उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हलचल काफी तेज है. समाजवादी पार्टी में घर का झगड़ा सड़क पर आ गया है. ऐसे में अखिलेश यादव को नज़्में याद आने लगी हैं. इसी बीच उन्होंने सार्वजनिक मंच से मेहंदी हसन की गज़ल की एक लाइन भी सुना डाली कि मोहब्बत में जुदाई का भी बहुत स्थान है. किससे जुदाई का? शायद अपने सगे चाचा शिवपाल सिंह यादव से जुदाई का. पारिवारिक तनाव भी ऐसी स्थितियां पैदा कर देते हैं, जिनकी मिसाल देते हुए मन हिचकिचाता है. अखिलेश यादव का बचपन और जवानी के शुरुआती दिन जब वे पढ़ाई कर रहे थे, शिवपाल सिंह यादव के घर पर ही ज्यादा बीता. उनके करीबी लोग बताते हैं कि शिवपाल सिंह यादव के घर पर खासकर उनकी पत्नी और बच्चों से अखिलेश यादव का बहुत ज्यादा अपनापन था. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद दोनों के घरों की दूरी जो सौ गज के आस-पास रही होगी, बढ़ते-बढ़ते सौ किलोमीटर में तब्दील हो गई.
परिवार के सभी सदस्य राजनीति में अपना-अपना प्रथम स्थान तलाश रहे हैं. मुझे लगता है कि मुलायम सिंह असहाय होकर अपने परिवार के हर सदस्य की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के परिणामस्वरूप होने वाले टकराव को देख रहे हैं. सिर्फ परिवार में धर्मेंद्र यादव ऐसे नजर आए, जिन्हें लेकर अभी तक कोई सरगोशी बाहर नहीं आई है. दूसरा नाम तेजप्रताप यादव का भी ले सकते हैं, लेकिन यह स्थिति कब तक रहेगी कहना मुश्किल है. सपाई तब भी थे, अब भी हैं, लेकिन वही सपाई आज तमाशा देखने की मुद्रा में हैं. ऐसे मेहंदी हसन की ही गज़ल की लाइनदोहराता हूं …अब तो ़खाक उड़ाने को बैठे हैं तमाशाई.
मायावती के यहां से लोगों के जाने का सिलसिला जारी है. आरके चौधरी मायावती को छोड़ गए. शायद अभी कुछ और लोग छोड़कर जाएं. उनके जाने से मायावती कमजोर होंगी या नहीं, फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन लोगों को लगता है कि शायद मायावती थोड़ी कमजोर होंगी.
सबसे बड़ी परेशानी कांग्रेस की है. शीला दीक्षित को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की चर्चा कांग्रेस में शुरू हो गई है. कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि वह अगला प्रदेश अध्यक्ष किसे बनाए या प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को बिना हटाए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे और कैंपेन कमेटी का सर्वेसर्वा किसी और को घोषित करे. स्वर्गीय जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की होड़ में काफी ताकत लगा रहे हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि प्रदेश में युवा चेहरा उन्हीं का है, जो दल को जीत दिला सकता है और राहुल गांधी का समर्थन भी उनकी तरफ रहेगा. पूरे प्रदेश के कार्यकर्ता प्रियंका गांधी को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में देखना चाहते हैं. लेकिन प्रियंका गांधी की मां और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी किसी भी कीमत पर उनको राजनीति में नहीं आने देना चाहती हैं. हो सकता है इसपर कोई समझौता हो कि प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार करेंगी. प्रियंका गांधी, शीला दीक्षित, जितिन प्रसाद और एक भूला-बिसरा नाम संजय सिंह का है, जिसे लेकर कांग्रेसियों में उत्साह है. पर शायद संजय सिंह को गांधी परिवार अभी क्षमा करने के मूड में नहीं दिखाई देता. कांग्रेस हाईकमान का संजय सिंह से कोई कम्युनिकेशन या संवाद नहीं है. आज की तारीख में कांग्रेस हाईकमान माने जाने वाले राहुल गांधी देश में नहीं हैं, विदेश में छुटि्टयां मना रहे हैं. प्रशांत किशोर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़े हुए हैं. उन्होंने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों को एक नया रास्ता दिखा दिया है. भारतीय जनता पार्टी ने भी ऐसे ही मैनेजर्स की एक टीम उत्तर प्रदेश में भाजपा को सक्रिय करने के लिए अपने साथ ले ली है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अभी तक मैनेजर्स के हाथ में नहीं गई हैं. पर हो सकता है समाजवादी पार्टी भी अंतत: राजनीतिक प्रबंधकों के हाथ में पहुंच जाए. ये राजनीतिक प्रबंधक रणनीति बनाते हैं. किस नेता को कब और कहां क्या बोलना है, वे तय करते हैं. किस कार्यकर्ता को किन क्षेत्रों में लगना है, ये बताते हैं. कुल मिलाकर अब वे सारे काम करते हैं जो पार्टी अध्यक्ष को करना चाहिए. यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहली बार होता दिख रहा है.
नीतीश कुमार का अभी उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई रोल नहीं है. उनकी दो सभाएं हो चुकी हैं और 16 जुलाई को उनकी सभा इलाहाबाद में है. बनारस और मिर्जापुर में हुई उनकी दोनों सभाओं में 10 से 15 हजार के आस-पास भीड़ थी, जो बेहतर मानी जा सकती है. नीतीश की सबसे बड़ी दुविधा उनका अपना संगठन है. नीतीश कुमार के पास उत्तर प्रदेश में कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसका मुकाबला उत्तर प्रदेश के स्थापित
नेताओं, चाहे वेे मुलायम सिंह होंे, मायावती या फिर भारतीय जनता पार्टी के राजनाथ सिंह से किया
जा सके.
जब तक नीतीश कुमार किसी ऐसे चेहरे को नहीं ढूंढ़ लेते, जिसमें उनका सामना करने की ताकत हो या जो वैचारिक आधार पर अपनी वाणी से मुलायम सिंह, मायावती और राजनाथ सिंह का मुकाबला तर्कों से कर सके, तब तक उनके लिए उत्तर प्रदेश में कोई संभावना नजर नहीं आती. नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं बन सकते, इसलिए उनके हिस्से में सिर्फ कैंपेन करना आने वाला है. उनकी पार्टी में सिर्फ वेे लोग हैं, जिन्होंने पिछले दस या पंद्रह सालों में पार्टी में कुछ नहीं किया. इस चुनौती का मुकाबला अगर नीतीश कुमार जुलाई खत्म होते-होते नहीं कर पाते, तो फिर अगर कोई गठजोड़ हुआ, जिसकी पूरी संभावना है, वे कांग्रेस के लिए कैंपेन करेंगे. हालांकि कांग्रेस के पास भी मुख्यमंत्री पद के लिए कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे देखते ही लोग कहें कि ये चेहरा उनकी समस्याओं को हल कर पाएगा. अभी तो ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस का चेहरा शीला दीक्षित होंगी, कैंपेन कमिटी के चेयरमैन संजय सिंह होंगे और प्रियंका गांधी कैंपेन करेंगी. लेकिन अगर प्रियंका या राहुल गांधी नीतीश कुमार के साथ अभी से हाथ नहीं मिलाते तो उनकी सीटों की संख्या 10 से 15 के बीच रह जाएगी. इस स्थिति में मायावती 300 से ज्यादा सीटें प्राप्त करेंगी. अब भी उत्तर प्रदेश में मायावती, भारतीय जनता पार्टी, मुलायम सिंह और कांग्रेस यही क्रम दिखाई देता है. यद्यपि सपा के कई सांसदों ने बताया कि मायावती पैसे देकर ये हवा फैला रही हैं कि सपा तीसरे नंबर पर आने वाली है. समाजवादी पार्टी अपनी स्थिति का आकलन ईमानदारी से नहीं कर पा रही है. एक बार ये लगा था कि शिवपाल यादव को उत्तर प्रदेश चुनाव की जिम्मेदारी मिलते ही समाजवादी पार्टी काफी तेजी से आगे बढ़ेगी और चोट करेगी, लेकिन शिवपाल की हैसियत खुद उनकी पार्टी ने घटा दी.
यूपी के तिलिस्म में सबसे नीचे के पायदान पर नीतीश कुमार का दल है, जो योजनाएं बनाते हुए यह भूल जा रहा है कि मुलायम भी बिहार के चुनाव में कैंपेन करने गए थे. तब यूपी के सारे मंत्री और कार्यकर्ता बिहार में लग गए थे, लेकिन उनका कोई भी प्रचार वोट के रूप में तब्दील नहीं हो पाया. ऐसा ही यूपी में नीतीश कुमार के साथ होता दिख रहा है. बिहार के लोग, बिहार के कार्यकर्ता, बिहार के मंत्री उत्तर प्रदेश में चुनी हुई जगहों पर लगे हुए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के लोग कहीं नहीं हैं. नीतीश के सामने यह खतरा है जिसे वे कभी समझने की कोशिश नहीं करेंगे क्योंकि कोई भी नेता अपने सामने आने वाले खतरे को देखना ही नहीं चाहता. वो खतरा है कि उत्तर प्रदेश में घूमेंगे, भीड़ होगी और वे घूमकर वापस बिहार चले जाएंगे.
शायद यूपी का चुनाव भाजपा के लिए वाटरलू साबित हो सकता है, कांग्रेस और मुलायम के लिए भी साबित हो सकता है. कौन अपने साथ विधायकों की कमी को पूरा कर सकता है, ये रणनीति देखने लायक होगी. सवाल है कि जिस तरह मुलायम को अनुमान से ज्यादा यूपी में सीटें मिलीं, क्या इस बार मायावती को अनुमान से ज्यादा सीटें मिल सकती हैं. अगर ऐसा है तो यूपी तमिलनाडु के रास्ते पर चल पड़ेगा, जहां बाकी लोग समझौते की आस में बैठे रह जाएंगे और या तो बसपा या सपा सत्ता के नजदीक पहुंच जाएगी.