आदिपुरुष फिल्म पर हंगामा बरपा है। कोई पूछे ऐसा क्या हो गया है यह तो एजेंडे के मुताबिक ही था। नौ सालों के बाद तो हम सबकी भाषा यही हो जानी चाहिए थी। मैंने एक प्रयोग किया। फेसबुक पर लिखा – ‘तेरे बाप की जली क्या’ । तो कमेंट आए सर, आपसे ऐसी भाषा की उम्मीद नहीं थी। मुझे बड़ी हैरानी हुई कि अभी भी कौन हैं जो शालीन भाषा की राह जोटते हैं। हमें तो अभिभावक सरकार सिखा रही है कपड़े चाहे बिकनी समान हो जाएं लेकिन ‘तेरे बाप की जली’ जैसी भाषा की तो आदत बोलने और सुनने में डाल ही लेनी चाहिए। दरअसल यह फिल्म एक प्रयोग है लेकिन कमजोर दिमाग के आदमी से जैसी चूंके हो जाया करती हैं वैसी ही यहां भी हो गई। लिख दिया तो लिख दिया। शायद इनाम मिल जाए । मनोज मुंतशिर को सपने में गब्बर सिंह का वह डायलॉग याद आता होगा – क्या सोच कर आए थे सरदार बहुत खुस होगा .. बहुत इनाम देगा। गब्बर की आगे की गाली से नींद न उड़ जाए तो कहिए। पांसा उल्टा पड़ गया। तैयारी तो पूरी थी । सारे भाजपाई मुख्यमंत्रियों की स्तुति भी थी । पात्रों के नाम भी बदल दिए थे। खुर्राटपन सबमें था। सीता सेक्सी थी। पर दर्शकों की तो हमेशा भेड़ चाल होती ही है। चाहे वह सरकार चुनने में हो या किसी फिल्म को गिराने, चढ़ाने या गाली देने में। एक बार ठान लिया कि हमारे आराध्य पात्रों की तौहीन है तो, है । सारे मुख्यमंत्री , भाजपाई और बजरंगी सब कोटर में घुसे हैं। जनता लताड़ रही है। किसी को दरअसल कुछ समझ नहीं आ रहा। जैसे इस फिल्म पर हुए कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ में हर कोई अपनी अपनी बात में लगा रहा और दूसरे की काटता रहा। कमलेश पांडेय ने कहा यह फिल्म बंपर पैसा बनाएगी तो अजय ब्रह्मात्मज ने काट दिया कुछ नहीं सोमवार से गिरने लगेगी । अजय जी ने कहा यह तय हो गया कि दक्षिण पंथी विचार के फिल्मकार अच्छी फिल्में नहीं बना सकते तो धनंजय ने तुरंत इस बात को काट दिया। जवरीमल पारेख रामायणों की सुनाते रहे। हमें उलझन होती रही कि भैया यह तो रामायण है ही नहीं तो आप रामायणों की गाथा क्यों सुना रहे हो । पर बेचारे अमिताभ को तो कार्यक्रम करना था, सो किया। पर अजय ब्रह्मात्मज की इस बात से तो हम भी सहमत हैं कि दक्षिण पंथी विचार के फिल्मकारों को सही में नहीं आती फिल्में बनानी । आएं भी कैसे अगर दिमागों का विस्तार और व्यापकता न हो । कोई शुतुरमुर्ग की तरह जमीन को देखते देखते सिर ही गाड़ ले तो क्या हो ।
2024 के बाद क्या होगा इसे भविष्य के गर्भ में कहने से ज्यादा अपनों की बुद्धि, गणित और कैमिस्ट्री की बात कहिए। किसी भी सरकार का आना जाना गणित और कैमिस्ट्री पर होता है पर यह सरकार सिर्फ गणित के अंकों को जानती है। नंबर नहीं आए तो गुंडई से छीन लेंगे। राज्यों में भले कुछ हो लोकसभा चुनाव में तो हार कतई बर्दाश्त नहीं। यह गुंडई देशव्यापी चल रही है। इसीलिए आदिपुरुष को बनाने वालों में ऐसी हिम्मत आई। तो हैरानी नहीं। जरा से पिटे हैं, आशीर्वाद तो फिर भी बना है। जो शख्स प्रधानमंत्री से बिना एपॉयमेंट लिए पैंतालीस मिनट मिल सकता है उसकी कल्पना कीजिए। यह तो वैसा ही हुआ जैसे जब तक सूरज चांद रहेगा तेरा मेरा साथ रहेगा। इसी की अगली फिल्म को मोदी प्रमोट करेंगे, मान कर चलिए।
जब से आशुतोष छुट्टी पर गये हैं तब से देख रहा हूं उनके कार्यक्रम में चर्चा के विषय अलग और महत्वपूर्ण हो गये हैं। किसी एक दिन होता तो अलग था लेकिन रोजाना बदले विषयों पर प्रभावशाली लोगों के साथ कार्यक्रम शरत प्रधान ले रहे हैं। ऐसा क्यों और कैसे हैं, सोचिए। आलोक जोशी की चर्चाएं सुनने लायक होती हैं। इधर तो नीलू व्यास ने भी अच्छे लोगों को बुलाना शुरु किया है। आदिपुरुष के कार्यक्रम में विनीत कुमार को सुनना अच्छा लगा। परेशानी मुकेश कुमार के कार्यक्रमों को लेकर होती है अक्सर। पता नहीं उनके पास नये लोगों की कमी क्यों है। घूम फिर कर वही वही नाम । किसी किसी दिन जोरदार होते हैं। कल गोरखपुर की गीता प्रैस को गांधी शांति पुरस्कार मिलने पर कार्यक्रम था। पैनलिस्ट बताए जा रहे थे कि गांधी शांति प्रतिष्ठान का पुरस्कार है । गनीमत है कि मणिमाला ने उनको सुधारा। वरना पूरे प्रोग्राम में दर्शक और श्रोता यही समझते कि गांधी पीस फाउंडेशन ने पुरस्कार दे दिया। मुकेश कुमार मणिमाला को बता रहे थे कि गांधी जी पर और भी हत्या के प्रयास हुए थे। उन मणिमाला को जिनका समूचा जीवन गांधी को पढ़ते समझते बीता है। बीच में बोलने की आदत अगर जरूरत से ज्यादा हो तो ऐसा ही होता है। मैं मुकेश कुमार के कार्यक्रमों से हमेशा प्रभावित रहा हूं लेकिन इधर उनके विषय देख कर फिर पैनलिस्ट देख कर मायूसी ही नहीं कुछ गुस्सा भी आता है। फिर भी परसों नौ बजे विपक्ष का विषय देख कर कुछ बोरियत हुई लेकिन देखा तो विनोद शर्मा के साथ इंटरव्यू था। बढ़िया इंटरव्यू। जिसकी बधाई मैंने मुकेश कुमार को दी थी। आग्रह है कि या तो प्रोग्राम कम करें या जोरदार विषयों पर जोरदार लोगों से सिर्फ इंटरव्यू लें । नीलांजन मुखोपाध्याय से आशुतोष ने इंटरव्यू लिया था। गजब था। मोदी और संघ को ठीक से समझने के लिए महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं। श्रोताओं और दर्शकों को सिर्फ जानकारी चाहिए। अगर आपके पास जानकारी नहीं तो बाकी तो सब सबके पास है। शिंदे ने एक पेज का विज्ञापन दिया यहां हम सब पूछ रहे थे यह विज्ञापन किसने दिया और दिलावाया। यही बात जब अशोक वानखेडे भी पूछ रहे थे तो भाई तुममें और साधारण व्यक्ति में क्या अंतर हुआ। हर कोई आपसे जानकारी चाहता है । वह जानना चाहता है कि आप खोजबीन करके हमें बताएं कि विज्ञापन किसने दिया। लेकिन पता नहीं उनका स्वर हमेशा शिकायती और कथात्मक होता है। फिर भी वे टाइगर कहलाते हैं। एक दूसरे को उपाधि देने का चलन राजनेताओं से पत्रकारों में भी आ गया। गजब बात है।
समय को देखिए और समझिए। इस सत्ता के चरित्र को समझिए। कल जो मणिमाला ने कहा और अशोक वानखेडे ने उसे हवा में उड़ा दिया उसकी सच्चाई समझिए। वातावरण में गुस्सा है पर वोट उधर ही जाने हैं। मोदी जी ने प्रधानमंत्री के पद का कद इस कदर गिरा दिया है अगर आधा देश कहे कि यह मेरा प्रधानमंत्री नहीं हो सकता तो हैरत की कोई बात नहीं होनी चाहिए। एक प्रधानमंत्री राजदंड के सामने धर्माचार्यों की उपस्थिति में संसद के भीतर संविधान को ठेंगा दिखाते हुए दंडवत हो जाए तो इस देश को फिनिक्स पक्षी में बदल जाना चाहिए। वह पक्षी जो मौत के समय जोर जोर से गाता है फिर उसकी चोंच के छेदों से चिंगारियां निकलती हैं जो उसे वहीं भस्म कर देती हैं। तब उसी राख से नये फिनिक्स का जन्म होता है। इस देश के सामने परीक्षा का समय है या तो फिनिक्स बन जाए अपनी नयी आस्थाओं और विश्वास के लिए या फिर बगावत करे । साल भर से कम का समय है देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने हिसाब से सोचें। विपक्ष तो एक दूसरे से छल करता ही दिख रहा है। वो ऐसा कर दे तो मैं ऐसा कर दूं। एक दूसरे से छल की मुद्रा में। बेबस है तो सिर्फ वोटर । वोटर ही बगावत करे तो इतिहास बन जाए ।
देश तो नौ सालों से देख और भुगत रहा है आदिपुरुष का ‘जलवा’ …..
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