राहुल गांधी ने जब से नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोली है तब से उनकी कोई आलोचना नहीं करता । न ही उनका मजाक उड़ाया जाता है। उनकी छवि और उनका कद बढ़ गया है और अब तो बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन उनके व्यक्तित्व में कुछ बातें अभी भी ऐसी हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं।‌ क्योंकि आज नहीं लेकिन भविष्य में हम राहुल गांधी में एक बड़े नेता की कल्पना कर सकते हैं।‌
विपक्ष के प्रतिनिधिमंडल के अलावा देश का कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं था जो अकेले वहां की त्रासदी को समझने और हालात का जायजा लेने मणिपुर गया हो, सिवाय राहुल गांधी के । राहुल गांधी ने वहां दो तीन दिन का समय बिताया। हर दुखिया से मिले , राहत कैंपों में गये। महिलाओं बच्चों को रोते बिलखते देखा । उनकी बात सुनी, उनका दर्द जाना। कुल मिला कर राहुल गांधी इतना भर चुके थे कि अब उन्हें सब कुछ अपनी भरपूर संवेदना के साथ उड़ेलना ही उड़ेलना था। यह बेहतरीन मौका वे चूक गये। उनके पास मौका था कि वे संसद में अविश्वास प्रस्ताव के पहले दिन पूरे सदन को भाव विह्वल कर सकते थे। उनके सामने उपयुक्त स्थान था, भरपूर समय था और देखते ही देखते पूरे देश का नेता हो जाने का मौका था। अगर ऐसा होता तो विदेशों में उनकी दमदार और मोदी को जबरदस्त चुनौती देने वाली छवि बनती । पर ऐसा नहीं हुआ। लगता है समय उनके साथ नहीं है। तो गड़बड़ कहां हुई और कमी कहां है।
बात यहां से शुरु करें कि राहुल गांधी अभी अधपके नेता हैं। उन्हें अभी नेता कहना भी कितना सही है यह विवेचना का विषय है। मुझे लगता है कि राहुल गांधी स्वयं को अच्छे से पहचान चुके हैं लेकिन नहीं पहचाने हैं तो उनकी पार्टी के लोग और सोशल मीडिया के बड़े बड़े धुरंधर। दरअसल राहुल गांधी के मन मस्तिष्क का कलात्मक विकास नहीं हुआ। बात को रखने का जो शऊर इंसान को संवेदनशील नेता बनाता है उसकी उनमें सरासर कमी दिखती है। इस कलात्मक विकास में ही वाक् पटुता समाहित होती है। शब्द, अलंकार, मुहावरे, व्यंग्य, चुटीलापन, सामने वाले की बात को समझना फिर उसका ऐसा जवाब देना कि जिसका कोई तोड़ ही न बचे । आज का जमाना इंस्टेंट का है, लफ्फाजी से जीतने का है। यहां राहुल गांधी सौ टका मात खाते हैं। यह भी बद इत्तेफाक है कि उनकी आवाज में मधुरता नहीं। कहिए फटे बांस जैसी है लेकिन यह कुदरत की देन है और अपनी वाक् पटुता और चातुर्य से इस पर पार पाया जा सकता है। कमी सबसे बड़ी यह है कि उनके पास इस दिशा में चेताने और सलाह देने के लिए कोई व्यक्ति नहीं है। आप ही देखिए कि कोई उन्हें एक मामूली सी यह बात भी नहीं बताता कि ‘हिंदुस्तान’ का दूसरा नाम ‘भारत’ भी है। उनको दरकार है एक अच्छे साहित्यकार की या साहित्य की अच्छी समझ रखने वाले की । सुना था कि उनकी माता को बनारस के रत्नाकर पाण्डेय ने हिंदी सिखाई थी। लेकिन वे फिर भी ठीक से नहीं बोल पातीं। मां बेटा बेटी में केवल प्रियंका हैं जिनका हिंदी और वाक् पटुता पर सौ नहीं तो कम से कम अस्सी फीसदी अच्छा कमांड है।
जो व्यक्ति मणिपुर से इतनी संवेदना एकत्र करके लाया हो उसे तो संसद में छा जाना चाहिए था। लेकिन राहुल गांधी की इस बाबत कोई तैयारी नहीं थी या वे कंफ्यूज़ थे कि बात को कैसे रखा जाए। उन्होंने अपनी चार हजार किमी वाली यात्रा से बात शुरु की जो वे हर बार और हर जगह करते हैं। बस एक बात नहीं बोले जिससे लोग ऊबने लगे हैं कि ‘नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान’ । संसद में उनके उद्बोधन से शुरुआत में हर कोई बोर हो रहा था। फिर वे अनमयस्क से मणिपुर पर आ गये । दो महिलाओं की पीड़ा का जिक्र करके उन्होंने अचानक रौद्र रूप धारण कर लिया। लोगों ने जो आकलन किया उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि यह तीर निशाने पर लगा। क्योंकि इसमें अनायास ही मोदी की तथाकथित देशभक्ति पर करारा वार था। मेरा तो मानना है कि इसको भी बेहद चतुराई से और विनम्रता के साथ बाद में आक्रामक होकर कहा जा सकता था। सवाल है कि राहुल गांधी का बार बार समय और दिन क्यों बदला गया। संभव है वे स्वयं अपनी उचित प्रस्तुति के लिए मन न बना पा रहे हों।‌और जिस तरीके से उन्होंने सब कुछ कहा उसके पीछे उन पर जबरदस्त दबाव था। वे सदस्यता खोने के बाद पहली बार आये। कांग्रेसी और ‘इंडिया’ गुट के लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। फिर उनके बोलने पर देश ही नहीं दुनिया भर के लोगों की नजर थी। अचानक से उनका रौद्र रूप इसी दबाव का नतीजा था। जाहिर है इन सब कारणों से उनको देखने सुनने वालों की संख्या मोदी से ज्यादा रहनी थी और वह रही भी‌। दोनों की संख्या का सोशल मीडिया पर खूब प्रचार प्रसार किया गया। जिससे राहुल की और भी छवि निखर कर आयी। इस लेख में बतायी गयी राहुल की कमजोरियों और मजबूरियों अगर उनके इर्द गिर्द रहने वाले लोग समझें और उन्हें हिंदी ज्ञान के साथ भाषण कला में भी निपुण करें तो राहुल गांधी एकछत्र नेता हो सकते हैं। हालांकि कांग्रेसियों से इतनी उम्मीद करना उनसे कुछ ज्यादा ही मांग लेना जैसा है। अच्छी बात यह है कि राहुल गांधी अपनी ‘हद’ जान गये हैं शायद इसीलिए वे मोदी बनाम राहुल नहीं होने देना चाहते।
इस बार के अभय दुबे शो में अभय जी ने ‘इंडिया’ गुट और एनडीए के बीच का अंतर बताया। इंडिया में सारे दलों के लोग हैं वह संघवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है। और भी कई महत्वपूर्ण तथ्यों का उन्होंने विश्लेषण किया। संतोष भारतीय के सटीक सवालों का सटीक जवाब दिया गया। हर बार की तरह इस बार भी मित्र लोग इसे देखें। पिछली बार दो एक लोगों को शिकायत रही कि उन्हें यूट्यूब पर देखने को नहीं मिला। आप चाहें तो मुझसे लिंक मांग सकते हैं हर बार।
‘सिनेमा संवाद’ में इस बार सिनेमा में बदलती राष्ट्रीय भावना या राष्ट्रीयता पर चर्चा हुई। लेकिन ज्यादा मजा नहीं आया। जिस उद्देश्य से चर्चा रखी गई थी उसे तो शायद ही किसी ने समझा हो । आजकल सब कुछ एक खास उद्देश्य से किया जा रहा है। सिनेमा भी कैसे उससे अछूता रह सकता है। बल्कि सिनेमा तो समाज को बनाने या उसमें आग लगाने का सबसे बड़ा माध्यम कहिए। मोदी जी का ‘कश्मीर फाइल्स’ को प्रमोट करना ही इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अगर फिर भी कोई न समझ पाये तो समझिए अंधों की जमात बढ़ रही है। इसी विषय में थोड़ा बदलाव करके अमिताभ को एक कार्यक्रम और करना चाहिए। और उनको चाहिए कि कार्यक्रम से पहले अपने सभी पैनलिस्ट को समझा दें, सीमाओं में बांध दें। कल जवरीमल पारेख एक ही फिल्म को लेकर नाहक ही इतना लंबा खींच लिया।
आजकल मेरी रुचि सोशल मीडिया के कार्यक्रमों में बहुत कम हो गयी है। ऐसे ऐसे विषयों पर चर्चा हो रही है जिसका कोई अर्थ नहीं। और नहीं तो ‘फ्लाइंग किस’ पर ही आधा- एक घंटा माथापच्ची। कुछ चटपटे का मन हो तो नीलू व्यास का शो देख लीजिए। दिमाग को एक तरफ रख कर देखेंगे तो मजा आएगा। नीलू और अंबरीष जी के कार्यक्रमों में लोग लगभग एक से ही हैं। अनिल सिंहा को आठ के बाद कोई नहीं बुलाता। अच्छा ही होता है। जैसे मोदी हर चीज को अब चौबीस के चुनाव की नजर से देख रहे हैं ठीक उसी तरह मैं भी हर चर्चा को उसी नजर से देख रहा हूं। इसीलिए निराशा होती है। बाकी किस नजर से देखें। कोई बताए।

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