सरकार जिस कानून के जरिए कालाधन को पकड़ना चाहती है उस जाल में तो कोई चूहा भी नहीं फंसने वाला है. वैसे नोटबंदी के बाद आयकर संशोधन बिल लाकर सरकार ने ये संकेत देने की कोशिश की है कि वो कालाधन को अर्थव्यवस्था से बाहर करने के लिए कठोर कदम उठाने को तैयार है. सरकार की इस पहल को जनता का समर्थन भी है.
लेकिन सवाल ये है कि क्या सरकार की मंशा और उसके फैसले में कोई संबंध है? क्या जिस मकसद से नए कानून को लाया गया वो पूरा होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि अव्यवस्था और लचर कानून के कारण सरकार अपनी मुहिम में विफल हो जाएगी? इस कानून का असर व्यापक होने वाला है इसलिए इसके हर पहलू को समझना जरूरी है.
लोकसभा में हंगामे के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आयकर संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत कर दी. लोकसभा स्पीकर ने इसे मनी-बिल के रूप में स्वीकार किया. मतलब यह कि सरकार इसे राज्यसभा में ले जाने के मूड में नहीं थी.
अगले दिन फिर लोकसभा में हंगामा चलता रहा, लेकिन उसी हंगामे के दौरान इस बिल को पास कर दिया गया. आयकर कानून में हुए बदलाव पर न तो संसद में चर्चा हुई और न ही विपक्ष ने विश्लेषण किया.
हैरानी तो ये है कि मीडिया ने इस कानून में हुए बदलाव का अध्ययन किए बिना सरकार की दलीलों पर हामी भरकर इसे कालाधन पर शिकंजा कसने वाला कानून बता दिया. आयकर संशोधन विधेयक के प्रावधानों और अभिप्रायों का क्या नतीजा होगा, यह समझना जरूरी है.
सबसे पहले देखते हैं कि इस नए कानून में क्या नई बात है. सबसे पहली बात, इस कानून में कुछ नया नहीं है. यह एक वोलंटरी डिस्न्लोजर ऑफ इन्कम स्कीम यानी आय की स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना है, जिसे कई सरकार ने अपने-अपने हिसाब से लागू किया और हर बार अपने लक्ष्य को पाने में विफल रही है.
इस विधेयक के मुताबिक, नोटबंदी के बाद कालाधन घोषित करने वालों की आय का 49.9 प्रतिशत हिस्सा कर, जुर्माना और पीएमजीके यानी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना सेस में ही चला जाएगा. इस 49.9 प्रतिशत हिस्सा में अघोषित आय पर 30 प्रतिशत कर, 10 प्रतिशत जुर्माना और कर का 33 प्रतिशत पीएमजीके सेस में जाएगा.
इसके अलावा 25 फीसदी रकम को बैंक में चार साल के लिए जीरो फीसदी ब्याज पर लॉक कर दिया जाएगा यानी उपभोक्ता मात्र 25 फीसदी रकम ही बैंक से निकाल पाएगा, बाकी 25 फीसदी के लिए चार साल इंतजार करना होगा.
इसके अलावा, अघोषित आय का खुलासा नहीं करने वाले व्यक्तियों को पकड़े जाने पर अपनी अघोषित आय का 75 प्रतिशत हिस्सा कर और 10 प्रतिशत जुर्माने के तौर पर चुकाना पड़ेगा.
मतलब जो इन्कम टैक्स की रेड में पकड़ा गया तो उसे अघोषित आय की 85 फीसदी रकम गंवानी पड़ेगी. पहली नजर में ये कानून तो कड़ा जरूर नजर आता है लेकिन इसके इस्तेमाल और आयकर के दूसरे कानून के साथ जोड़ कर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसका सफल होना मुश्किल है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली से एक बड़ी गलती हुई है. ये जो नया कानून लाया गया है, इसका विफल होना तय है. इसमें कई सारी समस्याएं हैं. यह कानूनी तौर पर तार्किक नहीं है और न ही इसमें आय छिपाने वाले लोगों की मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है. सबसे बड़ी समस्या ये है कि इसमें 10 फीसदी पेनाल्टी यानी जुर्माने का प्रावधान है.
अगर इस जुर्माने को अतिरिक्त टैक्स के रूप में लिया जाता तो कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन आयकर कानून में जैसे ही जुर्माना या पेनाल्टी शब्द का इस्तेमाल होता है तो कोई भी कंपनी या व्यक्ति इस कानून के तहत अपनी आय को सार्वजनिक नहीं करेगा. ये कैसे संभव है कि कोई व्यक्ति और कंपनी खुद को क्रिमिनल साबित कराने के लिए खुद ही अपनी आय सार्वजनिक करेगा.
वह ऐसा इसलिए नहीं करेगा क्योंकि जब किसी व्यक्ति पर जुर्माना लगता है तो उसे कई और भी परिणाम झेलने पड़ जाएंगे. जैसे ही किसी व्यक्ति पर जुर्माना लगता है तो वह कानून की नजर में एक अपराधी बन जाता है.
जुर्माना लगते ही वह कई चीजों के लिए अयोग्य करार दिया जाएगा. उदाहरण के तौर पर, आप फिर कभी किसी कंपनी के स्वतंत्र डायरेक्टर नहीं बन पाएंगे. सरकार के बहुत सारे इनाम और पदों के लिए आप अयोग्य हो जाएंगे.
उन्हें फिर भविष्य में बैंक लोन भी नहीं मिल पाएगा. अब अगर किसी के पास कालाधन है तो वो क्यों उसे सार्वजनिक करेगा. अगर सरकार को बैंक में पैसा लाना ही था और सरकारी खजाना को भरना था तो पूरा का पूरा टैक्स के रूप में उगाही करने का प्रावधान बनाया गया होता. इस चूक का नतीजा यही होगा कि इस स्कीम के तहत शायद ही कोई व्यक्ति या कंपनी स्वेच्छा से अपनी आय को सार्वजनिक करे. मतलब यह कि कालाधन को पकड़ने का काम आयकर विभाग को ही करना होगा.
सच्चाई ये है कि आयकर विभाग के पास कोई ऐसा मैकेनिज्म नहीं है, जिसके जरिए सरकार करोड़ों लोगों द्वारा जमा किए गए पैसे को खंगाल सके. सारे बैंक एकाउंट का अध्ययन कर सके. कालाधन जमा करने वालों को पकड़ सके. फिलहाल, आमतौर पर एक इन्कम टैक्स एसेसिंग ऑफिसर यानी कर निर्धारण प्राधिकारी के पास लगभग सौ केस होते हैं.
हालत ये है कि इन सौ मामलों की भी सही ढंग से जांच नहीं हो पाती है और न ही आरोपियों को कोर्ट से सजा दिलवा पाने में सफल हो पाते हैं. ज्यादातर मामलों में आरोपी कोर्ट से बरी हो जाते हैं. अब जब करोड़ों बैंक एकाउंट्स में पैसे जमा हुए हैं तो सभी मामलों की जांच तो नामुमकिन है. इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट 15 से 20 फीसदी मामलों की भी सही ढंग से जांच कर ले, तो यह आश्चर्य ही होगा.
मतलब यह कि चुने हुए मामलों को ही आयकर विभाग उठाएगी. आयकर अधिकारी ही तय करेंगे कि किस मामले को उठाना और किसे छोड़ देना है. ऐसे में जो स्थिति बनेगी, उससे भ्रष्टाचार का एक नया अध्याय शुरू हो जाएगा.
हर एसेसिंग ऑफिसर उगाही का एक केंद्र बन जाएगा. जिन मामलों में कार्रवाई नहीं होगी तो आरोप ये लगेगा कि इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट ने पैसे लेकर आरोपियों को छोड़ दिया है.
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कई ऐसे मामले भी सामने आएंगे, जिसमें अधिकारी घूस लेकर लोगों कोे छोड़ देंगे. अगर किसी अधिकारी ने घूस नहीं ली और ईमानदारी सेे कार्रवाई की, तो आरोप ये लगेगा कि पैसा नहीं मिला तो कार्रवाई शुरू हो गई.
यानी आयकर विभाग के अधिकारियों की दोनों तरफ से फजीहत होने वाली है. समस्या यहीं खत्म नहीं होती है. जिन आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई होगी, वो भी कोर्ट से छूट जाएगा.
दरअसल, इस कानून के तहत जो कार्रवाई होगी, उसमें एक बड़ा लूपहोल है. आयकर विभाग में हर मामले की जांच आयकर विभाग के एसेसिंग अधिकारी यानी कर निर्धारण प्राधिकारी करते हैं. जब कोई व्यक्तिटैक्स की चोरी करता है या कालाधन के साथ पकड़ा जाता है तो निर्धारण अधिकारी ही उन पर आयकर कानून की अलग-अलग धाराएं लगाते हैं.
अब नए कानून में जो जुर्माने का प्रावधान है, उसमें एक मूलभूत समस्या है. इसमें जिस धारा के तहत कार्रवाई होगी वो आयकर कानून के सेक्शन 68, 69, 69-ए, 69-बी और 69-सी है.
आमतौर पर आयकर विभाग को हर मामले की पूर्वसूचना होती है, जिस पर विभाग एक्शन लेता है. पूर्वसूचना के रूप में फिलहाल आयकर विभाग के पास सिर्फ बैंक खातों के डिटेल हैं. इसी सूचना पर कार्रवाई होगी.
एक तो इतने खातों को खंगालना मुश्किल है और अगर कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई भी तो वो छूट जाएंगे. इसकी वजह ये है कि इन्कम टैक्स नियम के जो सेक्शन 68, 69, 69-ए, 69-बी और 69-सी है, ये सारे के सारे डिस्क्रीशनरी नेचर के हैं. मतलब यह कि इनका इस्तेमाल अपने आप नहीं होता है, इन धाराओं का इस्तेमाल इन्कम टैक्स के अधिकारी अपने विवेक से करते हैं.
जब जांच के दौरान एसेसिंग अधिकारी को ये लगता है कि आरोपी ने जांच में कुछ गड़बड़ी की है और कुछ छिपा रहा है, तब वो इन धाराओं को अपने विवेक से लगाता है. जब अधिकारी के विवेक पर ही इनका इस्तेमाल होता है तो ये अधिकारी पर निर्भर करता है कि किसी मामले में इन सेक्शन को लगाए या न लगाए. इसी वजह से अधिकारियों के पास उगाही करने का केंद्र बनने और भ्रष्टाचार का खतरा बना रहता है.
ये इन सेक्शन की विशेषताएं हैं और यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. कमजोरी इसलिए क्योंकि जब ये मामला कोर्ट में जाता है, तब विवेक के इस्तेमाल पर मामला फंस जाता है और ज्यादातर आरोपी छूट जाते हैं. दूसरी समस्या ये है कि वित्त मंत्रालय ने जुर्माने को कानून का हिस्सा बना दिया है. जबकि, एसेसमेंट (जांच) और पेनाल्टी (जुर्माना) लगाना ये दोनों अगल-अलग काम हैं.
इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट में दोनों की प्रक्रिया अलग है. जांच एक सिविल मामला है, जबकि पेनाल्टी लगाना क्रिमिनल मामला है. वैसे भी आयकर कानून में जुर्माना तो सिर्फ डराने के लिए रखा गया था क्योंकि रेवेन्यू जमा करने का ये कोई सही तरीका नहीं है. नए नियम की सबसे बड़ी गलती ये है कि सरकार ने जुर्माने को टैक्स के साथ कानून में जोड़ दिया. यह कहा जा सकता है कि जुर्माने को खुद लागू करने के प्रावधान की वजह से नए कानून का विफल होना तय है.
न्यायिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण रूल है, जिसे रेस ज्यूडिकाटा कहते हैं. इसके मुताबिक अगर एक काम्पीटेंट कोर्ट ने एक मामले में फैसला दे दिया है, तो वह उदाहरण बन जाएगा.
उसी तरह का अगर दूसरा कोई मामला सामने आता है तो काम्पीटेंट कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मतलब एक तरह के केस में अगर कोर्ट ने कोई फैसला ले लिया है तो उसी तरह के दूसरे मामले में कोर्ट अलग फैसला नहीं दे सकती है.
ऐसा ही एक केस मायावती का था. उनके बैंक एकाउंट में जितना भी पैसा था, उसमें उनको क्लीन चिट मिल गई. इन्कम टैक्स एपिलेट ट्रिब्यूनल ने उन्हें छोड़ दिया. ट्रिब्यूनल ने साफ-साफ कहा कि बैंक एकाउंट में जितने भी पैसे हैं, वो गलत नहीं हैं. उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है. इस पर सेक्शन 68 लागू नहीं हो सकता है.
ये अपने आप में हैरान करने वाला फैसला है. इस फैसले का मतलब यही है कि जिसको जितना कमाना है, कमाए और सारे पैसे बैंक में डाल दे. इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है. इस कानून के तहत हर मामले में कोर्ट मायावती के केस के मुताबिक फैसला लेगी. इसका मतलब यह कि जिन लोगों ने बैंक में पैसा जमा करा दिया उन्हें कोई सजा नहीं होगी.
कोर्ट की हालत ये है कि जब भी सेक्शन 68 सामने आता है तो जज साहब उस मामले को ही रफा-दफा कर देते हैं क्योंकि ये मामला अधिकारी के विवेक का मान लिया जाता है. मजेदार बात ये है कि नए कानून से व्यापारियों और दुकानदारों का बाल भी बांका नहीं होने वाला है. इन्कम टैक्स कानून में पचासों ऐसे प्रावधान हैं, जिसके जरिए वो अपने सारे धन को बचा सकते हैं.
इन्कम टैक्स के तो ऐसे कानून हैं कि अगर कोई दुकानदार ये कह दे कि कोई व्यक्ति दस लाख रुपये दुकान में छोड़ कर चला गया तो वो सजा के किसी भी प्रावधान से बाहर हो गया है. इन्कम टैक्स कानून का एक सेक्शन है, 28 (4) जिसमें एनी अदर बेनिफिट की बात की गई है. जब तक ये कानून है, तब तक व्यापारियों और दुकानदारों को कई चिंता नहीं होगी. उनके पास जितना भी काला या सफेद धन है, उसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं हो सकता है.
नोटबंदी का फैसला एक ऐतिहासिक फैसला है. लोग ये जानते हैं कि ये एक कठिन फैसला है और इससे लोगों को परेशानी होगी. ऐसे में सरकार को कानून में ऐसे बदलाव लाने चाहिए थे, जिसमें अधिकारियों के विवेक के इस्तेमाल का स्थान नहीं होता. कालाधन और हाल में पुराने नोट जमा करने के दौरान हुई घपलेबाजी को पकड़ने और उन्हें सजा देने के लिए कोई साधारण लेकिन सख्त कानून लाना चाहिए था, जिसमें बचने का कोई रास्ता नहीं होता.
अगर सरकार ऐसा कानून लाती, जिसमें हर बैंक एकाउंट के पिछले एक दो साल में जितना पैसा जमा हुआ और जो पैसा नोटबंदी के बाद जमा हुआ उसका औसत निकालते और जो भी रकम ज्यादा होता उस पर सीधे-सीधे 40 या 50 फीसदी टैक्स चुकाने का प्रावधान होता, तो न अधिकारियों को विवेक का इस्तेमाल करना होता और न ही ये मामले कोर्ट से बरी होते और न ही कोई बच पाता.
नोटबंदी हो या उसके बाद की स्थिति में कालेधन को गिरफ्त में लेने का मसला, सरकार के पास कोई स्ट्रैटेजी है या कोई विजन है. वही टैक्स रीजीम, वही इन्कम टैक्स एक्ट, वही कानूनी व्यवस्था, वही डिपार्टमेंट, वही अधिकारी, वही सारे टैक्स देने वाले लोग, फिर भी अगर सरकार ये सोचती है कि जिन लोगों ने कालाधन छिपा रखा है वो स्वत: अपने धन को सार्वजनिक करने के लिए लाइन में खड़े हो जाएंगे तो ये बेवकूफी है.
ये लोग 30 फीसदी टैक्स से बचने के लिए हेराफेरी करते हैं. इन्होंने 45 फीसदी टैक्स देकर कालेधन को सफेद करने का मौका गंवा दिया. कह सकते हैं कि अब तक जितनी भी स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना आई, वो करदाता की मानसिकता को समझ नहीं पाई. यही वजह है कि ये सारी योजनाएं विफल हो गईं. उसी आधार पर ये कहा जा सकता है कि 50 फीसदी टैक्स और 25 फीसदी चार साल तक जब्त करने वाले कानून का सफल होना नामुमकिन है.