हंगर इंडेक्स क्या है? इसका आसान अर्थ ये है कि अगर किसी देश का हंगर इंडेक्स अधिक है, तो इसका मतलब है कि उस देश में भूख की समस्या भी अधिक है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स को चार पैमाने पर नापा जाता है. ये पैमाने हैं, कुपोषण, बच्चों में कुपोषण, बच्चों के विकास में रुकावट और बाल मृत्यु दर. साल 2017 की ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट आई है. 119 देशों की सूची में भारत 100वें नंबर पर है (नेपाल, बर्मा से भी नीचे). 2014 में भारत का स्थान 55वें नंबर पर था. पिछले तीन सालों में भारत 45 सीढ़ी लुढ़कते हुए 100 पर आ गया है. ये रिपोर्ट ये नहीं बताती है कि किसी आदमी को खाना मिलता है या नहीं.
ये रिपोर्ट ये बताती है कि पोषक खाना मिलता है या नहीं. बच्चों को खाने में पोषकता मिलती है या नहीं. इस रिपोर्ट के हिसाब से भारत के बच्चों को पोषक खाना नहीं मिलता. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में 5 साल से कम उम्र का तीन में से एक बच्चा अंडरवेट है. तीन में से एक बच्चा नाटा है, 5 में से एक बच्चा काफी कमजोर है. आंकड़ों की बाजीगरी को यहीं तक रहने दीजिए और ये देखिए कि कैसे मिड डे मिल, मनरेगा जैसे कार्यक्रम की वजह से किसी तरह भारत का ग्रामीण हिस्सा अपना भूख शांत करता है. अन्त्योदय का चावल, मनरेगा से मिले कुछ रुपए करोड़ों घरों में चूल्हा जला देते हैं. लोग कुछ भी खा कर पेट भर लेते हैं, बिना ये चिंता किए कि उनके बच्चे के बोन डेवलपमेंट के लिए कैल्शियम और विटामिन डी मिल रहा है या नहीं.
2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 119 देशों में भारत 100वें पायदान पर है. एशिया में भारत सिर्फ अ़फग़ानिस्तान और पाकिस्तान से आगे है. नेपाल, बर्मा, श्रीलंका, बांग्लादेश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल कुपोषण ने इस बुरी स्थिति को और बदतर बना दिया है. दुख की बात ये है कि एक तरफ देश में सबसे बड़ी मूर्ति, सबसे तेज ट्रेन यानि बुलेट ट्रेन लाने की तैयारी की जा रही है, वहीं भारत की एक बड़ी जनसंख्या को ठीक से दो जून का खाना तक नसीब नहीं हो रहा है. सवाल यह है कि क्या ऐसे ही भूखे और कुपोषित लोगों की फौज से न्यू इंडिया बनेगा? इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में पांच साल तक की उम्र के बच्चों की कुल आबादी का 20 फीसदी अपने कद के मुकाबले बहुत कमजोर है. तीन में से एक बच्चा अंडरहाइट यानि उसका विकास ठीक से नहीं हुआ है.
देश के भीतर के सरकारी आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं. 2017 के अप्रैल में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने संसद मेंबताया था कि देश में 93 लाख से ज़्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं. उन्होंने बताया कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार, देश में कुल 93.4 लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं. इसमें से 10 प्रतिशत को चिकित्सा संबंधी जटिलताओं की वजह से एनआरसी में भर्ती की ज़रूरत पड़ सकती है. एक आंकड़े के मुताबिक आज भारत में 21 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. दुनिया भर में सिर्फ तीन ही देश, जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सूडान, ऐसे हैं, जहां 20 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. जाहिर है, स्वास्थ्य और पोषण को लेकर सरकार की सारी योजनाएं इस मामले में असफल साबित हो रही हैं.
सरकार ने बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में कुपोषण के मसले को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए कई योजनाएं बनाईं. आईसीडीएस परियोजनाओं के अलावा, किशोरी शक्ति योजना (केएसवाई) और किशोरियों के लिए पोषण संबंधी कार्यक्रम (एनपीएजी), राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम), मध्याह्न भोजन योजना (एमडीएम), पेयजल एवं संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी), स्वर्णजयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना (एसजीएसवाई), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमएनआरईजीएस) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी योजनाएं भी हैं.
आईसीडीएस योजना में छह सेवाओं का पैकेज उपलब्ध कराया जाता है- पूरक पोषाहार, स्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा, पोषण एवं स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाएं. इनमें से तीन सेवाएं (टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाएं) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के माध्यम से उपलब्ध कराई जाती हैं. केंद्र सरकार ने बच्चों में कुपोषण की पहचान करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा प्रस्तावित मानकों को 15 अगस्त 2008 को स्वीकार किया था.
1993 की राष्ट्रीय पोषण नीति और 1995 की राष्ट्रीय पोषण कार्ययोजना में राज्यों में राज्य पोषण परिषदों की स्थापना की परिकल्पना की गई. ऐसे कितने परिषद स्थापित किए गए हैं, इसकी जानकारी न मीडिया को है, न आम आदमी को. गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए भी करोड़ों रुपए का बजट है. सरकार की ओर से कुपोषण का मुकाबला करने के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर योजनाएं चलाई जाती हैं. लेकिन, अगर हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में हम साल दर साल नीचे गिरते जा रहे हैं, तो जाहिर है कि ये योजनाएं अपने मकसद में असफल साबित हो रही हैं.
इन तमाम योजनाओं के बाद भी ग्रामीण भारत को आवश्यक पोषण नहीं मिलता. 1975-79 की तुलना में आज औसतन ग्रामीण भारतीय को 500 कैलोरी, 13 ग्राम प्रोटीन, पांच मिलीग्राम आयरन, 250 मिलीग्राम कैल्शियम व करीब 500 मिलीग्राम विटामिन-ए कम मिल रहा है. तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चे, प्रतिदिन 300 मिलीलीटर दूध की बजाय 80 मिलीलीटर दूध ही ले पाते हैं. यही वजह है कि 35 फीसदी ग्रामीण पुरुष और महिलाएं कुपोषित और 42 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं. ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में भुखमरी बढ़ रही है और जैसे हालात हैं, उससे 2030 तक भुखमरी मिटाने का अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य शायद ही पूरा हो पाए. भारत के सन्दर्भ में बात करें तो एक दिलचस्प आंकड़ा और भी है. जहां भारत के लोग भूख से पीड़ित हैं, वहीं संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 40 ़फीसदी खाना बर्बाद हो जाता है. अगर, इस आंकड़े पर विश्वास न हो तो एक बार किसी शादी, होटल, किसी पारिवारिक या सामाजिक कार्यक्रमों में जा कर देखें कि हम जितना खाना कूड़े में फेंकते हैंै, उतना भी करोड़ों लोगों को खाने के लिए नहीं मिलता है.