भोपाल। कहते हैं कि जमाना इतनी तेज रफ्तार से दौड़ रहा है कि लोगों को एक दूसरे से मुहब्बत का वक़्त मिलना भी मुहाल हो गया है। वह शख्स जिसने अपने शहर, सूबे, देश की पताका दुनिया में गहराने के लिए जिंदगी के चालीस से ज्यादा बेशकीमती साल मंचों पर गुजार दिए, उस मरहूम शायर डॉ राहत इंदौरी के लिए सोशल मीडिया पर एक तबका नफरत फ़ैलाने पर आमादा है। मजहबी दूरियों को बढ़ावा देती इन मानसिक दीवालियों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए भी एक बड़ा धड़ा मौजूद है। नफरत फैलाने वालों का न कोई धर्म है, न मजहब और न कोई साहित्यिक हैसियत। लेकिन मन में बसी बवासीर को चंद लाइक, कमेंट्स और शेयर की ख्वाहिश में सोशल मीडिया पर पसार कर दिमागी बीमार होने के प्रमाण देने में कोताही नहीं की जा रही है। डॉ राहत को जमाने की राहत करार देते लोगों ने भी इस बात का सबूत देने में कसर नहीं छोड़ी है कि मुहब्बत जात, धर्म, मजहब, धारा, विचारधारा देखकर नहीं की जाती, बल्कि वह जिससे होना होती है, बस हो जाती है।

मंगलवार की सुबह सोशल मीडिया पर एक संदेश घनघनाया, खुद डॉ राहत इंदौरी के ट्विटर अकाउंट से प्रसारित हुए इस मैसेज में कहा गया कि वे कोराना पॉजिटिव हो गए हैं और इलाज के लिए अस्पताल में एडमिट हैं। एक सन्देश ने दुनियाभर के बदन में सुरसुरी सी फैला दी। राहत जल्दी अच्छे हो जाएं, जल्दी से मंच की रौनक बनें, फिर लोगों के लिए बायस ए राहत बन जाएं, की दुआएं सोशल मीडिया से लेकर जमीनी तौर पर भी होने लगीं। इसी सिलसिले को उन लोगों ने अपनी भड़ास का माध्यम बनाया, जिन्हें राहत खलते हैं, उनकी मौजूदगी अखरती है और कामयाबी आंखों की किरकिरी महसूस होती है। किसी की बीमारी को उसके फना होने की बद्दुआ करने वालों ने अपने मन की भड़ास निकालने में कसर न छोड़ी। घटिया और गंदी मानसिकता का परिचय देते लोगों ने राहत के लिए जो असहित्यिक अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए, उनका जवाब देने के लिए लाखों लोगों के तर्क संगत कमेंट्स भी दनदनाते रहे।

कौन हैं, जो मौत का जश्न मनाने से बाज नहीं आते |

देर सुबह पॉजिटिव होने की खबर पर शुरू हुआ दुआओं और भड़ास निकालने वालों का सिलसिला जारी ही था और शाम होने से पहले राहत के फानी दुनिया से विदा होने की मनहूस खबर आ पसरी। दुनिया भर में एक शून्य ने विस्तार कर दिया। जिसने सुना यकीन नहीं कर पाया, कन्फर्म करने यहां से वहां तक तस्दीक के फोन घनघनाते सुनाई देने लगे, बात हलक से उतारे बिना दुआए मगफिरत की बारिश होती नजर आने लगी। विघ्नसंतोषी जमात के इक्का दुक्का कमजर्फ लोगों ने फिर अपनी चादर फैलाई और एक बार फिर भड़ास में छिपी अपनी नाकामयाबी को सोशल मीडिया पर परोस डाला। चंद लोगों की इस गंदी जहनियत ने फिर साबित किया कि अपने बाप की मय्यत पर अफसोस और गम के दो आंसू न बहाने वाले नालायक किसी गैर की मौत का जश्न भी मना सकते हैं।

किसी के बाप से लेकर… कफ़न पे हिंदुस्तान लिखने तक….

वह न सियासी जमात के लोग कहे जा सकते हैं और न कोई मजहब इनकी सरपरस्ती करने वाला हो सकता है, जो साहित्य के किसी अंश को अपने मन में छिपी टीस से जोड़कर नफरत की एक गांठ बांध कर रख लेते हैं। राहत ने किसी जमाने में कहे एक शे”र … सभी का लहू शामिल है, इस मुल्क की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है…! को अपनी कुंठित मानसिकता से जोड़कर रख लिया जाता है। लेकिन यही राहत जब कहते हैं कि… “जनाजे पे मेरे लिख देना यारों, मुहब्बत करने वाला जा रहा है…!” या “मैं जब मर जाऊं, तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना….!” को उनकी अदा भर मान लिया जाता है।

सभी के राहत

डॉ राहत इंदौरी के इंतकाल की खबर पर आंसू बहाने वाले लोगों की पंक्ति में अगर अवधेश बजाज, कीर्ति राणा, भरत शुक्ला जैसे लोग शामिल होते हैं तो ये महज यारी, दोस्ती, मिलानसरिता नहीं बल्कि मुहब्बत की नई परवाज़ है। इंदौर, भोपाल या हिंदुस्तान भर में नहीं बल्कि सारी दुनिया में राहत की शायरी के आशिकों में बड़ी तादाद उनकी है जो अदब जानते हैं, समझते हैं और उसकी गहराई को महसूस करते हैं। जो लोग राहत को एक मजहब का नुमाइंदा मानकर उनके खिलाफ नफरत की गन्दगी फैलाने पर आमादा हैं, उन्हें शायद इस बात की जानकारी नहीं है कि राहत ने प्रेम, मुहब्बत और सौहार्द्र की जो गंगा अपने साहित्य के जरिए फैलाई है, वह बरसों बरस बहती रहने वाली है, नफरत के गंदे नाले इसके आसपास भी नहीं फटकने पाएंगे और कहीं रास्ते में ही सूखकर रह जाएंगे।

सोशल मीडिया, चैनल, अखबार

राहत के आहत होने की खबरों का जब सिलसिला शुरू हुआ तो सोशल मीडिया का कोई माध्यम ऐसा बाकी नहीं था, जिसपर राहत इंदौरी मौजूद न हों। व्हाट्सएप स्टेटस से लेकर फेसबुक स्टोरीज पर सिर्फ और सिर्फ राहत का कब्जा दिखाई दे रहा था। लोकल, प्रादेशिक से लेकर नेशनल न्यूज चैनल की बड़ी खबरें राहत इंदौरी के बगैर अधूरी लग रही थीं तो सुबह तक इंतजार न कर पाने वाले अखबारों ने राहत को स्पेशल एडिशन देकर खिराज ए अकीदत पेश की। बुधवार के अखबार राहत की आहट ख़तम हो जाने के समाचारों से भरे पड़े थे। सियासी पार्टियों के नेताओं से लेकर फिल्मी दुनिया के लोग और साहित्य के मंच पर साथ निभाने वालों से आमजन तक ने इस नुक़सान का अंदेशा होने की बात पर ध्यान न जाने के विचार रखे।

राहत इंदौरी के बेटे सतलज राहत ने उनकी आखिरी ग़ज़ल सोशल मीडिया पर शेयर की है। राहत ने महामारी के इस दौर को, हर तरफ फैले खोफ को और दुनिया में फैले ताजा हालात को शब्दों में पिरोया है।

“नए सफ़र का जो ऐलान भी नहीं होता,
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता ||
तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते हैं,
जिनके कमरों में गुलदान भी नहीं होता ||
ख़ामोशी ओढ़ के सोई हैं मंदिर मस्ज़िदें सारी
किसी की मौत का ऐलान भी नहीं होता ||
वबा ने काश हमें भी बुला लिया होता,
तो हम पर मौत का अहसान भी नहीं होता…!”

 

खान आशु, भोपाल ब्युरो

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