“संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में रो रही थी
एक इराकी लड़की
उसके रोने से भर से जाग गई थी
कब्रों में साेई उन लड़कियों की आत्माएं
जिनकी देह पर उम्र से बड़े घाव थे।” अनामिका अनु (माई लाई गाँव की बच्चियों की कब्र-1968)
हिन्दी में प्रतिभाशाली कवियित्रियों की एक लंबी फेहरिस्त है; लेकिन अनामिका अनु की कविताएं संवेदनाओं की एक अलग अनुभूति लेकर आई हैं। उनके कविता संग्रह ‘इंजीकरी’ में लड़कियों के दर्द देश या प्रदेश भर से नहीं, पूरी दुनिया से प्रतिध्वनित होते हैं। इन कविताओं में स्त्री के अधिकारों, उसकी संवेदनाओं और उसके क्षतविक्षत हृदय के कई पहलू खुलते हैं। एक युवा स्त्री की इच्छाएं और उसकी अनुभूतियां इन कविताओं में किसी खू़बसूरत वाद्य की तरह बजती हैं। हम जानते हैं कि स्त्री को एक स्वतंत्र नागरिक की पहचान नहीं मिली है; क्योंकि समस्त धर्म और विचारधाराएं एक ख़ास तरह के पौरुषपूर्ण स्नायविक विकारों के शिकार हैं। इन कविताओं में कई जगह यह कवयित्री अपने आसपास और दूरदराज के अनुभवों को रागात्मक रूप देती हैं।
‘इंजीकरी’ की कविताएं रसोईघर के पात्रों से ब्रह्मांड तक और यीशु से युयुत्सा तक ध्वनित होती हैं। शब्दों के अर्थ की ऊर्जा कविताओं में जगह-जगह साफ़ दिखती है। कविताएं जैसे गीतों में गाई गई हैं। अर्थों की गंध जगह-जगह छितरी हुई है। शब्दों में जैसे जिजीविषा धड़कती है। एक ख़ास तरह की ऐंद्रिकता लिए ये कविताएं विज्ञान से जुड़ी चेतना के आख़िरी छोर तक पहुंचती हैं। ये कहीं उत्कंठा बुनती हैं, कहीं अनुभूतियां और कहीं कविता होने की सच्ची हिकमत का एहसास कराती हैं।
कविताओं में बहुत जगह लगता है कि कोई गा रहा है। कविता के क्रिस्टल रोशनी से तराशे हुए दिखते हैं। इनकी ऊष्मा इस शिशिर में कभी दहकाती है और कभी बहलाती है। साहित्य के निरंतर चीखते और शोरोग़ुल में डूबे इस समय में ये कविताएं सुखद आश्चर्य से भरती हैं। कुछ कविताओं में भौत्तिक विज्ञान इस सहजता से उतरकर आया है, मानो पानी की परत पर जलकण ठुमक रहे हों। अब कौन कल्पना करेगा कि कविता के पंखों पर रदरफ़ोर्ड का नाभिकीय सिद्धांत विस्मय से तैरता हुआ मिलेगा। कल्पनाशीलता से उपजी ऊष्मा पिता के पास प्रेम करने की अनुमति माँगने जाती है तो माँ तार पर से उड़ते सुग्गों को दिखाती है।
रिद्म और मेलोडी के बीच यात्रा करते शब्द मन के आयतन को स्थिर करते हैं तो अवसान के क्षण में प्रखरतम प्रेम के प्रखरतम होने का बोध भी कराते हैं। यह पीड़ादायी है या आनंददायी, यह सुकून देनी वाली बात है या ज़िबह करने वाली, इसे अपने-अपने अनुभवों से ही जाना जा सकता है। एक जगह पृथ्वी और धरती शब्दों का एक ही पंक्ति में सुंदर प्रयोग हुआ है : कई प्रकार की टूटन से जुड़कर ही धरती पृथ्वी हुई है।
इस कविताओं को पढ़ने के बाद किसी पुरुष को बहुतेरे पश्चाताप हो सकते हैं और हो सकता है कि वह इन्हें पढ़कर विचलित हो और अपने गालों पर आँसुओं को महसूस करे। आप दक्षिणपंथी संगठनों को छोड़ दें, स्त्री अधिकारों की वक़ालत करने वाले प्रगतिशील संगठनों को भी देखें तो उनमें स्त्री की उपस्थिति नगण्य है। पुरुष का स्त्री के बारे में जो वाग्जाल है, वह बहुत चातुर्य भरा है। वह एक ही स्त्री में माँ, बहन, पत्नी और पुत्री की तलाश करके उसे मानवीय दैहिक संदर्भों से पूरी तरह काट देते हैं। इन कविताओं में कई जगह ऐसे प्रश्न उठे हैं। इसकी भूमिका प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका ने बहुत संजीदगी तथा विस्तार से लिखी है ।प्रेम की लालसाओं और दु:ख की विकरालताओं के बीच भीगती आँखों वाली रात बरबस ज़ेहन में चमकने लगती है। संवेदनशील भाषा और काव्यात्मक अर्थबोध क्या ही सुंदरता बटोर कर लाते हैं।
एक्स्ट्रागैलेटिक ऐस्ट्रोनॉमी और ऑब्ज़र्वेशनल कोस्मोलॉजी के प्रवर्तक वैज्ञानिक एडविन हबल और काॅस्मिक माइक्रोवे बैकग्राउंड रेडिएशन के अन्वेषी वैज्ञानिक रॉबर्ट विल्सन को एक कविता में याद करना मेरे लिए अदभुत रहा है। आकाशगंगा के परे की गैलेक्सीज क्या प्रेम की तलाश ही नहीं हैं? मनुष्य के भीतर भी तो एक अंतरिक्ष है और उससे परे एक नेबुला। आॅसू, दु:ख, दर्द, पीड़ा और अवसाद की धूल के बादल ही तो अंतत: कविताओं में बदलते हैं। हमारी आँखों में इसी रात की तो चाँदनी दमकती है। हम जिन तड़ित रेखाओं को चूमते हैं, वह हमें प्रेम की अतल गहराइयों के भीतर ही तो ले जाता है। ये कविताएं एहसास करवाती हैं कि हम आँगन से दूर वन-वन भटकते शहर-शहर फैलते और दु:ख बटोरते लोग हैं। हम अपने आकाश को आँगन और अपने आँगन को आकाश बनाते हैं। समूचे भारतीय साहित्य में स्त्री कवियों की यह दशा असाध्य दूरियां तक करने के बाद भी यथावत है। इन कविताओं में कई ऐसी अपरिहार्य छलनाएं रेखांकित हुई हैं।
ये कविताएं हमें समय और संवेदनाओं के ऐसे अंधकार में प्रवेश कराती हैं, जहाँ विस्थापन सुख आैर कोमल त्वचा पर पंजों के निशान प्रेम कहलाते हैं। कविताएं ऐसी हैं कि हमारे सिर को कभी ठंडे जल में डुबोती हैं और कभी भौंचक अाँखों से नमक चटाती है। कुछ कविताअाें में ऐंद्रियिक विशिष्टताएं हैं तो कुछ में सौंदर्यात्मक सातत्य। कविताओं में फिगरेशन और ट्रॉपोलॉजिकल पहलू भी रेखांकनीय हैं। कहीं ख़ूबसूरत उपमाएं हैं तो कहीं मनोहारी रूपक हैं। एज़रा पाउंड ने लिखा है कि बिंब वह है, जो बुद्धि और भावना विषयक पूरे जटिल तंत्र को क्षण मात्र में प्रस्तुत कर देता है। एक कविता सम्मोहन का एक रुपहला रूपक माइटोकॉण्ड्रिया और इश्क का युग्म बनाता है। एक नन्ही सी दरार में इश्क की कब्र बनी है और दस उंगलियों आैर दो हथेलियों से अश्वशक्ति को रोकना नामुमकिन लगता है।
अनर्गल होती आत्मरत दुनिया में प्रेम ही अमिट हस्ताक्षर है। गहरी साँसें हैं और भाप बनकर उड़ते उच्छवास हैं। ऐसे में ‘हॉप’ कविता की यह पंक्तियां कुछ नया लेकर आती हैं : ‘मेरे लिए स्वतंत्रता का मतलब प्रेम भी है। शायद इसलिए सैंतालीस तारों वाला हार्प प्रेम का वाद्य है।’ स्वरों का सूंघना, स्वप्न का सुनना और स्वाद का देखना चाँद को मापने में बदलना है। ये कविताएं बताती हैं कि प्रेमियों को गुदगुदाती कोमल ध्वनि के भीतर अपनी अनुभूतियां किस तरह विद्यमान रहती हैं। और ये अनुभूतियां गहरे तक उतरती हैं आैर कई बार तो लगता है कि ये उंगलियां पकड़कर पाठक को ऐसी जगह ले चलने को बेताब करती हैं, जहाँ ‘पेड़ को मिट्टी बनने के लिए गलना होता है’।
आज जो प्रकट शक्तियां हैं, जो पहले से चली आ रही अव्यवस्था को और अव्यवस्थित कर रही हैं, आैर देश की जो कराह है, उसे सुनने वाली कर्णेंद्रियों को बधिर बनाने को आतुर हैं, उन्हें जीवनद्रोही रेखांकित करना कम साहस की बात नहीं है। कवयित्री एक जगह लिखती हैं, ‘राजा निंदनीय हो सकता है, देश नहीं।’ वह एक जगह चेताती हैं, ‘मिट्टी पर कई तरह के पेड़ उगते हैं। पेड़ पर नहीं उगती मिट्टी।’
लेकिन ‘छाया वृक्ष की लिखी कविता है’, में मानो संवेदनाओं की ढेर सारी ऊष्मा उतर आई है। ‘तुमने प्रेम में कितनी बार कहा था मेरी हर कोशिका में एक आँख है, जो तुम्हारा रंग देखकर खुली रह जाती है’। ‘…मैं कोलेरेडो नदी बनना चाहती हूँ, तुम उसके पास ही उगना। जब गिरना तो उसके आरपार ही पुल बनकर। मैं बंधना चाहती हूँ।’
एक कविता मैं पूरा वृक्ष इस कवि के भीतर के साहसी को ला बाहर करती है। ‘मैं सिर्फ़ खोह नहीं, पूरा वृक्ष हूँ। मैं सिर्फ़ योनि नहीं, जहाँ मेरी सारी इज़्ज़त और पवित्रता स्थापित है।’ ‘….मेरे खोह से बहते लाल रक्त को अपावन मत कहना। इसमें सृजन की आश्वस्ति है। इसमें सततता का गर्व है। यह बस यों ही लाल नहीं। इसमें जीवन की हुँकार है। प्राण उगाने की शक्ति है। ये सुंदरतम स्राव है मेरा। जीवन से भरा। मैं यह भी मानती हूँ, सब कुछ यही नहीं है मेरा। इससे बहुत अधिक हूँ मैं। …मैं सिर्फ़ खोह नहीं, पूरा वृक्ष हूँ।’
एक कविता ‘मेरे सपने में एक मज़दूर आता है’, में का एक अंश देखें : ‘उसके कड़े रूखे हाथों को छूते ही मेरे भीतर एक प्रस्तर क्षेत्र गूँथा मुलायम आटा हो जाता है।’ ‘….मैंने आने नहीं दिया सपनों में राजकुमारों को…मुझे अभिनेता और नायक में फ़र्क़ पता था।’ इसी तरह एक अन्य कविता में ‘पाप जिस भव्यता से आता है, तुम नहीं आ पाते’। यह कविता संग्रह ‘सुनहरे तीतरों से लड़कियों के मिलने के बाद’ अनुभूतियों को आकार देते हुए ‘स्त्री होने का मातम’ भी मनाता है और पिता और बिल्लियों की पदचाप के अंतर को भी रेखांकित करता है। एक स्त्री दालान मांगते हुए कितनी मार्मिकता से कहती है कि मुझे घर दे दो। विदाई तुम रख लो। मुझे नौकरी, विश्वविद्यालय, खेत की जोत, पुस्तकालय, बैठकी, दालान और मोटरसाइकिल दे दो और बदले में तुम रसोई, उपला-गोबर, तुलसी चौरा, भगवती घर, विवाह, पॉर्लर और स्त्री के रूप मेें देवी होने के समस्त सुख और देवत्व रख लो! ‘प्रेम अव्यक्त पीड़ाओं का कोश’ इस तरह युवा हृदयों के कितने करुण पक्ष को सामने लाता है।
कुछ पंक्तियां देखिए : ‘मैंने जन्म और मृत्यु के बीच एक यात्रा की है जिसमें कुछ भी स्थायी नहीं था’, ‘तुम्हारी मुस्कान और मेरे पसीने की बूँद जैसी’, ‘बेशकीमती चीज़ें भी खर्च हो गईं ज़िंदगी बहुत महंगी मोल ली थी मैंने। यही है जो मेरे पास बच गया है।’ प्रसिद्ध कवि अनामिका ने अनामिका अनु के बारे में यह सही लिखा है कि ‘कौन कवि कितनी बड़ी उठान का कवि सिद्ध होगा, इसका आभास उसके पहले कविता संग्रह की हकासी-पियासी, सारे तटबंध तोड़ती आवेगधर्मिता से तो लगता ही है, उसके विषय वैविध्य उसकी अंत:पाठीय गपशप, उसकी कम-सुख़नी और भाषा के सभी रजिस्टर तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज-सब अंतरंग भाव से बरत पाने की उसकी क्षमता से भी होता है। इन सभी निकषों पर अनामिका की कविताएं खरी उतरती हैं। इसलिए मैं उनकी ओर उम्मीद से देखती हूँ।’
वह एक कविता में बहुत आत्मजयी ढंग से खुलती हैं और जब कहती हैं : ‘एक उछलती लहर को जाँघों के बीच खेलने की इज़ाज़त देना, एक सकपकाई छटपटाती आग को बूँदों की उंगलियाँ पकड़ना’ तो साफ़ लगता है कि यह साहसिक उड़ान आने वाले समय में अँधेरों को चीरेगी। उनके विषय इतने विविध हैं कि वे ‘पहले से ही वीभत्स है बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास’ के बारे में भी मुखर हैं और बहुत से पुरुषोचित धत्कर्मों को वह ‘चमड़ी को उतारकर हैंगर में टाँगना’ या ‘आँखों का खोपड़ियों से टपककर छातियों पर चिपकना’ को अंकित करना नहीं भूलतीं। मनुष्य के लक्ष्यहीन ऐंद्रिक विचरण और उपभोगवाद के असह्य सम्मोहनों पर भी वह बहुत कुछ कहती हैं। केरल में रहकर वहाँ के सुरम्य वातावरण को जीना और बचपन से बड़े होने तक बिहार में पढ़ी फिज़िक्स के सूत्र उसके लिए कविता में भी घनघोर निराशा को बल और ऊर्जा में परिवर्तन करते हैं।
आइए ये भी जान लें कि इंजीकरी है क्या
इस काव्य पुस्तक में कहीं यह उल्लेख नहीं कि इंजीकरी क्या है? तो हमने कवि से पूछा तो वे बोलीं : अदरक की ऐसी करी, जो मिट्टी के पात्र में बनती है। उसमें गुड़, इमली, नमक और मिर्च, नारियल का दूध आदि जैसी कई चीज़ें होती हैं। इसमें सभी स्वादों के अवयव होते हैं। यह जिस पात्र में जिस धीमी आँच में जिस तरह पकती है, वह किसी भी स्वाद काे मारती नहीं है। मेरे लिए इसके कुछ ख़ास वैचारिक और दार्शनिक अर्थ हैं। पहला तो यह कि मेरे ख़याल से जो भी व्यक्ति लिख रहा है, पढ़ रहा है, बोल रहा है, सोच रहा है, समझ रहा है और जी रहा है, वह अपनी संपूर्णता के साथ है। कोई किसी का स्वाद नहीं मारता। हम एक साथ एक वैचारिक यात्रा में, एक बौद्धिक यात्रा में, तरह-तरह की लेखन शैलियों में रहें और तरह-तरह के बौद्धिक पात्रों में पक रहे शिल्प वाले लोग हैं। हम किसी का स्वाद नहीं मारते हैं। तो मैं इसी इंजीकरी की कल्पना के साथ ये कविताएं लाई हूँ। हम पूरे देश में जो लिखने वाले लोग हैं, हम किसी का स्वाद मारने नहीं आए हैं। आप कुछ भी अनर्गल और अव्यावहारिक खा लो, इंजीकरी सब कुछ पका देती है। कुछ भी जो इरेशनल हो रहा है, जो अतार्किक हो रहा है, उसे यह पचाने की ताकत रखती है। एक मैं यह कहती हूँ कि इंजीकरी एक हजार करी के बराबर है।
तो कविता के ज़िक्र पर वे बोलीं : …उत्तर भारत में आज ख़ूब कविता लिखी जा रही है, लेकिन जो दक्षिण में लिखा जा रहा है, आप उसकी शैली, उसके शिल्प और उसके भूगोल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। इस तरह यह केरल की एक दस्तक है।
अनामिका अनु बताती हैं : इंजीकरी को लेकर एक बड़ी अच्छी कहानी है। एक बार एक बहुत बड़े विद्वान यात्रा पर निकले। वे कहते, मैं तो विद्वान हूँ। मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा। स्त्रियां तो मन का हरण करती हैं। मैं तो उनसे प्रभावित नहीं होता हूँ। मैं तो संयम का जीवन जीता हूँ। रास्ते में उन्हें भूख लगी तो वे एक व्यक्ति के घर गए। उनकी बेटी बहुत सुंदर थी। उसने खाना बनाया। परोसा। विद्वान ने इस दौरान जितनी बातें कीं, वे परिवार के लोगों को मुग्ध कर गईं। उन्होंने सोचा, इतना विद्वान और ज्ञानवान मनुष्य तो कहीं दिखाई नहीं देता है। यह तो बहुत ही दुर्लभ है। सुंदर भी इतना है। सुशिक्षित भी इतना है। क्यों न इससे अपनी बेटी की शादी कर दें। पिता ने कहा, मेरी बेटी बहुत सुंदर, सौम्य और गुणवती है। क्यों न आप उससे शादी कर लें। विद्वान भी उस युवती को देखकर विचलित हो चुका था। लेकिन वह शादी और स्त्री के बंधन में नहीं पड़ना चाहता था। वह भाग रहा था। उसने पूछा, यह सुशिक्षित है और दिखने में भी अच्छी है; लेकिन क्या आपकी बेटी को खाना बनाना आता है? चे बोले, जी बिलकुल आता है। तो विद्वान ने चालाकी दिखाई, मुझे तो अभी निकलना है और अगर वह मुझे अभी-अभी एक हज़ार करी बनाकर दे देगी तो मैं उससे विवाह कर लूंगा। उसने सोचा कि वह तो कुछ क्षण में निकलने वाला ही हूँ और इतनी देर में तो कुछ बन ही नहीं सकता। तो वे अपना सामान समेटकर जाने को हुए तो युवती ने ही रोका, आप भूखे क्यों जा रहे हैं? आपने तो मुझे एक हज़ार करी बनाने को कहा था। विद्वान जब खाना खाने बैठा तो उसने देखा कि थाली में भात परोसा हुआ है और उस पर करी डली हुई है। विद्वान ने पूछा, यह क्या है? तो युवती ने कहा, खाकर देखिए। उसने खाया तो वह खाता ही रह गया। और बोला कि यह आपने कैसी करी बनाई है? यह तो हज़ार करी के बराबर अकेली ही है। युवती बोली : इंजीकरी!!!
(समीक्षक : हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं और जानेमाने पत्रकार हैं।)
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किताब का नाम : इंजीकरी (काव्य-संग्रह)
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन (रज़ा फाउंडेशन के सहयोग से)
कवि : अनामिका अनु