पूरी उम्र ससुराल में गुजारी मैंने
फिर भी मायके से कफ़न मंगाना
मुझे अच्छा नहीं लगता
शादीशुदा महिलाओ को कुछ बाते अच्छा नहीं लगती, पर वे किसी से कहती नहीं… उन्ही एहसासों को इकट्ठा करके एक कविता लिखी है…
” मुझे अच्छा नही लगता ”
मैं रोज़ खाना पकाती हू,
तुम्हे बहुत पयार से खिलाती हूं,
पर तुम्हारे जूठे बर्तन उठाना
मुझे अच्छा नही लगता।
कई वर्षो से हम तुम साथ रहते है,
लाज़िम है कि कुछ मतभेद तो होगे,
पर तुम्हारा बच्चों के सामने चिल्लाना मुझे अच्छा नही लगता।
हम दोनों को ही जब किसी फंक्शन मे जाना हो,
तुम्हारा पहले कार मे बैठ कर यू हार्न बजाना
मुझे अच्छा नही लगता।
जब मै शाम को काम से थक कर घर वापिस आती हू,
तुम्हारा गीला तौलिया बिस्तर से उठाना
मुझे अच्छा नही लगता।
माना कि तुम्हारी महबूबा थी वह कई बरसों पहले,
पर अब उससे तुम्हारा घंटों बतियाना
मुझे अच्छा नही लगता।
माना कि अब बच्चे हमारे कहने में नहीं है,
पर उनके बिगड़ने का सारा इल्ज़ाम मुझ पर लगाना
मुझे अच्छा नही लगता।
अभी पिछले वर्ष ही तो गई थी,
यह कह कर तुम्हारा,
मेरी राखी डाक से भिजवाना
मुझे अच्छा नही लगता।
पूरा वर्ष तुम्हारे साथ ही तो रहती हूँ,
पर तुम्हारा यह कहना कि,
ज़रा मायके से जल्दी लौट आना
मुझे अच्छा नही लगता।
तुम्हारी माँ के साथ तो
मैने इक उम्र गुजार दी,
मेरी माँ से दो बातें करते
तुम्हारा हिचकिचाना
मुझे अच्छा नहीं लगता।
यह घर तेरा भी है हमदम,
यह घर मेरा भी है हमदम,
पर घर के बाहर सिर्फ
तुम्हारा नाम लिखवाना
मुझे अच्छा नही लगता।
मै चुप हूँ कि मेरा मन उदास है,
पर मेरी खामोशी को तुम्हारा,
यू नज़र अंदाज कर जाना
मुझे अच्छा नही लगता।
पूरा जीवन तो मैने ससुराल में गुज़ारा है,
फिर मायके से मेरा कफन मंगवाना
मुझे अच्छा नहीं लगता।
अब मै जोर से नही हंसती,
ज़रा सा मुस्कुराती हू,
पर ठहाके मार के हंसना
अौर खिलखिलाना
मुझे भी अच्छा लगता है।