साथीयो 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया गया 14 की रात को सोते समय मेरे मन में मेरा हिंदी के साथ कैसे संबंध आया ? यह विचार अचानक ही उछलकूद करने लगा ! तो अपने आप को जब्त कर के बडी मुश्किल से सोया ,और आज सबेरे सबसे पहले उस उछलकूद को आप सब के सामने पेश कर रहा हूँ !

मै महाराष्ट्र के पस्चिमी दिशा के गुजरात से सटे हुए धुलिया जिलें के साक्री तहसील (ब्लाक) के ढाई-तीन हजार जनसंख्या के मालपुर नाम के देहात में एक किसान परिवार में पैदा हुआ हूँ ! शायद मेरे पिताजी उस समय की सातवीं फायनल पास थे ! माता सिर्फ अपना नाम लिखने तक साक्षर थीं ! और हमारी बोली भाषा अहिराणी है !(यह खानदेश धुलिया,नंदुरबार, नासिक, जलगाव चार जिलों का महाराष्ट्र का एक हिस्सा ! जिसमे बोलीं जानें वालीं लोकल डायलेक्ट है ! ) मराठी मैंने स्कूल में दाखिल होने के बाद ही सिखना शुरू किया ! और महाराष्ट्र राष्ट्र भाषा नाम की संस्था द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए एक परीक्षा की शुरुआत हो चुकी थी ! तो मुझे मेरे शिक्षकों ने उस परीक्षा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया ! और मैंने कोई प्रबोध या रत्न नाम की उपाधि प्राप्त की थी ! और हिंदी देवनागरी लिपि में होने के कारण मुझे मराठी भाषा भी देवनागरी लिपि में ही होने के कारण हिंदी को लिखने-पढने में आसानी हुई ! पर समझता कितना था पता नहीं ! पर हमारे गाँव में हमारे ही घर मे एक फिलिप्स कंपनी का बडा सा रेडिओ सेट उसके एरियल के साथ प्रतिष्ठित हुआ ! शायद साठ के दशक में की बात है ! और उस रेडिओ पर आने वाले हिंदी सिनेमा के विविध भारती और बिनाका गितमाला के गानों ने मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धनमे इजाफा किया और! गुलशन नंदा नाम के एक उपन्यास कार की शायद ही कोई किताब होगी जो मैंने नहीं पढी होंगी ! पैकेट मनी का प्रचलन नहीं था पर कोई मेहमान जानें के वक्त कुछ आना दो आने की बक्षीस जरूर दे जाते थे ! तो वह इकठ्ठा कर के मैंने गुलशन नंदा की सभी किताबों का संग्रह किया था ! तो शायद मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में हिंदी की राष्ट्र भाषा द्वारा दी हुई परीक्षा और गुलशन नंदा, रेडियो के विविध भारती और बिनाका गितमाला के गानों ने मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में योगदान किया है ! फिर सातवीं कक्षा के बाद शिंदखेडा यह हमारे साक्री तहसील के बगल के दुसरे तहसील का गांव, जहाँ मेरे बुआ का ब्याह हुआ था ! तो उन्होंने अपने यहाँ मुझे आठवीं कक्षा में पढाई के लिए बुलाया ! और वहां राष्ट्र सेवा दल की शाखा लगतीं थीं ! तो संघ से निकाल बाहर करने के बाद ! मैंने राष्ट्र सेवा दल के शाखा में जाना शुरू कर दिया ! तो साल-भर में ही मुझे पुणे के साने गुरूजी स्मारक पर शिंदखेडा के प्रचारक श्री प्रभाकर पाटील जी ने अकेले ही शिंदखेडा से पुणे बस से पहले धुलिया और वहां से दुसरी बस द्वारा पुणे के लिए, शाखानायक-दस्तानायक के पहले ही शिबिर में भेजा गया था ! (1967) और उस एक हप्ते के शिबिर के बाद तत्कालीन पदाधिकारियों ने मुझे उस शिबिर की समाप्ति के बाद ही परस्पर पुणे से मध्य प्रदेश के हरदा नाम के गाँव, राष्ट्र सेवा दल के प्रशिक्षक की हैसियत से व्हाया कल्याण से जीवन में पहली बार रेल के जनरल डब्बा में अकेले ही भेज दिया ! और मैं भी मई की गर्मी में कल्याण से हरदा (चड्डी-बनियन पर क्योकि बेतहाशा गर्मी की वजह और खडे-खडे !) बारह से भी ज्यादा घंटों का सफर और मेरी उम्र सिर्फ पंद्रह साल !

आज पचास से भी ज्यादा साल बाद मन में आ रहा कि ,अज्ञानी होने का सिर्फ नुकसान नहीं होता है ! कुछ-कुछ फायदा भी होता है ! अगर मुझे अकेला सफर करना खतरनाक होता है ! इस बात का पता होता ! या मेरे घर-परिवार वाले मुझे गमले में लगे पौधा जैसे पाले होते तो ? अपने आप को इस तरह के प्रवास वह भी इतनी कम उम्र में ! मेरे अंदर के आत्मविश्वास को बढाने के लिए इन सब बातों का बहुत ही बडा योगदान रहा है ! राष्ट्र सेवा दल के हरदा और उसके बाद पिपरिया, भोपाल, रीवा हर जगह एक-एक हप्ते का शिबिर अकेले ही शाखा पद्धति से गाने और बौद्धिक (अब सचमुच कितना सही-ग़लत लिया होगा, यह देखने के लिए कौन था ?) क्योंकि मेरे खुद के जीवन का पहला प्रशिक्षण शिविर और वह समाप्त कर के खुद के बलबुते पर इसी तरह के दुसरे शिबिर को लेने वह भी महाराष्ट्र के बाहर हिंदी भाषी क्षेत्र में !
शायद उस समय की सभी गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने के बाद ही मैं वापस शिंदखेडा लौटा ! (नौवीं या दसवीं कक्षा का छात्र था !) और उस एक महिने के मध्य प्रदेश के (महाराष्ट्र के बाहर जाने का पहला मौका ! ) झक मार के जो भी हिंदी वार्तालाप किया होगा ! वह कितना सही-ग़लत होगा पता नहीं ! पर मध्यप्रदेश के उन सभी लोगों को( हरदा के शिलालपूरियाजी, पिपरिया के आर्य साहब, भोपाल की सविता वाजपेयी और रीवा के शास्त्री जी ! ) हृदय से धन्यवाद देना चाहूँगा कि, जिन्होंने एक पंद्रह साल के बच्चे को प्रशिक्षक के नाते बर्दाश्त किया है ! और भोपाल में सविता वाजपेयी जी के घर में हिंदी किताबों का संग्रह लगभग मैंने अकाल से आये हुए भूखे आदमी की तरह अमृतलाल नागर जी,तथा हिंदी के काफी गणमान्य लेखक और कवियों की किताबो का खजाना जिसमें, अमृता प्रीतम, यशपाल,फनिश्वर नाथ रेणु, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, कृष्ण चंदर, राही मासूम रज़ा, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद इत्यादि और सविता वाजपेयी जी के पति श्री बी एम भारती जी एम पी क्रानिकल के संपादक होने के कारण उनके घर पर लगभग सभी अखबार आते थे !

राही मासूम रज़ा

अज्ञेय

फनिश्वर नाथ रेणु

धर्मवीर भारती

अमृता प्रीतम

और धर्मयुग, दिनमान,नंदन, सारिका जैसी पत्रिकाओं के कारण मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में और वृद्धि हुई है ! हालाँकि दिनमान की हिंदी को समझने मे बहुत दिक्कत होती थी ! लेकिन लेखो की विषयवस्तु बहुत ही बढ़िया होने के कारण मै संत्रास-त्रासदी जैसे शब्द जो और कही नहीं देखने के बावजूद बर्दाश्त कर लेता था ! और मेरे अपने माता-पिता के घर के अलावा और दुसरे घर भोपाल सविता वाजपेयी जी के मेरे कालेज की शिक्षा खत्म होने तक मेरी सभी गर्मी की छुट्टियाँ और दीपावली या क्रिसमस की भी भोपाल में ही बीतीं है !

आज जो भी सही-ग़लत हिंदी लिख-बोल रहा हूँ ! वह सब एक अपरिहार्य अपरिस्थितियों के कारण ! अन्यथा हमारे अन्य मराठी भाषी मित्रों को बहुत खीज होती है कि तुम हिंदी मे क्यों लिखते रहते हो ? क्या डॉ राम मनोहर लोहिया के प्रभाव के कारण ? मुझे लोहिया अंग्रेजी न सिखने के लिए ढाल के रूप में जरूर काम आये लेकिन हिंदी के लिए नहीं हिंदी मेरे मित्रों के लिए लिख रहा हूँ ! हालाँकि मेरी हिंदी ही क्यों मराठी तक ढंग की नहीं होने के कारण मुझे मेरे एक मित्र के अतिबुद्धिमान सुपुत्र ने हडकाया है कि काका आपके मराठी और हिंदी के लेख पढने का मुझे बहुत ही कष्ट होता है ! तो मैंने उसे जवाब दिया कि बेटा मेरी मातृभाषा अहिराणी है और मराठी मुझे स्कूल में दाखिल होने के बाद ही सिखना शुरू किया और हिंदी रेडिओ तथा देवनागरी लिपि में होने के कारण मुझे पढने की नशा होने के कारण पढते-पढते और राष्ट्र सेवा दल के काम के लिए उम्र के पंद्रह साल के भी पहले से ही हिंदी भाषा बोलने वाले प्रदेशोंमें जानें का मौका मिला तो थोड़ी बहुत हिंदी में भी बोलने और लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ ! मेरा कदापि भी दावा नहीं रहा कि मैं बहुत अच्छा मराठी या हिंदी का विद्वान हूँ ! हालाँकि मेरी मान्यता है कि भाषा की शुद्धता का अभिमान वर्ण व्यवस्था का परिणाम है ! क्योंकि कौन लोग है की यही सही अंग्रेजी या मराठी या हिंदी या अन्य कोई भी भाषा शुद्ध-अशुद्ध है ? और इसी कारण समाज का बहुत ही बडा वर्ग मुकदर्शक बन कर हजारों सालों से भी ज्यादा समय हो रहा है भारत के काफी बडी आबादी कि अभिव्यक्ति नहीं के बराबर है ! अगर ज्योतिबा फुले और डॉ बाबा साहब अंबेडकर नहीं पैदा हुए होते तो आज भी चंद लोगों के लेखन को पढने की नौबत आई होती !

मराठी भाषा में दलित साहित्य यह शत-प्रतिशत डॉ बाबा साहब अंबेडकर के अथक प्रयासों के बाद दलितों में लिखने का आत्मविश्वास आया ! उनका पहला अखबार का नाम ही मुकनायक रखा था कि हमारे समाज को हजारों सालों से ज्ञान के प्रकाश से वंचित रखा गया है और तथाकथित मराठी साहित्यकारोंने दलित साहित्य को देखकर काफी नाकभौ सिकोडे है जब फ्रेंच, जर्मनी जैसे भाषाओं में अनुवाद हुआ और कमलेश्वर जैसे संपादक की नजरों में आने के कारण उन्होंने समानांतर साहित्य के नाम पर सारिका जैसी पत्रिकाओं जगह देने के बाद मराठी भाषा के तथाकथित विद्वानों को भी स्वीकार करना पड़ा और आज दलितों द्वारा लिखित साहित्य भी पाठ्यक्रमों में सिखाया जाता है ! ही मै भी मराठी के आगे मेरे भी जाने का कोई कारण ही नहीं है ! और आज इसका शत-प्रतिशत श्रेय राष्ट्र सेवा दल के शिबिर के लिए महाराष्ट्र के बाहर जाने का पहला मौका है !
जय हिंद, जय हिंदी !

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