खुद को हिंदू धर्म रक्षक बताकर सनातनी हिन्दुओं के धार्मिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण का यह नया और बेहद निंदनीय तरीका है। व्हाट्स एप पर एक मैसेज कई दिनो से वायरल हो रहा है। जिसके मुताबिक बीते सौ सालों से हिन्दुओं की धार्मिक आध्यात्मिक पुस्तकों का किफायती मूल्य पर प्रकाशन करने वाला गोरखपुर का प्रसिद्ध गीता प्रेस बंद होने वाला है। व्हाॅट्स एप पर एक ‘दुखद समाचार’ शीर्षक से यह मैसेज कई दिनो से चल रहा है। मैसेज में एक टीवी चैनल का हवाला देते हुए कहा गया है कि प्रेस अपने कर्मचारियों को वेतन देने की स्थिति में भी नहीं है। क्योंकि वो सारी पुस्तकें बिना लाभ के बेचते हैं। ( प्रेस का बंद होना) हिंदू धर्म के लिए बड़ी क्षति होगी।
10 रू. में तो चाय भी नहीं आती। धर्म को बचाना है तो इस मैसेज को 20 लोगों को फारवर्ड करें। हालांकि इस मैसेज में किसी का नाम नहीं है और न ही सीधे तौर पर कोई राशि मांगी गई है, लेकिन खुद गीता प्रेस के अनुसार कुछ संगठित असामाजिक तत्व लोगों की धार्मिक भावना का शोषण कर चंदा वसूली कर रहे हैं। यह खेल 2015 से चल रहा है, जब गीता प्रेस में कर्मचारियो की हड़ताल हुई थी। पिछले साल भी गीता प्रेस के व्यवस्था विभाग ने बाकायदा बयान जारी कर कहा था कि न तो गीता प्रेस घाटे में है और न ही बंद होने की कोई आशंका है। सस्ती दरों में धार्मिक किताबें छापकर भी संस्था आर्थिक रूप से सक्षम है। कुछ लोग गीता प्रेस की कथित मदद के नाम पर चंदा वसूली कर रहे हैं। जबकि संस्था किसी से कोई मदद नहीं लेती। इसके बाद भी यह लोगों को भ्रमित करने का खेल जारी है। लोग बिना सोचे-समझे ऐसे मैसेज फारवर्ड भी कर रहे हैं, क्योंकि सच क्या है, उन्हें पता ही नहीं है और न ही जानने की इच्छा है।
पहले गीता प्रेस की बात। गीता प्रेस का नाम हिंदी धार्मिक-आध्यात्मिक साहित्य के प्रकाशन और सनातन तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में अन्यतम है। गोरखपुर शहर में स्थित यह विशाल प्रेस अब हिंदी धार्मिक प्रकाशन व्यवसाय का ‘तीर्थ स्थल’ बन चुका है। कुछ लोग धार्मिक-आध्यात्मिक साहित्य को ‘साहित्य’ नहीं मानते। लेकिन जनमानस में इसी साहित्य की सर्वाधिक पैठ, मान्यता और आदर है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। गीता प्रेस ने इस काम में अपना अमूल्य योगदान दिया है और दे रहा है। आज यह हिंदू धार्मिक-आध्यात्मिक साहित्य का सबसे बड़ा प्रकाशक है। इसकी स्थापना जय दयाल गोयनका और घनश्यामदास जालान ने 1923 में की थी। जिसका उद्देश्य सनातन धर्म के तत्वों से लोगों को परिचित कराना था। हनुमान प्रसाद पोद्दार प्रेस की अनूठी धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के आजीवन संपादक रहे।
उन्हें ‘भाईजी’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने हिंदू शास्त्रों, वेदो, उपनिषदो, गीता, पुराणों,रामायण, महाभारत आदि को पारंपरिक लेकिन सरल हिंदी में लाखो लोगों तक पहुंचाने का काम आजीवन किया। भाईजी ने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। जेल गए। राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों और महात्मा गांधी से भी उनका निकट संपर्क था। अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयनका की गीता भक्ति को देखकर भाईजी ने भी प्रण किया कि वो आजीवन लोगों को नाम मात्र के मूल्य पर गीता उपलब्ध कराएंगे ताकि लोग गीता दर्शन को जान सकें। गीता प्रेस के धार्मिक जागरण से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने 1933 में प्रेस के संचालकों को गुजराती में एक प्रशंसात्मक पत्र लिखा था, यह पत्र प्रेस के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। गांधीजी ने लिखा था कि गीता प्रेस का यह कार्य आगे चलकर मील का पत्थर बनेगा। यही नहीं, भाईजी की जन्म शती पर 1992 में तत्कालीन पी.वी.नरसिंहराव सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया था।
प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका आज भी करीब ढाई लाख बिकती है। गीता प्रेस में एक संग्रहालय भी है, जिसमें 3500 प्राचीन पांडुलिपियां और श्रीमद भगवद गीता की सौ टीकाएं भी शामिल हैं। साथ ही एक आर्ट गैलरी व श्रीकृष्ण लीला संग्रहालय भी है। गीता प्रेस की स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य गीता के ज्ञान का प्रचार ही था। के धार्मिक प्रकाशनों की लोकप्रियता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यह अब तक 7 करोड़ से अधिक भगवद गीता व इतनी ही संख्या में रामचरित मानस की प्रतियां छाप चुका है। ये सभी पुस्तकें व ग्रंथ बेहद सस्ते दामों में बेची जाती है। प्रेस 1800 से अधिक शीर्षक छापता है। हिंदी के साथ-साथ गीता प्रेस गुजराती, मराठी, तमिल,अंग्रेजी,बंगाली, नेपाली, ओडिया व संस्कृत भाषा में भी धार्मिक किताबें छापता है। ये किताबें देश भर में फैले 21 वितरण केन्द्रों से लोगों तक पहुंचती है। कई लोग गीता प्रेस को श्रद्धा के साथ देखने आते हैं।
समय के साथ गीता प्रेस का भी आधुनिकीकरण हुआ है। कई अत्याधुनिक मशीनें लगी हैं। प्रेस में तीन सौ से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं। हालांकि 6 साल पहले वेतन व ठेका श्रमिकों को लेकर कर्मचारियों ने हड़ताल की थी। जिससे प्रेस कुछ समय बंद रहा था। बाद में प्रेस मालिकों और कर्मचारियों में समझौता हो गया और काम फिर शुरू हो गया। रहा सवाल कारोबार का तो प्रेस प्रबंधको के अनुसार धार्मिक पुस्तकों की मांग पर न तो बाजारवाद का असर हुआ न जीएसटी का और न ही नोटबंदी का। उनकी पुस्तकों की मांग यथावत रहती है। केवल कोरोना लाॅक डाउन में थोड़ा काम प्रभावित हुआ। प्रेस ने 2018 में 66 करोड़ रू. की किताबें बेचीं। यह सचाई है कि जहां हिंदी में एक किताब की तीन सौ प्रतियों का संस्करण बिक जाना भी ‘सफलता’ मानी जाती हो, वहां गीता प्रेस पुस्तकों के छपाई आॅर्डर 50 हजार से कम शायद ही होते हैं।
इस लेख का उद्देश्य ‘गीता प्रेस’ का प्रचार करना नहीं है, बल्कि उस हकीकत को सामने लाना है, जो अब लोगों की धार्मिक आस्था का नए रूप में शोषण करने पर आमादा है। आश्चर्य नहीं कि सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे ‘दुखद समाचार’ से द्रवित होकर कई लोगों ने पैसे भेज भी दिए हों। यह धर्म-दान किनकी जेबों में गया, किसी को नहीं पता। गीता प्रेस प्रबंधकों के अनुसार पहली बार ऐसी शिकायत मिलने पर उन्होंने कुछ समय के लिए प्रेस का बैंक खाता भी बंद करवा दिया था। लोगो से कहा गया कि प्रेस को किसी मदद की दरकार नहीं है।
‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में गीता प्रेस के काम को ‘ हिंदू एकजुटता के लिए आत्म अस्मिता और नियामक सांस्कृतिक मूल्य को सहेजने के लोकप्रिय प्रयास’ के रूप में पारिभाषित किया गया है। गीता प्रेस की कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है। लेकिन वो आम हिंदू की धार्मिक-आध्यात्मिक भूख का शमन करने का काम निष्ठापूर्वक करती आ रही है। चाहें तो इसे हम व्यावसायिक सफलता और धर्म प्रचार के संयोग के रूप में भी देख सकते हैं। अब सवाल यह है कि इतना कुछ साफ होने के बाद भी ‘धर्म को बचाने के नाम पर’ चंदा वसूली और भावनात्मक ठगी का यह खेल कैसे चल रहा है, कौन इसे चला रहा है और इसे चलने देने में किसका फायदा है?
जिस धर्म को बचाने की गुहार की जा रही है, उसे बचाने वालों की असल मानसिकता क्या है, यह समझा जा सकता है। इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि क्या हिंदू मानस अब इतना अंधा और विवेकशू्न्य हो चुका है कि वह किसी भी मैसेज पर भरोसा कर उसे फारवर्ड करने को ही ‘हिंदू धर्म की सेवा’ मानने लगा है? गीता प्रेस की कथित मदद का अभियान चलाने वाले इतना तो याद रखें कि श्रीमद भगवद गीता’ में लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण ने अर्जुन के विवेक और कर्तव्य भाव को ही जगाया था। उस जमाने में सोशल मीडिया भी होता तो…?