भारत की संसद में महान विद्वान सांसद हैं. लोकसभा हो या राज्यसभा, इन सांसदों से मिलने पर लगता है कि इनसे बड़ा बुद्धिमान और इनसे ज्यादा समझदार देश में कोई है नहीं. इस समझदारी पर उनकी आरती उतारी जाए, ऐसा मन करता है. सांसदों के बारे में अगर कोई बात करें, उसे सांसद संसद के अपमान की संज्ञा से विभूषित करने लगते हैं. लेकिन वक्तआ गया है कि इन सांसदों के बारे में हम भी बात करें और आप भी बात करें. जब तक देश की जनता सांसदों के बारे में बात नहीं करेगी, तब तक इन सांसदों को अपना बुनियादी कर्तव्य भी याद नहीं आएगा.
संसद इसलिए होती है कि उसमें देश से जुड़ी समस्याओं पर बातचीत हो, उनका विश्लेषण हो और उनका हल कैसे निकाला जाए, इसके ऊपर फैसला हो. लेकिन, देश की बुनियादी समस्याओं पर इस संसद में कभी बहस होती ही नहीं है. सरकार आधे-अधूरे मन से या अपनी बुद्धिमत्ता से जो फैसले लेती है, उन फैसलों को विश्लेषित करने का भी काम संसद में नहीं होता. ज्यादातर सांसद तो संसद में वो कागज पढ़कर भी नहीं जाते, जो उनके यहां संसद की कार्यवाही की जानकारी देने के लिए रोज सुबह भेजे जाते हैं. हम यह बात इसलिए दावे के साथ कह रहे हैं क्योंकि अगर वे उन कागजों को पढ़कर जाते, जो उनके यहां रोज सुबह संसद का सचिवालय भेजता है, तो लोकसभा या राज्यसभा में कुछ तो सार्थकता नज़र आती. अगर एक सर्वे करें, जिसे हम नहीं करना चाहते, कि देश की दस बुनियादी समस्याएं क्या हैं और उनकी प्राथमिकतायें क्या हैं. अगर ये कोई सांसदों से पूछे तो उसके मजेदार उत्तर मिलेंगे. लेकिन जो भी उत्तर मिले, उन उत्तरों के ऊपर भी कभी संसद में गंभीर बहस हुई हो और उस बहस का कोई हल निकला हो, ऐसा संसद के बाहर बैठने वाले लोगों को कुछ पता नहीं. अभी ताजा-ताजा एक उदाहरण सामने आया है.
पिछली मनमोहन सिंह सरकार ने देश में आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया शुरू की. आधार कार्ड के ऊपर साठ हजार करोड़ रुपये का बजट बिना संसद की जानकारी में लाये, मंत्रिमंडल ने पास कर दिया और उसके ऊपर खर्च करना भी शुरू कर दिया. बहुत बड़े बिजनेसमैन नंदन नीलेकणी को इस योजना का मुखिया बनाया गया. उन्होंने आधार कार्ड बनाने के लिए बहुत सारे ऐसे ग्रुप चुन
सवाल उठता है कि आधार कार्ड बनने के बाद, इसकी जानकारी या इसके बनाने का जिम्मा अमेरिकी तकनीकि विशेषज्ञों को क्यों दिया गया? क्या हमारे देश में अपना सर्वर बनाया नहीं जा सकता था? क्या जानकारी हम अपने पास नहीं रख सकते थे? फिर अगर कोई भीतराघात होता या हमारी जानकारी विदेशों में जाती तो हमारे अपने लोग इसके लिए जिम्मेदार होते या हम उसके ऊपर तकनीकी पहरा बैठा सकते थे. पर हमने जान-बूझकर ये सारी जानकारी विदेशियों के हाथ में दे दी.
लिए जिनका अस्तित्व संदेह के घेरे में है. इसका परिणाम जो होना था, वह हुआ. बहुत सारी जगहों पर गलत आधार कार्ड बने, दो-दो आधार कार्ड बने. गलत पते से आधार कार्ड बने और हर उस व्यक्ति को आधार कार्ड मिल गया जिनको नहीं मिलना चाहिए था. पर ये दूसरी तरह की बहस है. सवाल अभी दूसरा है.
मुख्य सवाल आधार कार्ड को लेकर दूसरा है. पहला, संासदों को पता नहीं है कि आधार कार्ड की सारी जानकारी कहां भेजी जा रही है. सांसदों को यह भी पता नहीं है कि आधार कार्ड का मतलब दुनिया की उन बड़ी कंपनियों के पास हमारी देश के हर व्यक्ति की बुनियादी जानकारी भेजना है, जो मल्टीनेशनल कहलाती हैं और जो देश में व्यापार करना चाहती हैं. आधार कार्ड का दूसरा उद्देश्य अमेरिकी सरकार के पास हमारी सारी बुनियादी जानकारी भेजना है ताकि वह देश में कैसी सरकार हो, कैसा विपक्ष हो, कैसे सुप्रीमकोर्ट के जज हों और कैसे सेना के अफसर हों, इसका विश्लेषण कर सकें और उस पद पर भविष्य में आने वाले हर व्यक्ति को अपने प्रभाव क्षेत्र में ला सके. शायद इसका साधारण भाषा में अर्थ यह होता है कि देश के ऊपर बिना हमला किए, देश को अपना गुलाम बना लेना. देश को गुलाम बना लेने का मतलब देश के हर व्यक्तिको आर्थिक या दूसरे तरीकों से अपने दबाव में लगातार बनाए रखना. मल्टीनेशनल कंपनियां या अमेरिकी सरकार में काम करने वाले लोग हमारे देश के दुश्मन समूहों को ये जानाकरी भेज सकते हैं. इस बात का भी खतरा है कि अभी तक जितनी जानकारियां अमेरिका के पास गई हैं वो जानकारियां पाकिस्तान और चीन के साथ शायद बांटी जा चुकी हैं. इस आधार कार्ड में उपलब्ध जानकारी के हिसाब से अमेरिका में बैठा हुआ, हिन्दुस्तान के ऊपर नजर रखने वाला व्यक्ति यह जान सकता है कि हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री, हिन्दुस्तान का सेना नायक, हिन्दुस्तान के मुख्य न्यायाधीश और हिन्दुस्तान का प्रत्येक वह व्यक्ति जो हिन्दुस्तान में जरा भी महत्व रखता है, कहां जा रहा है, क्या कर रहा है, किससे मिल रहा है. अब इसके लिए किसी व्यक्ति के निजी स्टाफ को घूस देने की जरूरत नहीं है. आवागमन सहित सारी जानकारियां आधार कार्ड के जरिए अमेरिका में बैठे हुए उस सेल के पास हैं, जो सेल हिन्दुस्तान की राजनीति की दशा और दिशा का विश्लेषण करती है. तो इसका मतलब है कि हमारी सरकार और विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले कदमों को भी अमेरिका कहीं न कहीं प्रभावित भी कर रहा है और नियंत्रित भी कर रहा है.
हिटलर ने जब हत्याएं कीं, तो उन सारे यहूदियों के नाम, पता, उन्हें अमेरिका की आईबीएम कंपनी ने उपलब्ध कराये थे. जर्मनी में आधार कार्ड जैसे शिनाख्ती कार्ड आईबीएम ने ही बनाये थे. अब भारत के मासूम और समझदार सांसदों को देशद्रोही कहें या नहीं, समझ नहीं पा रहा हूं, लेकिन ये अज्ञानी हैं, इतना तो पहली ही नज़र में समझ सकते हैं. क्योंकि देश की संपूर्ण जानकारी जब विदेशों में भेज दी गई और वे अंजान बन रहे हैं, या चुप हैं. अब इन सभी सांसदों से कहा गया है कि वे अपना आधार कार्ड फौरन बनवा लें.
हमारे संवादाताओं ने संसद के सांसदों से बातचीत की जिसमें सांसदों की एक बड़ी संख्या को यह पता ही नहीं है कि आधार कार्ड क्यों बना, आधार कार्ड के परिणाम क्या आने वाले हैं, आधार कार्ड का किसलिए इस्तेमाल होने वाला है? मुसलमान सांसदों की तो और खराब स्थिति है. उन्हें इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि जिस तरीके से दुनिया में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है और जिसका असर हिन्दुस्तान में भी दिखाई दे रहा है, आधार कार्ड की जानकारी का इस्तेमाल इस देश के मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भी किया जा सकता है. आधार कार्ड को कंट्रोल करने वाली बड़ी कंपनियों के मालिक इज़रायल से जुड़े हुए हैं और ये सांसद संसद की सुविधा का भोग करते हुए इस बात से अंजान हैं कि उनकी पूरी कौम के सामने किस तरह का खतरा पैदा हो रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को अनिवार्य करने की बात सिरे से खारिज कर दी. वहां पर मुकदमा चल रहा है कई भूतपूर्व जज और बड़े विशेषज्ञ आधार कार्ड से उत्पन्न खतरे के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का उसके ऊपर सिर्फऑब्जर्वेशन नहीं है, बल्कि लगभग यह फैसला है कि आधार कार्ड को कहीं पर अनिवार्य न माना जाये. लेकिन भारत की मौजूदा सरकार आधार कार्ड को हर जगह अनिवार्य बना रही है. वस्तुत: भारत की सरकार सुप्रीमकोर्ट के फैसले के खिलाफ काम कर रही है. इसका एहसास न राज्यसभा के सांसदों को है न लोकसभा के सांसदों को है. किसी ने एक शब्द सुप्रीम कोर्ट के फैसले और आधार कार्ड को लागू करने की केंद्रीय सरकार की मंशा के ऊपर न राज्यसभा में कहा, न लोकसभा में कहा.
सुप्रीमकोर्ट इस केस की सुनवाई कर रहा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को भी यह समझ में नहीं आता है कि बड़े पैमाने पर केंद्रीय सरकार के फैसले अखबारों में छप रहे हैं औऱ उसके फैसले के खिलाफ केंद्रीय सरकार आधार कार्ड को अनिवार्य करती जा रही है. वहीं सुप्रीमकोर्ट के माननीय जज इस फैसले को पढ़ते हुए केंद्रीय सरकार के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं.
सवाल उठता है कि आधार कार्ड बनने के बाद, इसकी जानकारी या इसके बनाने का जिम्मा अमेरिकी तकनीकि विशेषज्ञों को क्यों दिया गया? क्या हमारे देश में अपना सर्वर बनाया नहीं जा सकता था? क्या जानकारी हम अपने पास नहीं रख सकते थे? फिर अगर कोई भीतराघात होता या हमारी जानकारी विदेशों में जाती तो हमारे अपने लोग इसके लिए जिम्मेदार होते. या हम उसके ऊपर तकनीकी पहरा बैठा सकते थे. पर हमने जान-बूझकर ये सारी जानकारी विदेशियों के हाथ में दे दी.
इससे भी मजे की बात. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वो सरकार में आते हैं तो आधार कार्ड को नहीं मानेंगे. भारतीय जनता पार्टी ऑन रिकार्ड कह चुकी है कि अगर वो सत्ता में आती है तो आधार कार्ड को बैन (प्रतिबंधित) कर देगी. लेकिन अचानक वित्त मंत्री अरुण जेटली से नंदन नीलेकणी की मुलाकात होती है. लगभग एक घंटे बंद कमरे में बातचीत होती है और श्री अरुण जेटली और भारत की सरकार कांग्रेस से ज्यादा सख्त रूप से आधार कार्ड को लागू करने में लग जाती है. न भारतीय जनता पार्टी अपने पुराने वायदे पर कायम रहती है और न श्री नरेंद्र मोदी पुराने वायदे पर कायम रहते हैं. आखिर में आपको बता दें कि हिटलर ने जब हत्याएं कीं, तो उन सारे यहूदियों के नाम, पता, उन्हें अमेरिका की आईबीएम कंपनी ने उपलब्ध कराये थे. जर्मनी में आधार कार्ड जैसे शिनाख्ती कार्ड आईबीएम ने ही बनाये थे. अब भारत के मासूम और समझदार सांसदों को देशद्रोही कहें या नहीं, समझ नहीं पा रहा हूं, लेकिन ये अज्ञानी हैं, इतना तो पहली ही नज़र में समझ सकते हैं. क्योंकि देश की संपूर्ण जानकारी जब विदेशों में भेज दी गई और वे अंजान बन रहे हैं, या चुप हैं. अब इन सभी सांसदों से कहा गया है कि वे अपना आधार कार्ड फौरन बनवा लें. सभी सांसद बनवाएंगे भी, क्योंकि जब देश की जानकारी बाहर चली गई है, तो इन नए चुने सांसदों की जानकारी भी तो विदेशों में जानी है.