बैठ कर आए ! और तीन हजार रुपये की मदद देकर गए ! गांधी जी के खिलाफ बदनामी की मुहिम जिसमें वह जातिवादी थे ऐसा कहने वाले भी शामिल लोगों को इस उदाहरण से क्या लगता है ? उसमे कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोगों का भी शुमार है ! जो उन्हें जातीयवाद वादी कहते हैं ! उन्हें यह 1925 और उसके बीस साल पहले ! दक्षिण अफ्रीका में ( 1893-1915 – 22 साल ) अपने दोनों आश्रम फोनिक्स और टॉलस्टॉय में रहने वाले लोगों में शायद भारत के सभी जाति संप्रदाय तथा विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए मीनी इंडिया जैसे थे ! बचपन में किसी मेहतरानी के स्पर्श से उनकी मां ने उन्हें दोबारा नहलाने की कृती की सजा उन्हें जिवनभर देना कहा तक उचित है ?
मै खुद महाराष्ट्र के मराठा जाती में पैदा हुआ हूँ ! और बचपन में पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ने के समय ! मेरे साथ महार जाती के एक सहपाठी का ! बोलते हुए मेरे मुंह में थूक चला गया ! ऐसा मुझे लगा ! और यह बात मैंने अपने घर में आकर बता दिया ! तो मेरे परिवार के बुजुर्ग लोगों ने उस परिवार के सदस्यों को कितना भला – बुरा कहा ! इसका कोई हिसाब नहीं है ! आज भी वह प्रसंग याद करते हुए मुझे ग्लानी महसूस होती है !
लेकिन दस साल से भी कम उम्र में ! मैंने या किसी मोहन ने अपने बचपन के जीवन में ! हजारों वर्षों से चली आ रही उंचनिच की परंपरा के कारण ! अगर हममेसे किसी के भी तरफसे ! जातीयवाद की गलती हुई है ! तो क्या हम इस बात की पृष्ठभूमि बगैर समझें ! गांधी हो या सुरेश खैरनार को जिवनभर जातियतावादी करार देना ! कहा तक उचित है ?
वैसे ही फिल्म में उन्हें पचपन करोड़ रुपये देने के निर्णय को देखते हुए ! गोडसे ने वध किया है ! (वध शब्द का प्रयोग दुष्कर्म करने वाले रावण, कंस जैसे पौराणिक पात्र के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है !) जो संघ के लोग महात्मा गाँधी जी के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं ! लेकिन महात्मा गाँधी जी के हत्या तो पूना पॅक्ट के बाद ! पूणे के टाऊन हॉल जाते वक्त गांधीजी के गाडी पर बम फेक कर की गई है (1934),दुसरा प्रयत्न पूणे से मुंबई की सवारी रेलगाड़ी के मार्ग पर फिशप्लेट निकाल कर दिया है ! तिसरा प्रयास पाचगणी में नथुराम अपने साथियों के साथ गांधी जी के मिलने के समय अपने कपडो में छुपाया छुरा निकाल कर हमला करने की कोशिश का एक पहलवान गुरूजी ने समय रहते हुए ! उसे पकड़ लिया ! तो वह हमला बेकार गया ! चौथा प्रयास सेवाग्राम के आश्रम में रहते हुए किया है ! जिसे वर्धा पुलिस ने समय रहते हुए गिरफ्तार किया है ! यह सभी प्रयासों के समय नहीं बटवारे के चर्चा थी ! और नहीं किसी पचपन करोड़ रुपये की ! पाचवा प्रयास मदनलाल पहवा ने दिल्ली में 20 जनवरी 1948 के दिन ! बिड़ला हाऊस मे प्रार्थना के समय जो बेकार गया ! और छठवीं बार 30 जनवरी 1948 के दिन शाम को प्रार्थना के समय में जो यशस्वी हुआ है ! जिसके बाद संघ के लोगों ने महाराष्ट्र में सत्यनारायण की पुजा और मिठाईयों को बांटने के शेकडो उदाहरण ! 30 जनवरी के बाद हुए हैं ! और इस कारण पस्चिम महाराष्ट्र में सांगली, सातारा, कोल्हापूर और पुणे जैसे जगहों पर ब्राम्हणों के घरों पर हमले हुए हैं ! जिसमें कुछ कांग्रेस के ब्राम्हणों के भी घर थे ! जिनपर हमला हुआ है !
एक लेखक को अपने अभिव्यक्ति के लिए पूरी तरह से आधिकारो का मै समर्थन करता हूँ ! आखिर में मै आपातकाल की घोषणा के बाद ! ( 25 जून 1975 ) लगाई गई सेंसरशिप का विरोधी था ! और उस कारण जेल में बंद रहा हूँ ! लेकिन अगर कोई भी व्यक्ति इतिहास के तत्थो को तोडमरोडकर अगर उस विषय – वस्तु को लेकर लिखने, या मंचन करने की कोशिश करता है ! तो वह अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन है ! और इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की कृती को क्या कहेंगे ?
डॉ सुरेश खैरनार 2 मार्च 2023, नागपुर

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