नए साल के पहले हफ्ते में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब कानून व्यवस्था की समीक्षा बैठक की तो उनके सामने कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए. उन्होंने पाया कि राज्य के कुल 38 में से 17 जिलों में पहले की तुलना में 20 प्रतिशत आपराधिक मामले बढ़े हैं. इन जिलों में राज्य के कुल अपराध के 60 प्रतिशत मामले देखे गए. जिन जिलों की समीक्षा की गयी उनमें- नालंदा, रोहतास, बेगूसराय, भागलपुर, शेखपुरा, नवादा, कैमूर, गोपालगंज, सहरसा, पूर्णिया, अरवल, वैशाली, पश्चिम चंपारण, मुजफ्फरपुर, मधेपुरा, कटिहार और बक्सर शामिल किये गये. ये वो 17 जिले हैं, जहां वर्ष 2016 के मुकाबले 2017 में अपराध में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यहां ध्यान रहे कि बाकी 21 जिलों की समीक्षा उस दिन नहीं की गयी, लेकिन उन जिलों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. बल्कि राजधानी पटना तो अपराध के मामले में सबसे आगे है.
यह समीक्षा बैठक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सरकारी आवास में हुई थी. समीक्षा बैठक के दौरान डीजीपी पीके ठाकुर, विकास आयुक्त शिशिर सिन्हा, गृह विभाग के प्रधान सचिव आमिर सुबहानी, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव चंचल कुमार समेत पुलिस मुख्यालय के वरीय पुलिस अफसर मौजूद थे. बैठक की यह रिपोर्ट सार्वजनिक बहस का बड़ा मुद्दा नहीं बन पाई. विपक्षी दल राजद भी इसे गंभीर मुद्दा बनाने से चूक गया. पर कुछ लोगों ने दबी जुबान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस दावे पर सवाल जरूर उठाये कि शराबबंदी के बाद से हिंसा व अपराध की घटनाओं में कमी आयी है. शराबबंदी अप्रैल 2016 में लागू की गयी थी.
कहा जाता है कि हिंसा या अपराध का पोषण भ्रष्टाचार के सहारे होता है. बिहार में न तो अपराध कम हुए हैं और न ही भ्रष्टाचार रुकने का नाम ले रहा है. बीते कुछ महीनों में भ्रष्टाचार की लम्बी श्रृंखला उजागर हुई है. इनमें सृजन नामक एनजीओ से जुड़ा दो हजार करोड़ का घोटाला, शौचालय निर्माण घोटाला, महादलित विकास फंड घोटाला आदि शामिल हैं. इसी तरह पिछले छह महीने में अपराध की घटनाओं में कोई कमी नहीं आयी है. यहां यह स्पष्ट रहे कि हम बिहार के अपराध की तुलना अन्य राज्यों से नहीं कर रहे हैं.
ऐसा इसलिए क्योंकि देश के कोई आधा दर्जन राज्य ऐसे हैं, जहां बिहार की तुलना में ज्यादा अपराध के मामले दर्ज किये जाते हैं. पिछले छह महीने की बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि 27 जुलाई 2017 से पहले नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल के समर्थन से सरकार चला रहे थे. तब भाजपा विपक्ष की भूमिका में थी. बिहार में विपक्ष को जो सबसे बड़े मुद्दे मिलते हैं, वे अपराध व भ्रष्टाचार ही हैं. पिछले दिनों बिहार भर में हत्याओं के कई हाईप्रोफाइल मामले सामने आये. कई बड़े व्यवसायियों की हत्या हुई.
बस चंद रोज पहले पटना के रियल स्टेट कारोबारी के बेटे रौनक की हत्या फिरौती नहीं मिलने के कारण कर दी गयी. इस हत्या के महज दो दिन बाद बेतिया में वीर कुमार की हत्या कर दी गयी. हत्यारों ने उसके पिता से फिरौती की मांग की थी. उससे पहले पटना में ही एक सिनेमा हॉल के मालिक व बिहटा व्यावसायिक संघ के अध्यक्ष निर्भय सिंह की हत्या हुई. जनवरी में ही मुजफ्फरपुर में दो बड़े व्यवसायियों की हत्या हुई.
इनमें से एक आभूषण के व्यवसायी रोहित कुमार को दुकान में घुस कर अपराधियों ने गोलियों से भून डाला. इसके अलावा भोजपुर में भी पिछले कुछ महीनों में हत्या की कई हाईप्रोफाइल घटनायें सामने आयीं. अपराध और हत्या के ये तमाम मामले अखबारों में दर्ज तो जरूर हुए पर स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर के न्यूज चैनलों में डिबेट का हिस्सा नहीं बन सके. तेजस्वी जब ऐसे मुद्दों पर सरकार और मीडिया पर जोरदार हमला बोलते हैं तो मीडिया की भूमिका में कोई परिवर्तन तो नहीं ही दिखता, लेकिन सत्ताधारी पार्टियों के दोनों सबसे बड़े नेता- नीतीश और सुशील मोदी की चुप्पी जरूर दिखती है. नीतीश कुमार अमूमन अपनी सरकार पर होने वाले हमलों पर मुंह नहीं खोलने की रणनीति पर ही चलते हैं.
जबकि उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की रणनीति दूसरी है. वह राजद और लालू परिवार पर लगातार हमला करते हैं. बढ़ते आपराधिक मामलों पर जवाब देने के बजाय आरजेड़ी पर किसी अन्य मामलों पर हमलावर हो जाते हैं. उधर जनता दल यू के प्रवक्ताओं की टोली बार-बार अपने बयानों में यह घोषणा करती है कि नीतीश कुमार का टीआरपी ही है कानून का राज. सरकार कानून व्यवस्था बनाये रखने में कभी किसी से समझौता नहीं करती. बीजेपी के प्रवक्ता नीरज कुमार और संजय सिंह तो यहां तक कहते हैं कि कानून व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने के लिए ही हमने राष्ट्रीय जनता दल को सत्ता से अलग किया. सत्ताधारी पार्टी के इन नेताओं के बयानों और विगत कुछ महीनों से लगातार बढ़ते अपराध की घटनाओं से कोई मेल नहीं दिखता.
उधर अपराध की सामान्य घटनायें अपनी जगह हैं, पर अपराध और हिंसा की इस कड़ी में बक्सर की उस घटना को भी शामिल किया जाना जरूरी है जो एक राजनीतिक विरोध के रूप में सामने आया. नीतीश कुमार विकास कार्यों की समीक्षा यात्रा पर जब बक्सर पहुंचे तो वहां नंदनगांव में कुछ लोगों ने उनका कड़ा विरोध किया. लोगों की मांग थी कि मुख्यमंत्री उनके उपेक्षित गांव का भी भ्रमण करें. लेकिन उनका उस गांव में जाने का कार्यक्रम नहीं था. इस पर ग्रामीणों का विरोध हिंसक हो गया और काफिले पर भारी पत्थरबाजी हुई. इसमें अनेक आला अधिकारियों को गंभीर चोटें आयीं जबकि खुद नीतीश कुमार इसलिए बच सके क्योंकि उनके अंगरक्षकों ने उनके चारों तरफ इंसानी जंजीर बना ली थी.
भले ही स्थानीय लोगों का यह हिंसक स्वरूप नॉर्मल किस्म के अपराध के बजाय राजनीतिक विरोध से शुरू हुआ, पर इसकी परिणति अपराध में ही हुई. चूंकि इस हिंसा से मुख्यमंत्री खुद प्रभावित थे, ऐसे में इस पर राजनीति होना स्वाभाविक था. सत्ताधारी जदयू- भाजपा गठबंधन ने इस घटना के कुछ ही देर बाद इसे आरजेडी की साजिश करार दिया. दूसरी तरफ आरजेडी ने सरकार को चुनौती दे डाली कि वह अपने आरोपों को सिद्ध करे. तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया कि मीडिया ने स्थानीय लोगों पर पुलिस के जुल्म को हाईलाइट नहीं किया और केवल सरकार के पक्ष को प्रमुखता से उठाता रहा.
बिहार में बढ़ते आपराधिक घटनाओं की तथ्यवार सच्चाई एक बात है और सत्ताधारी व विपक्षी पार्टियों की राजनीतिक बयानबाजी दूसरी बात है. पर इन मामलों में कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. सरकार द्वारा कानून व्यवस्था के चुस्त दुरुस्त होने के तमाम दावों के बावजूद लोगों में भय का माहौल बढ़ा है.