हमारे 72 वें गणतंत्र दिवस पर हम ज़रा गहरे उतरें और सोचें कि हमारे गणतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती क्या है? क्या यह नहीं कि वह एक सच्चा गणतंत्र बन जाए? गणतंत्र याने क्या? गण का तंत्र अर्थात जनता का तंत्र। ऐसा तंत्र जिसमें जनता का राज हो, जनता के लिए हो और जनता के द्वारा हो। क्या भारत में सचमुच ऐसा राज है? ऊपर से देखने में तो लगता है कि ऐसा ही है। हर पांच साल में या उसके पहले ही जनता वोट डालकर केंद्र और राज्यों में सरकारें बनाती है। चुनाव लड़ते वक्त बेहद अकड़ू नेता भी भीगी बिल्ली बने रहते हैं। वे अपने आपको जनता का नौकर, दास, चौकीदार, सेवक, भक्त— क्या-क्या नहीं बताते? वोट मांगने के लिए वे ऐसे-ऐसे स्वांग रचते हैं कि पेशेवर भिखारी भी उनके आगे पानी भरने लगें। जाहिर है कि यह दृश्य न तो हम कभी ब्रिटिश भारत में देख सकते थे, न मुगल भारत में और न ही सामंती भारत में! इस दृष्टि से जनता शक्तिमंत तो हुई है।

लेकिन यह शक्तिमंतता क्या क्षणिक नहीं है? केवल वोट डालते वक्त आम आदमी अपने आप को भुलावे में डाल सकता है कि वह राजा है या मालिक है या नृप-निर्णेता है। क्या उसके बाद के पांच वर्षों में उसके हाथ में कोई ऐसा अंकुश होता है। जिससे वह अपने ‘सेवकों, नौकरों और चौकीदारों’ पर लगाम लगा सके? अगर डॉ. राममनोहर लोहिया के शब्दों का इस्तेमाल करें तो वह जनता वोट डालने के बाद पांच साल तक मुर्दा हो जाती है। जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं लेकिन हमारी कौम तो मर जाती है। वह न तो अपने सांसद और विधायक के कान खींच पाती है, न उन्हें वापस घर बिठा सकती है, न किसी अकर्मण्य प्रधानमंत्री या बेईमान मुख्यमंत्री को बेदखल कर सकती है और न ही किसी गलत कानून को बदलवा सकती है। अगर वह किसी गलत कानून के खिलाफ अहिंसक प्रदर्शन करती है तो भी उसे आतंकवादियों से जोड़ दिया जाता है।

हमारे संविधान-निर्माताओं ने हमें दुनिया का सबसे बड़ा संविधान दिया लेकिन हमें वे यह चाबी देना भूल गए जिससे हम व्यवस्था के ताले को पांच साल के पहले भी खोल सकें। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे चुने हुए नेताओं का बर्ताव हमारे विदेशी और सामंत शासकों से भी बदतर हो जाता है। ब्रिटिश शासकों को कम से कम अपनी संसद का डर रहता था और हमारे सामंत ‘राजधर्म’ की मर्यादा से भयभीत रहते थे। लेकिन हमारे लोकतांत्रिक शासकों ने ऐसी तरकीब भिड़ाई है कि उन्हें पटरी पर चलाए रखनेवाली दो संस्थाओं को उन्होंने लगभग नाकारा बना दिया है।

ये संस्थाए हैं- संसद और राजनीतिक पार्टियां! संसद में जो भी बहस पक्ष और विपक्ष में होती है, आप क्या समझते हैं कि उनमें क्षीर-नीर विवेक होता है? क्या हर वक्ता अपने विषय पर निष्पक्ष और निर्भय राय प्रकट करता है? उसका हर तथ्य, हर तर्क और हर निष्कर्ष पार्टी-लाइन पर चलता है। उस लाइन पर चलते हुए सच्ची बात भी मुंह से निकल जाती है लेकिन कोई गारंटी नहीं है कि उसी विषय पर वही वक्ता, जो आज एक पार्टी में है, अगर वह कल दूसरी पार्टी में होगा तो वही बात कहेगा। उसे हमेशा पार्टी-लाइन का ही अनुसरण करना होगा? इसका अर्थ क्या हुआ? जनता की लाइन कहां गई? वह चुनाव तक जिंदा रही और उसके बाद पांच साल के लिए मर गई। इन सांसद या विधायक महोदय से कोई पूछे कि तुम्हें संसद में किसने चुनकर भेजा है? तुम्हारी पार्टी ने या तुम्हारे मतदाताओं ने? संसद में बैठते ही तुम अपने मतदाताओं को भूल गए, लोक को भूल गए। बस नेता याद रहे। यह लोकतंत्र है या नेतातंत्र है? संसद संप्रभु है या वह पार्टी-नेताओं की चेरी है? यही वजह है कि किसी भी लोकतंत्र में संसद का जो दबदबा होना चाहिए, वह भारत में नहीं है। जवाहरलाल नेहरु का वह युग बीत गया जब कांग्रेस के सांसद ही सदन में खड़े होकर अपनी सरकार पर बरस पड़ते थे। अब तो सभी पार्टियों का हाल एक-जैसा है।

क्यों नहीं इस गणतांत्रिक वर्ष में हम हमारे सांसदों को स्वविवेक का अधिकार प्रदान करें? उन पर पार्टी-सचेतक का डंडा क्यों चले? प्रत्येक सांसद को छूट हो कि वह अपने स्वविवेक से जिस बात को ठीक समझे, वही बोले और तदनुसार मतदान भी करे। संसद संप्रभु तभी होगी और सरकार भी जवाबदेह तभी होगी। अभी तो सभी सांसदों की चाबियां उनके पार्टी-नेताओं की जेब में पड़ी रहती हैं। यदि सांसदों को खुद-मुख्तारी मिलेगी तो वे भी देश की हर समस्या को समझने के लिए ज्यादा मेहनत करेंगे और जो बात भी बोलेंगे, अपने मतदाताओं के हित में बोलेंगे।

लेकिन क्या यह संभव है? यह संभव तभी होगा जब कि हमारे राजनीतिक दल स्वयं लोकतांत्रिक बनेंगे। जिन दलों के कंधों पर हमारा गणतंत्र खड़ा है, उनमें से ज्यादातर ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां’ बन गई हैं। उन दलों पर या तो कुछ परिवारों का कब्जा हो गया है या कुछ गिरोहों का! पार्टी-अध्यक्ष या उपाध्यक्ष या महामंत्रियों की नियुक्तियां क्यों नहीं लाखों कार्यकर्ताओं की सहमति से होती हैं? कम से कम प्रांतों और जिलों के लगभग हजार—डेढ़ हजार पार्टी-अधिकारियों को नेताओं के चुनाव का यह सीधा अधिकार भी दिया जा सकता है।

यदि पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र आ जाए तो सांसद और विधायक नेताओं के कृपाकांक्षी बनाने की बजाय जनता को ज्यादा महत्व देंगे। अभी हमारे देश की राजनीति उर्ध्वमूल है याने उसकी जड़ें ऊपर हैं। उसे अधोमूल (जमीन में जड़) बनाए बिना भारत सच्चा गणतंत्र कैसे बनेगा? हमारी राजनीति उर्ध्वमूल है, इसीलिए जन-आंदोलनों के प्रति हमारी सरकार का रवैया अंग्रेजों या सामंतों-जैसा हो जाता है। हमारे शासक जनता के प्रति कृतज्ञ नहीं होते हैं, उसका वे दिखावा करते हैं, वे उन पार्टी-नेताओं के प्रति कृतज्ञ, विनत और आज्ञाकारी होते हैं, जिन्होंने उनको मखमली कुर्सियों पर बिठा दिया है। न तो उन्हें देश के किसानों और यवुकों का आक्रोश व्यथित करता है, न अरबों-खरबों की धांधलियां और न ही करोड़ों गरीबों की आहें-कराहें! इस समय दो ही ताकतें ऐसी हैं, जो हमारे गणतंत्र को पूरी तरह से नेतातंत्र में बदलने से बचा सकती हैं। एक तो है, खबरपालिका और दूसरी है, न्यायपालिका। लेकिन ये दोनों भी आज डगमगा रही हैं। ये कब तक जोर मारेंगी? क्या नेता तब जागेंगे, जब जनता खुद दुर्गा बन जाएगी? खांडा लेकर खड़ी हो जाएगी?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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