यूजीसी ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने को उत्साहित करते हुए दो शर्तें लगाई हैं: वे कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जो ‘राष्ट्र हित’ या भारत में शिक्षा के “स्टैंडर्ड” को क्षति पहुँचाए। इन्हें क्षति पहुँचानेवाला पाठ्यक्रम या शिक्षा का कोई कार्यक्रम या कोई गतिविधि वे अपने परिसर में नहीं चला सकेंगे। भारत में शिक्षा का क्या “स्टैंडर्ड” रह गया है जिसे कोई नुक़सान पहुँचा सकता है?
“देश ने देख लिया कि हॉर्वर्डवालों की सोच क्या होती है और हार्ड वर्क वालों की सोच क्या होती है…” क्या यह बयान आपको याद आया जब आपने पढ़ा कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने देश में येल, हॉर्वर्ड, ऑक्सफ़ोर्ड जैसे श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के परिसर खोलने का निर्णय किया है? हॉर्वर्ड की शिक्षा और उसके ज्ञान की खिल्ली उड़ानेवाला यह बयान उन्हीं नरेंद्र मोदी का था।
नरेंद्र मोदी ने यह पहली बार नहीं किया था। जब वे ख़ुद को प्रधानमंत्री के रूप में जनता के सामने पेश कर रहे थे तब भी उन्होंने तमिलनाडु की एक सभा में लोगों से कहा था, “असल में हार्ड वर्क हॉर्वर्ड से ज़्यादा पावरफुल होता है।” https://rb.gy/rhk70k
यह विषयांतर है लेकिन मैं अंग्रेज़ी के शब्दों को ज्यों का त्यों रख देने के लिए माफ़ी माँगूँ उसके पहले यह बतलाना चाहता हूँ कि यह भारत के राष्ट्रवादी, हिंदीवादी प्रधानमंत्री की हिंदी है। इससे भाषा के प्रति उनके नज़रिए का पता चलता है। तुकबंदी और अनुप्रास के लोभ में अकसर अंग्रेज़ी की छौंक लगाने की आदत उन्हें है।
अब हम विषय पर लौट आएँ। हाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भारत में श्रेष्ठ विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर खोलने की नीतिगत घोषणा की। इसे भारत का मीडिया क्रांतिकारी निर्णय बतला रहा है। जो सरकार ज्ञान मात्र को फ़िज़ूल मानती है और राष्ट्र निर्माण के लिए हॉर्वर्ड से ज़्यादा हार्ड वर्क का महत्व जनता को बतलाती है, वह ज्ञान के श्रेष्ठ केंद्रों को भारत में लाना चाहती है, इस बात को जो गंभीरता से लेते हैं, उनकी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है।
और आज की तारीख़ में जो मानता है कि यूजीसी शिक्षा की गुणवत्ता के लिए गंभीर है, उसे मूर्ख नहीं भोला कहा जा सकता है क्योंकि जिस यूजीसी ने देश में उच्च शिक्षा को तहस-नहस कर दिया है, वह अब भारतीय छात्रों को श्रेष्ठ शिक्षा देने के लिए विदेशी विश्वविद्यालय लाना चाहती है, यह देश के साथ क्रूर मज़ाक़ नहीं तो और क्या है?
यूजीसी ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने को उत्साहित करते हुए दो शर्तें लगाई हैं: वे कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जो ‘राष्ट्र हित’ या भारत में शिक्षा के “स्टैंडर्ड” को क्षति पहुँचाए। इन्हें क्षति पहुँचानेवाला पाठ्यक्रम या शिक्षा का कोई कार्यक्रम या कोई गतिविधि वे अपने परिसर में नहीं चला सकेंगे।
हमारे यहाँ के विश्वविद्यालय केंद्रीय परीक्षा के ज़रिए दाख़िला लेंगे, यानी वे अलग-अलग अपने लिए तय नहीं कर सकते कि दाख़िले का तरीक़ा क्या होगा। सीयूईटी की तबाही सारे छात्र और विश्वविद्यालय झेल चुके हैं। अब उसको स्नातकोत्तर स्तर पर भी लागू करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन इन विदेशी विश्वविद्यालयों को इससे छूट होगी। क्यों? क्या भारत के विश्वविद्यालय भरोसे के काबिल नहीं रह गए हैं? या विदेशी भारतीयों के मुक़ाबले अधिक विश्वास योग्य हैं?
यही बात पाठ्यक्रम के बारे में है। यूजीसी ने पिछले सालों में विश्वविद्यालयों के स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम को केंद्रीकृत कर दिया है। एक ही क़िस्म का पाठ्यक्रम जो यूजीसी बना रही है, सबको लागू करना है। लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय इस मामले में भी स्वतंत्र होंगे। फिर जो सवाल हमने पहले किया था, वह लौट कर सामने आता है।
शिक्षा के “स्टैंडर्ड” की रक्षा के नाम पर यूजीसी ने दाख़िले और पाठ्यक्रम, दोनों मामलों में भारतीय विश्वविद्यालय की स्वायत्तता छीन ली। फिर बाहर के विश्वविद्यालय इन मामलों में स्वायत्त होंगे तो “स्टैंडर्ड“ की रक्षा होगी या उसे क्षति पहुँचेगी?
भारत की नई शिक्षा नीति इन विदेशी विश्वविद्यालयों पर क्यों नहीं लागू होगी अगर वह भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए गुणकारी है? क्यों गणित, रसायन शास्त्र या भौतिक शास्त्र में भारतीय ज्ञान परंपरा के अंश डालेंगे? क्या वे वैदिक गणित पढ़ाएँगे या नहीं? अगर राष्ट्र हित और शिक्षा के स्टैंडर्ड के लिए यह अनिवार्य है तो विदेशी विश्वविद्यालय इससे वंचित क्यों किए जा रहे हैं?
क्या विदेशी विश्वविद्यालय एके रामानुजन की रचना “तीन सौ रामायण” पढ़ा सकेंगे? क्या वे निवेदिता मेनन या दिलीप सीमियन को अपने सेमिनार में बुला कर कश्मीर पर सेमिनार करवा सकेंगे? अगर वे ऐसा करें तो क्या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) अपने राष्ट्रवादी रोष से उन्हें छूट दे देगी और वहाँ हिंसा नहीं करेगी? क्या ऐसा निर्देश एबीवीपी या बजरंग दल को दिया गया है कि वे विदेशी विश्वविद्यालय के अध्यापकों को नहीं पीटेंगे? क्या राष्ट्रवादी संगठन उनपर मुक़दमे नहीं करेंगे?
ज्ञान का राष्ट्रवादीकरण अगर भारतीय विश्वविद्यालय के लिए अनिवार्य और लाभप्रद है तो विदेशी विश्वविद्यालय के लिए क्यों नहीं? आख़िर छात्र तो भारतीय ही होंगे? भले ही वे पैसेवाले हों, उन्हें उस लाभ से क्यों वंचित किया जाए जो भारतीय विश्वविद्यालय के छात्र को दिया जा रहा है?
यूपीए सरकार ने दिया था प्रस्ताव
इन प्रश्नों के साथ व्यावहारिक प्रश्न तो हैं ही। विदेशी विश्वविद्यालय को भारत लाने का प्रस्ताव पहली बार नहीं दिया जा रहा है। काँग्रेस नीत सरकार ने भी यह प्रस्ताव दिया था। उसने 2010 में इसके लिए एक विधेयक भी तैयार कर लिया था। उस समय इस पर ख़ासी बहस हुई थी।
सरकार को बतलाया गया था श्रेष्ठ विश्वविद्यालय को श्रेष्ठ बनने में लंबा वक्त लगता है। वह एक इतिहास और भूगोल में पल्लवित होता है। अकारण नहीं है कि सदियों पुराने ऑक्सफ़ोर्ड ने किसी दूसरी जगह अपने परिसर की बात नहीं सोची। दुनिया के दूसरे देशों में भी, जहाँ भारत की तरह केंद्रीकरण और नियंत्रण नहीं है, उन्होंने अपने परिसर नहीं खोले हैं। इसका मतलब कि एकाध जगह छोड़ दें, दुनिया में कहीं इसका उदाहरण नहीं है।
2010 में, जब इस विषय पर बहस शुरू हुई थी और भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया था, बाहर के विश्वविद्यालयों ने कहा था कि उनकी ख़ुद इसमें रुचि नहीं है। उन्होंने कहा था कि भारतीय विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर तो वे काम कर सकते हैं लेकिन यहाँ स्वतंत्र परिसर खोलकर अपनी गुणवत्ता बनाए रखना उनके लिए संभव नहीं है। 2015 में भी इन विश्वविद्यालयों ने यही बात दुहराई थी।
ऑक्सफ़ोर्ड या हॉर्वर्ड के ज्ञान का अनुभव इंग्लैंड या अमेरिका के उनके परिसर में ही मिल सकता है। वह मात्र उनके पाठ्यक्रम में नहीं है। श्रेष्ठता का पूरा अर्थ यही है।
इसके अलावा जिन देशों में ऐसे विश्वविद्यालयों ने अपनी शाखा खोली है, वहाँ की सरकारों ने उसमें भारी आर्थिक निवेश किया है। ज़मीन और बाक़ी संसाधन में भारी रियायत या मदद के बिना कोई क्यों कहीं जाए? तो क्या भारत सरकार जो भारत की उच्च शिक्षा से हाथ खींच रही है, बाहर के विश्वविद्यालयों को पैसे देगी? क्या बाहर के विश्वविद्यालय, अगर उन्होंने आना तय किया, भारत में पैसा कमाने आएँगे या भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ाने? उत्तर कठिन नहीं है।
‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इमेनेंस’
कुल मिलाकर यह नई घोषणा एक नई शोशेबाज़ी से अधिक नहीं। प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि इस नई घोषणा के गुणगान के पहले पूछना चाहिए कि ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इमेनेंस’ के दावे का क्या हश्र हुआ। जिस दिन इस सरकार ने एक अजन्मे ‘जियो विश्वविद्यालय’ को ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इमेनेंस’ का तमग़ा दे दिया था, उसी समय समझ लेना चाहिए था कि इस सरकार के शब्दों के असल मायने क्या हैं। दुर्भाग्य यह है कि उस समय हमारे बहुत सारे मित्र उस बिल्ले की आस में फिर भी क़तार में खड़े थे।
लेकिन मैं तो ऐसी हर घोषणा के बाद यही पूछता हूँ कि जिस सरकार का काम देश में असत्य और घृणा का प्रचार है, कमज़ोरों, ग़रीबों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा है, उससे हम किसी के लिए भी किसी भले काम की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।