ऐसा प्रतीत होता है कि देश में चौबीस की राजनीतिक लड़ाई कछुए और खरगोश की दौड़ वाली लड़ाई होने जा रही है। ऐसे में सई परांजपे की फिल्म ‘कथा’ याद आती है जो कछुए और खरगोश की दौड़ पर आधारित थी और जिसके अंत में दादी बच्चे को कछुए की जीत बताते हुए कहती है यह जीत भी कोई जीत है बेटा । इसके बाद हमें इंदिरा गांधी को हराने वाली जनता पार्टी की याद आती है जो जीती तो सही लेकिन ढाई साल बाद ही उसका क्या हश्र हुआ। आज का हमारा विपक्ष खरामा खरामा अपनी रफ्तार से चल रहा है। जिसे इंडिया तो जान रहा है पर क्या भारत भी जान, पहचान और समझ रहा है?
इस संदर्भ में कल ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अपने साप्ताहिक कार्यक्रम में अभय कुमार दुबे ने संतोष भारतीय के सवालों का जवाब देते हुए अच्छा विश्लेषण किया। उनकी बातों में थोड़ा आक्रोश दिखा। विपक्ष को लेकर। उनका मानना था कि गठबंधन तो सही दिशा में हो रहा है और अपनी पहचान भी बना रहा है लेकिन जनता के बीच विपक्ष कहां दिख रहा है। उनका मतलब जनता में उन मुद्दों को लेकर जाने का है जिन पर जनता आंदोलित हो सकती है। बात वाजिब है। उनकी यह चिंता और प्रश्न दरअसल हमारे और उन जागरूक लोगों के प्रश्न और चिंताएं हैं जो इस सरकार से आजिज़ आ चुके हैं। टिकट बंटवारे में अगर विपक्ष ‘वन टू वन’ कर भी ले और जीत भी जाए तो क्या यह जीत कछुए वाली जीत नहीं मानी जाएगी। आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि महंगाई को लेकर क्या गरीब जनता मोदी जी को जिम्मेवार मानती है ? बेरोजगारी का सवाल भूल जाइए क्योंकि नौकरियां हैं ही नहीं। इस बात को भी अभय दुबे समझा रहे थे। बात सिर्फ महंगाई की है। हम तो हर हफ्ते यही कहते हैं कि कांग्रेस, राहुल गांधी, इंडिया सब अपनी जगह ठीक है पर जनता के बीच विपक्ष का कार्यक्रम क्या है। हमारा तो मानना है कि एक ‘कॉर्डिनेशन कमेटी’ भी बने और कुछ लोगों को जनता में जाने की जिम्मेदारियां भी दी जाएं। हर दल से एक व्यक्ति और ये लोग सामूहिक रूप से गांव गांव से अपने दौरे शुरु करें। ये अलख जगाने का काम है जैसे आजादी के आंदोलन में किया जाता था। वरना जीत आपको मिल भी गई तो जनता पार्टी वाली मिलेगी। जिसे ‘कॉस्मेटिक’ जीत ही कहिएगा। अभय दुबे शो हर रविवार देखा कीजिए।
‘सत्य हिंदी’ अपना विस्तार किए जा रहा है। वहां एक दुकानदारी सी चल रही है – आओ तुम भी अपनी दुकान खोल लो , तुम भी आ जाओ । बिना यह सोचे कि दुकानों में माल की गुणवत्ता क्या है। कल संतोष भारतीय ने भी सोशल मीडिया पर उलजलूल चल रहे किस्से कोतों का प्रसंग छेड़ा। अब शीतल पी सिंह से भी गुजारिश की जा रही है कि आप भी अपना कार्यक्रम ले आइए । ये सब मजे के लिए है। विजय विद्रोही ने अखबारों का कार्यक्रम शुरु किया अच्छा लगा। हमने जम कर तारीफ भी की । पर अब हो क्या रहा है कि अखबार तो पीछे छूट जा रहे हैं उनकी प्रशंसा और कमेंट करने वालों की बातें ज्यादा हो रही हैं। कल ही का प्रोग्राम देखिए। अच्छा खासा अखबार में प्याज़ के बढ़ते दामों को लेकर आई खबर की बात हो रही थी बीच में उनका कोई प्रशंसक आ गया वह अमेठी में राहुल गांधी की बात पूछ बैठा तो बात उधर चल पड़ी । अरे जनाब, हम अखबारों की खबरों को आपसे जानना चाहते हैं आपके लोगों के कमेंट्स में हमारी रुचि नहीं है। बहुत से मेरे मित्रों ने इस कार्यक्रम की मुझसे तारीफ की थी क्योंकि आजकल लोग अखबार नहीं पढ़ पाते। या पढ़ना चाहते भी हैं तो उनके पास समय नहीं है। कम से कम छोटे शहरों में तो परेशानी है ही। मेरे हर लेख के बाद मित्रों से बात होती है। उनकी बातों को ही मैं यहां दोहराता हूं। उनके उठाए प्रश्नों को ही यहां रखता भी हूं। विजय विद्रोही को एक बार मैं स्वयं व्यक्तिगत रूप से यह बात कह चुका हूं। उस पर उन्होंने अमल भी किया लेकिन जैसी फितरत होती है इंसान बहुत जल्दी भूल भी जाता है। लोग यही कहते हैं कि जो बात हम नहीं कह सकते उसे आप अपने कॉलम में उठाइए। इसलिए कहा। इसी तरह से कल नीलू व्यास का एक कार्यक्रम देखा सुधीर चौधरी और स्मृति ईरानी के टमाटर और जेल वाले प्रसंग पर। कितना गम्भीर और जरूरी मुद्दा था। फिर उस पर बात करने पांच छः लोग आ भी गये। फिर चर्चा होती भी क्या तो कुछेक ने गम्भीरता लाने की कोशिश की तो नीलू जी बार बार टोक दें अरे टमाटर और जेल पर आइए न । यानी चौधरी और ईरानी की तनातनी पर आइए न । सांप या मदारी का पिटारा नहीं खुल रहा। बड़े अफसोस की बात है। शैलेष जी तो विजय त्रिवेदी तक को कार्यक्रम में ले आये । वो कहेंगे मेरा आशय यह नहीं था पर जब आप सुधीर चौधरी से विजय भाई की तुलना करने लगे थे कि उन्होंने मोदी जी से सवाल किया तो मोदी जी ने अपने हेलीकॉप्टर से उन्हें खेत में उतार दिया। भाई, इस प्रसंग की जरूरत ही क्या है। वे कहेंगे मैंने विजय जी का नाम नहीं लिया। हम कहेंगे यह प्रासंगिक ही कहां था। आखिर क्यों इसका जिक्र किया। नीलू जी बार बार गायब हुए जा रही थीं। कहती थीं सिग्नल गड़बड़ कर रहा है। हमें तो लगा ईरानी ने ही दुपट्टा खींच कर रखा है। करो कैसे करती हो प्रोग्राम। अजीब बात है सत्य हिंदी भी मोदी के जुमलों जैसा हो गया। हम तो सुबह से ही सोच रहे थे कि टमाटर और जेल वाले मुद्दे पर आज रविवार न होता तो नीलू जी जरूर करतीं कार्यक्रम। और लीजिए उन्होंने तो सुन ही ली और कर ही दिया। असल में दिक्कत यह है कि रोज रोज गम्भीर और जरूरी मुद्दे कहां से लाएं। कार्यक्रम नहीं करेंगे तो पिट जाएंगे। अंबरीष जी ने रविवार को खाने पीने का कार्यक्रम शुरु किया है। जिन्हें खाने पीने में रुचि है और जो शौक रखते हैं या अच्छे कुक हैं उनके लिए तो ठीक है। लेकिन यहां खयाल रखना होगा कि कार्यक्रम ऊब पैदा करने वाला न हो जाए। जैसे कल अलग अलग प्रांतों की कढ़ी पर था। कुछ रोचक था कुछ उबाऊ था।
क्या ही अच्छा होता सत्य हिंदी के चार कार्यक्रम होते और धांसू होते । विजय त्रिवेदी को तो हमने सुझाया था कि इंटरव्यू का कार्यक्रम कीजिए। बहुत सुना जाएगा और प्रशंसा होगी। सवाल जवाब में हमेशा रोचकता होती है।
‘गदर 2’ क्यों धूम मचा रही है इस पर कल अमिताभ ने अपना साप्ताहिक कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ किया। इस कार्यक्रम की खासियत यह है कि इसमें चर्चा करने वाले फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग ही होते हैं। लेखन से निर्माता- निर्देशन तक। कल की चर्चा भी मस्त रही । एक कथन बहुत पसंद आया कि जिसने गदर 1 के बाद गदर 2 देखी हो उसे लगेगा कि बीच के दौर में कुछ हुआ ही नहीं।‌
यह सब तो अपनी जगह है। पर यह समय और संकट बहुत बड़ा और जटिल है। पूरे देश को एक प्लेटफार्म पर लाने जैसा है। मोदी ने इस बार लालकिले से बहुत बेहूदा भाषण दिया। एक परेशान आत्मा की तरह। उनका पूरा वश नहीं चल रहा। पूरा वश चले तो विपक्ष को निचोड़ कर रख दें। मूर्खतापूर्ण तरीके से बीते एक हजार साल से लेकर आने वाले एक हजार साल तक की बात कर दी । यानी कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करें। यह भी भूल गए कि यह चुनाव का मंच नहीं, संसद नहीं जहां बार बार कहे जा रहे थे यह मोदी का संकल्प है। खैर हमने हमेशा कहा है मोदी मोदी से ही हारेगा या मोदी मोदी को ही हराएगा और देखिए वही होगा। विपक्ष की प्लेट में जीत सजी है बस थोड़ी कड़क मेहनत की जरूरत है।

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