UPENDRAपिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए में शामिल होकर तीन लोकसभा क्षेत्रों में जीत हासिल करने वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी इन दिनों दो भागों में बंट जाने के बाद असमंजस में है और सबसे ज्यादा राजनीतिक रूप से विवाद में है. एक तरह से रालोसपा की पहचान ‘कुशवाहा’ की पार्टी के रूप में हो गई है. बिहार के कई बड़े कुशवाहा चेहरों ने रालोसपा में शामिल होकर पार्टी को बड़ा तो बना दिया, लेकिन आने वाले लोकसभा चुनाव में टिकट की चाहत रखने वाले नेताओं ने पार्टी प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा ने काराकट, जहानाबाद और सीतामढ़ी से जीत हासिल की थी. इस जीत में एनडीए का घटक दल और नरेन्द्र मोदी के प्रभाव का असर था. सब लोगों की जुबान पर यह बात है कि अब भले ही उपेन्द्र कुशवाहा ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ा ली हो, लेकिन तीन सांसद वाले पार्टी को भी वे एकजुट नहीं रख पाए. जहानाबाद के रालोसपा सांसद और बिहार प्रदेश अध्यक्ष अरुण कुमार से विवाद होने का मुख्य कारण राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही है.

दोनों नेता खुद को एक-दूसरे से बड़ा साबित करना चाहते हैं. हाल के दिनों में केन्द्रीय राज्य मंत्री और रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा के बयानों से एनडीए के नेताओं को असहजता होने लगी है. नागमणी, भगवान सिंह कुशवाहा जैसे नेताओं के आने से रालोसपा प्रमुख को लोकसभा चुनाव के लिए एनडीए से अधिक सीट की मांग के लिए दबाव बढ़ाना पडा. दूसरी ओर, उपेन्द्र कुशवाहा को राजद व महागठबंधन के नेताओं के साथ समय-समय पर गलबहियां करते भी देखा जाने लगा है और बिहार एनडीए के कई कार्यक्रमों में उनकी अनुपस्थिति ने भी रालोसपा के एनडीए से अलग होने की चाहत को हवा दी है. इन्हीं सब राजनीतिक हालातों को देखते हुए काराकट लोकसभा क्षेत्र के लोगों को भी उपेन्द्र कुशवाहा के निणर्य का इंतजार है.

इस क्षेत्र के रालोसपा कार्यकर्ता भी असमंजस में हैं. उन्हें भी पता नहीं चल पा रहा है कि पार्टी प्रमुख लोकसभा चुनाव में एनडीए में रहेंगे या राजद के साथ महागठबंधन में जाएंगे? यदि उपेन्द्र कुशवाहा 2019 के लोकसभा चुनाव में काराकट से ही चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं, तो उनके लिए एनडीए ठीक रहेगा.

यह बात काराकट लोकसभा क्षेत्र की राजनीति की समझ रखने वाले लोगों का कहना है. क्योंकि काराकट लोकसभा क्षेत्र में पिछड़ा, महादलित की बात छोड़ भी दें तो वहां राजपूतों के करीब ढाई लाख और भूमिहारों के करीब ड़ेढ लाख मतदाता हैं, जो आज की तारीख में एनडीए के प्रमुख वोट बैंक हैं. ऐसे में विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से तो काराकट लोकसभा में आने वाले छह विधानसभा क्षेत्रों में से चार पर राजद का ही कैंजा है. नोखा से राजद की अनिता देवी, डिहरी से राजद के इलियास हुसैन, काराकट से राजद के संजय सिंह यादव तो नवीनगर से जदयू के वीरेन्द्र सिंह विधायक हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक समीकरण अलग था. तब जदयू, राजद और एनडीए की ओर से रालोसपा ने यहां से अलग-अलग चुनाव लड़ा था. जदयू से महाबली सिंह तो राजद से कांति सिंह चुनाव लड़ी थीं, लेकिन सफलता रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा को मिली. इस बार रालोसपा के साथ जदयू भी बिहार में एनडीए का हिस्सा हो गई है.

जदयू के एनडीए में आने से उपेन्द्र कुशवाहा अपने को कुछ असहज महसूस करने लगे हैं. बयानों से भी उपेन्द्र कुशवाहा बिहार एनडीए के नेताओं को यह बराबर अहसास कराते रहे कि हमारी उपेक्षा ठीक नहीं होगी. बिहार के नीतीश कुमार मंत्रिमंडल के एकमात्र राजपूत मंत्री जयकुमार सिंह की सक्रियता ने उपेन्द्र कुशवाहा की परेशानी को बढ़ा दिया है. इतना तो तय है कि भाजपा बिहार में लोकसभा सीटों के तालमेल में अपने घटक दलों में सबसे पहले जदयू को ही तरजीह देगी.

दूसरे स्थान पर लोजपा और तीसरे स्थन पर रालोसपा को रखेगी. ऐसे में अधिकतर सीट की चाहत रखने वाले उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए को छोड दें और महागठबंधन में शामिल हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. लेकिन जब लोकसभा में सुनिश्चित जीत की चाहत होगी तो सभी को छोड़कर एनडीए में भी वे व उनकी पार्टी बनी रह सकती है. काराकट लोकसभा क्षेत्र 2009 के चुनाव के पूर्व अस्तित्व में आया. तब जदयू के महाबली सिंह एनडीए प्रत्याशी के रूप में यहां से चुनाव जीते थे.

इससे पूर्व इस क्षेत्र का नाम विक्रमगंज था. नए परिसिमन में विक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र और विधान सभा क्षेत्र दोनों नहीं रहे. इस संसदीय क्षेत्र का नाम ही नहीं बल्कि भूगोल भी बदल गया. 2004 के लोकसभा चुनाव में जदयू के अजीत सिंह ने राजद के रामप्रसाद सिंह को 58801 मतों से हराया था. अजीत सिंह के असमयिक निधन के बाद हुए उपचुनाव में अजीत सिंह की पत्नी मीना सिंह यहां से सांसद हुई थीं. लेकिन आज विक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र के सारे समाजिक और भौगोलिक स्वरूप में पूरी तरह बदलाव आ गया है.

आज काराकट लोकसभा क्षेत्र एनडीए के गढ़ के रूप में माना जाता है. अब रालोसपा प्रमुख और केन्द्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के निर्णय पर क्षेत्र के लोगों की निगाहें टिकी हैं कि आखिर वे किधर जाते हैं?

 

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