2014 में आई सरकार के अच्छे दिनों के नारे से लगा था कि अब गांवों और किसानों के भी दिन बहुरेंगे, लेकिन किसानों के हित के नारों के बीच कॉर्पोरेट पर सरकारी मेहरबानी ने गांवों और किसानों की उम्मीद का गला घोंट दिया. कैसे? वो ऐसे कि बजट विकास का वो सरकारी गजट होता है, जिसमें किसी प्रस्ताव या योजना के लिए धन राशि का आवंटन तय किया जाता है. गांव और किसान के लिए इस बजट में राशि का आवंटन नहीं, जुमलों की बरसात की गई है. इस बजट में वादों की भरमार है. चूंकि वादों की सवारी करके ही मोदी जी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे और अब भी उन्हें यह लग रहा है कि इसी वादों की सवारी से 2019 की रेस भी जीत लेंगे. कुल मिलाकर जिस बजट से आशा जगने की उम्मीद थी, वो घोर निराशा में बदल गई है…

budgetइस देश में जय किसान बस एक नारा है…

वर्ष 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने का आश्वासन दिया था. वे पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ तो गए, लेकिन अपने कार्यकाल के तीन वर्षों में उनकी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस क़दम नहीं उठाया. किसानों की समस्याएं समाप्त होने की बजाय बढ़ती गईं. किसानों पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ता रहा. फसल की बर्बादी और क़र्ज़ के दबाव में उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला भी जारी रहा. किसान दिल्ली आकर अपने मुर्दा भाइयों के कंकालों के साथ प्रदर्शन करते रहे. हिंसक और शांतिपूर्ण आन्दोलन भी हुए, लेकिन साकार ने किसानों की सुध लेने की कभी कोशिश नहीं की. हां, पिछले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में कृषि क्षेत्र को अच्छी खासी जगह दी थी. लेकिन ज़मीनी स्तर पर किसानों की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहीं. तीन वर्षों की लम्बी नींद के बाद सरकार अब जागी है और अपने मौजूदा कार्यकाल के आखिरी बजट में उसे किसान याद आए हैं. बहरहाल, देर से तो आए, क्या दुरुस्त आए हैं. आइए, देखते हैं किसानों के लिए इस बजट में क्या खास है.

आंकड़े गुलाबी हैं बजट चुनावी है…

भारत ने जबसे उदारवादी अर्थ नीति अपनाई है, तब से सरकारों की यह परम्परा बन गई है कि चुनाव से पूर्व के बजट में किसानों, गरीबों और ग्रामीण क्षेत्र के लिए घोषणाएं करो और चुनाव जीतने के बाद उन्हें पुनः तब याद करो जब चुनाव दरवाजे पर दस्तक देने लगे. 2018 का बजट मोदी सरकार का आखिरी पूर्ण बजट था. लिहाज़ा, यह उम्मीद की जा रही थी कि परम्परा के मुताबिक इस बजट को आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर तैयार किया जाएगा. लेकिन, परम्परा से हट कर इस बजट में एक और बात थी. वो थी पिछले चुनाव का डर. भले ही भाजपा गुजरात में बहुमत हासिल करने में कामयाब रही थी, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र का गुस्सा चुनाव नतीजों पर सर चढ़ कर बोल रहा था. यदि शहरी क्षेत्र ने भाजपा का साथ नहीं दिया होता तो गुजरात उनके हाथ से फिसल चुका था. फ़िलहाल जिन तीन भाजपा शासित राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां पिछले कुछ वर्षों में किसानों के कई आक्रामक और शांतिपूर्ण, लेकिन विशाल आन्दोलन देखने को मिले हैं. इस बजट में आने वाले चुनाव से अधिक किसानों के गुस्से को शांत करने की कोशिश की गई है, क्योंकि यदि यह गुस्सा बरक़रार रहता है तो 2019 में नरेंद्र मोदी की राहें मुश्किल हो जाएंगी.

आमदनी दोगुनी, लेकिन कैसे?

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण का एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र पर केन्द्रित रखा. किसानों की तारीफ करने और कृषि क्षेत्र का महत्व बतलाने के बाद उन्होंने कहा कि पिछले वर्ष के बजट भाषण में उन्होंने किसानों की आमदनी 5 वर्ष में दोगुनी करने की बात की थी. लिहाज़ा सरकार को बहुत सारे क़दम उठाने हैं, ताकि किसान अपनी फसल की पैदावार बढ़ा सके और फसल की कटाई के बाद की चुनौतियों से निपट सके, यानी किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल सके. सबसे पहले बात करते हैं किसानों की आमदनी को डेढ़ गुना करने की. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के बाद हर  सरकार ने किसानों को उसकी लागत के हिसाब से लाभ देने की बातें की हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी भाषणों में कुछ आगे बढ़ते हुए किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात कर डाली थी. ज़ाहिर है कि यह दूर की कौड़ी थी, जिसे उनके विरोधी चुनावी जुमला कहते हैं. शुरुआती दो वर्षों तक मौजूदा सरकार ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया. वर्ष 2016 के मध्य में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव अशोक दलवाई की अध्यक्षता में वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के उपाय सुझाने के लिए एक इंटर-मिनिस्ट्रियल समिति गठित की थी. दलवाई समिति ने यह अंदाज़ा लगाया था कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए वर्ष 2012 के मूल्य पर 6.4 लाख करोड़ निवेश की आवश्यकता होगी. हालांकि इस वर्ष कृषि क्षेत्र के लिए बजट आवंटन 57,600 करोड़ रुपए है, जो पिछले वर्ष के बजट आवंटन की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक है. यह रकम दलवाई समिति के आकलन से बहुत कम है. ज़ाहिर है इससे किसानों की आमदनी दोगुनी करना एक टेढ़ी खीर है.

डेढ़ गुना एमएसपी के लिए पैसा कहां है?

बजट में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को डेढ़ गुना लाभ की शक्ल में देने की बात की गई है. इसे भी एक बड़ी घोषणा के तौर पर पेश किया जा रहा है. लेकिन एमएसपी पर लाभ के संदर्भ में बजट में कोई साफ़ बात नहीं की गई है. खुद स्वामीनाथन ने इस घोषणा पर रक्षात्मक प्रतिक्रिया तो व्यक्त की है, लेकिन साथ में यह भी कहा है कि सरकार को यह साफ करना चाहिए कि एमएसपी की प्रस्तावित वृद्धि किस हिसाब से होगी? लागत पर 50 फीसदी की वृद्धि से तकनीकी तौर पर किसानों को निश्चित कीमत तो मिलेगी, लेकिन यह एमएसपी तय करने के फॉर्मूले पर निर्भर करता है कि किसान को कितना लाभ मिलेगा? एमएसपी तय करने के दो तरीके हैं. पहला, व्यापक लागत (कॉम्प्रेहेंसिव कास्ट) जिसे, सी2 कहा जाता है. दूसरा, केवल भुगतान किए हुए खर्च, जैसे बीज, खाद, रसायन, आदि ए2 कहा जाता है. यदि ए2 के हिसाब से मूल्य तय किया जाएगा तो किसानों को नहीं के बराबर लाभ मिलेगा और यदि सी2 के हिसाब से होता है तो किसानों को कुछ फायदा होगा, लेकिन इसका असर महंगाई पर पड़ सकता है. कुछ जानकारों के मुताबिक, यदि सी2 के हिसाब से कीमतें तय की गईं, तो चावल के मूल्य में 40 से 45 फीसदी का इजाफा हो सकता है.

यदि मौजूदा परिदृश्य में देखें तो इस घोषणा से किसानों को बहुत ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा है. इस क़वायद में सरकार उस समय उपस्थित होगी, जब फसल का बाज़ार मूल्य, उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम हो जाए. तकनीकी तौर पर पहले से ऐसी स्थिति में हस्तक्षेप कर सकती है. इसके लिए फंड का प्रावधान भी है. इस वर्ष इस फंड में मात्र 200 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है. यदि अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती, तो इन आंकड़ों के बल पर किसानों को राहत मिलना मुश्किल है.

ये क़र्ज़ किसे और कैसे मिलेगा? 

कृषि क्षेत्र की दूसरी बड़ी घोषणा कृषि ऋृण है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्तीय वर्ष 2017-18 के लिए कृषि ऋृण के लक्ष्य को बढ़ा कर रिकॉर्ड 11 लाख करोड़ रुपए कर दिया है. अपने भाषण में जेटली ने कहा कि सरकार जम्मू कश्मीर और पूर्वी राज्यों जैसे उपेक्षित क्षेत्रों के लिए ऋृण प्रवाह को सुगम बनाएगी. दरअसल पिछले तीन दशकों से किसानों की सबसे बड़ी त्रासदी कृषि ऋृण रही है. इसकी बोझ तले दबकर लाखों किसानों ने अपने जान दे दी हैं और आज भी उनके मरने का सिलसिला जारी है. दरअसल ऋृण के मामले में वे जहां सरकारी बैंकों पर निर्भर होते हैं, वहीं स्थानीय साहूकार भी उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर ऊंची दर पर क़र्ज़ देते हैं. बजट में नाबार्ड की मदद से किसानों को ऋृण वितरण का प्रस्ताव रखा गया है. बजट स्पीच में कहा गया है कि लगभग 40 प्रतिशत छोटे और सीमान्त किसान सहकारी संरचना से क़र्ज़ प्राप्त कर सकेंगे. प्राथमिक कृषि ऋृण समिति (पीएसीएस) ऋृण वितरण करेगी और नाबार्ड उसकी सहायता करेगा. दरअसल यह ऐसा आंकड़ा है जो बजट में आवंटित राशि नहीं है. इसे नाबार्ड और दूसरे बैंकों के सहारे हासिल करने की कोशिश की जाएगी, लिहाज़ा सरकार का इसमें कोई खर्च नहीं हो रहा है. साथ में पीएसीएस को डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल को-ऑपरेटिव बैंक से जोड़ने और कंप्यूटरीकरण के लिए राज्य सरकारों की सहायता से 1,900 करोड़ रुपए खर्च करने की बात की गई है. चूंकि कृषि राज्य का विषय होता है, इसलिए केंद्र सरकार के पास इतनी गुंजाइश रहती है कि राज्य को बीच में खड़ा कर घोषणाएं भी कर ले और उस घोषणा को राज्य के साथ मिलकर पहले आप पहले आप की क़वायद की भेंट चढ़ा दे.

बीमा फसल का, फायदा कॉरपोरेट का

इस मद में फसल बीमा योजना भी शामिल है. इस वर्ष फसल बीमा योजना की कवरेज क्षेत्र को बढ़ा कर 50 फीसदी कर दिया गया है, जिसके लिए इस वर्ष 9000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है. ज़ाहिर है कि यह योजना भी मौसम की मार झेल रहे किसानों को राहत देने के लिए तैयार की गई है. लेकिन ज़मीनी हकीकत बहुत उत्साहजनक नहीं है. पिछले वर्षों की तस्वीर पर नज़र डालने से यह साफ़ हो जाता है कि फसल बीमा का लाभ किसानों से अधिक बीमा कंपनियों को मिला है. पिछले वर्ष कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, पैनल में शामिल 11 बीमा कंपनियों ने पीएमएफवीवाई के तहत वर्ष 2016-17 में खरीफ और रबी फसलों के लिए लगभग 15891 करोड़ रुपए प्रीमियम की पॉलिसी बेची है. इस प्रीमियम की राशि में किसानों की भागीदारी 2685 करोड़ रुपए है, जबकि बाक़ी राशि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वहन किया गया है. मंत्रालय द्वारा यह भी दावा किया गया है कि वर्ष 2016-17 में बीमा क्लेम की राशि 13000 करोड़ रुपए हो सकती है, जो किसानों से इकट्‌ठा की गई प्रीमियम से 80 प्रतिशत अधिक है. उसी तरह पिछले वर्ष की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के बरेली में वर्ष 2016 में खरीफ सीजन में 53,816 किसानों ने 43403 हेक्टेयर फसल का बीमा कराया. प्रीमियम की शक्ल में बीमा कंपनियों को पांच करोड़ से ज्यादा रुपए अदा किए, जबकि फसल बीमा का लाभ केवल 1208 किसानों को मिला. मुआवज़े के रूप में केवल 32 लाख रुपए मिले. लिहाज़ा अब आइन्दा किसानों को इस योजना का लाभ मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है.

यूपीए की असफलता का स्मारक, एनडीए का सहारा

प्रधानमंत्री ने अपना पदभार संभालने के महज़ कुछ दिनों बाद ही संसद में कहा था कि मनरेगा को वे इसलिए जारी रखेंगे ताकि यह कांग्रेस की विफलता के स्मारक के तौर पर लोगों के सामने रहे. अब हालत यह है कि उन्ही की सरकार इसका इस्तेमाल उन्ही के एक चुनावी वादे किसानों की आमदनी दोगुनी करने को पूरा करने में कर रही है. दरअसल मनरेगा से जुड़े ग्रामीणों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. मौजूदा बजट में इस मद में 55000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है. हालांकि यह आवंटन पिछले वर्ष की तुलना में तकरीबन 7000 करोड़ रुपए अधिक है, लेकिन यह फंड अनिवार्य आवश्यक फंड से कम है. इस क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं का मानना है कि यह राशि कम से कम 80,000 करोड़ रुपए होनी चाहिए.

कुल मिलाकर कृषि बजट में पिछले वर्ष की अपेक्षा 13 फीसदी का इजाफा हुआ है. लेकिन यह इजाफा पूर्ण बजट के इजाफे के लगभग बराबर है. ऐसे में किसानों को बड़ी राहत दिए जाने की जो बात की जा रही थी, वो राहत मिलती दिखाई नहीं दे रही है. आर्थिक सर्वेक्षण में यह आशंका जताई गई है कि गैर सिंचित क्षेत्रों में किसानों की आमदनी में 25 फीसदी की गिरावट आ सकती है. उसके लिए भी किसी क़दम का ज़िक्र इस बजट में नहीं है. किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण बैंकों का लोन और फसल की बर्बादी को लेकर भी कोई घोषणा नहीं हुई है. ले-देकर तान फसल बीमा पर तोड़ दिया गया है. केवल कह देने मात्र से किसानों की आमदनी यदि दोगुनी हो जाती तो इतनी बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ती. अभी किसान संगठन जिन सवालों को लेकर सड़क से संसद तक आन्दोलनरत हैं, उन सवालों का समाधान इस बजट में दिखाई नहीं दे रहा है.

मध्य वर्ग को झांसा, कॉरपोरेट पर मेहरबानी

ईमानदारी पर टैक्स की मार का प्रीमियम

बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कर भुगतान में ईमानदारी को लेकर कर दाताओं की पीठ थपथपाई और उन्हें ईमानदारी का प्रीमियम देने की बात कही, लेकिन ईमानदारी का यह तथाकथित प्रीमियम मध्यम वर्ग पर टैक्स की मार के रूप में सामने आया. गत वित्तीय वर्ष के कर भुगतान के जो आंकड़े सामने आए, उसके अनुसार- 1 करोड़ 89 लाख कर्मचारियों ने 76 हजार 306 रुपए के औसत से 1 लाख 44 हजार करोड़ का आयकर दिया, जो 1 करोड़ 88 लाख व्यापारियों द्वारा 25 हजार 753 रुपए के औसत से दिए गए 48 हजार करोड़ से बहुत ज्यादा है. लेकिन जब इन कर्मचारियों को ईमानदारी का प्रीमियम देने की बात आई तो वित्त मंत्री ने उन्हें महज 40 हजार के स्टैंडर्ड डिडक्शन का झुनझुना पकड़ा कर कई भत्ते छीन लिए. अभी मेडिकल बिल के रूप में 15 हजार और यात्रा भत्ते के रूप में 19 हजार 200 का कर छूट दिया जाता था, जिसे इस बजट में खत्म कर दिया गया है. इन दोनों को मिला दें, तो 34 हजार 200 रुपए होते हैं, जो 44 हजार के स्टैंडर्ड डिडक्शन से मात्र 58,00 रुपए कम है. ऐसा भी नहीं है कि ये 58,00 रुपए मध्यम वर्ग के लिए मुनाफा हैं, 3 फीसदी से बढ़ाकर 4 फीसदी किए गए शिक्षा और स्वास्थ्य सेस ने मध्य वर्ग को पुरानी स्थिति में ला खड़ा किया है. इस बार के बजट में आयकर में कोई बदलाव नहीं किया गया है, यानि पुराना टैक्स रेट ही प्रभावी रहेगा, जो स्लैब के अनुसार इस तरह से है- शून्य से लेकर ढाई लाख तक शून्य फीसदी, ढाई लाख से 5 लाख तक 5 फीसदी, 5 लाख से 10 लाख तक 20 फीसदी और 10 लाख से एक करोड़ तक 30 फीसदी. 40 हजार का स्टैंडर्ड डिडक्शन देने के एलान के बाद सरकार यह जिक्र करना नहीं भूली कि इससे उसे 8000 करोड़ का नुकसान होगा, लेकिन सरकार यह बताना भूल गई कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेस में 1 फीसदी की बढ़ोतरी राजकोष को 11,000 करोड़ का फायदा कराएगी, यानि सीधे तौर पर 3 हजार करोड़ का मुनाफा, जबकि जनता के पॉकेट पर लगभग पुराना वाला ही असर रहेगा.

निवेश के मामले में भी सरकार की तरफ से मध्यम वर्ग को राहत नहीं मिली है. विशेषज्ञों की मानें तो वर्तमान में जो तीन महत्वपूर्ण निवेश विकल्प हैं, उनमें से रियल एस्टेट पहले से ही संकट में है, लगातार कम हो रहे ब्याज दर और उसपर भी टैक्स की मार के कारण बैंक भी अब बेहतर निवेश विकल्प नहीं रह गए हैं, इन दोनों के अलावा बचता है शेयर निवेश, जिसपर इसबार 10 फीसदी का टैक्स लाद दिया गया है. वित्त मंत्री ने गोल्ड मोनेटाइजेशन की बात की, इसमें भी सरकार को जनता की नहीं अपने कोष की चिंता दिखती है, इसके तहत गोल्ड के जरिए लोन देने की व्यवस्था की जाएगी. सरकार की मंशा है कि इस लोन के बहाने अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर का सोना बैंकों में लाया जाय. हालांकि इस तरह की योजना पहले भी लाई गई थी, लेकिन वो सफल नहीं हो सकी.

बजट भाषण में ही 30 लाख बेरोज़गार!

हर साल एक करोड़ लोगों को नौकरी देने के वादे के साथ सत्ता में आई सरकार प्रति साल रोजगार उत्सर्जन के आंकड़े को लाख तक पहुंचाने में भी हांफने लगी और अंतत: इस मामले में सरकार ने हथियार डाल दिया. इस बार के बजट में वित्त मंत्री ने 70 लाख नौकरियां पैदा करने की बात कही है. ये एक अलग मुद्दा है कि प्रति वर्ष अर्थव्यवस्था में 1 करोड़ से ज्यादा कामगार युवा जुड़ जाते हैं, लेकिन सरकार ने आधिकारिक घोषणा कर दी कि वे 70 लाख को नौकरी देंगे, तो अब सवाल उठता है कि क्या 30 लाख के करीब युवा बेरोजगार रहेंगे? हालांकि इसे लेकर भी संशय है कि सरकार 2018-19 के वित्त वर्ष में 70 लाख युवाओं को नौकरियों दे ही देगी, क्योंकि इस मामले में सरकार का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है.

2017-18 के लिए सरकार ने 2,80,000 नौकरियों के लिए बजट का प्रावधान किया था. सरकार की तरफ से इसे ‘नौकरियों की बाढ़’ कहा गया था. उस समय विभागवार आंकड़ा देकर बताया गया था कि आयकर विभाग में नौकरियों की संख्या 46,000 से बढ़ाकर 80,000 की जाएगी. वहीं उत्पाद शुल्क विभाग में भी 41,000 नई भर्तियों की बात कही गई थी. लेकिन 2017 के बीत जाने के बाद भी अब तक ‘नौकरियों की वो बाढ़’ कहीं नजर नहीं आ रही है. नौकरी की चुनौती को हम इस बात से समझ सकते हैं कि 2018 के पहले हफ्ते में बेरोजगारी दर 5.7 प्रतिशत थी, जो पिछले 12 महीनों में सबसे अधिक है.

सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की दशा पहले से ही खराब है, आगे भी उजाले की किरण नज़र नहीं आ रही. ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र की ओर देखना जरूरी भी है और मजबूरी भी. लेकिन उस ओर से भी सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे. सरकार ने लघु और मध्यम क्षेत्र के उद्योगों को राहत देने और उनके जरिए रोजगार उत्सर्जन के नाम पर ढाई सौ करोड़ के टर्न ओवर तक की कंपनियों को कॉरपोरेट टैक्स में छूट देते हुए उसे 30 से घटाकर 25 फीसदी कर दिया है. लघु और मध्यम क्षेत्र के उद्योगों के लिए 3794 करोड़ का कैपिटल फंड भी बनाया गया है, जिसके जरिए कैपिटल सब्सिडी और अन्य सुविधाएं देने की योजना है. 70 लाख नौकरियों के सृजन में भी इस फंड के योगदान की बात कही गई है. हालांकि जिन संभावनाओं के जरिए कॉर्पोरेट पर यह मेहरबानी की गई है, उसके सफल होने में संदेह है, क्योंकि वर्तमान में चल रहीं स्टार्ट अप इंडिया और स्टैंड अप इंडिया जैसी योजनाओं की असफलता जगजाहिर है, जिनका इस बार के बजट में जिक्र तक नहीं किया गया. रोजगार उत्सर्जन का नाम देकर कॉर्पोरेट को टैक्स में 5 फीसदी राहत देने की जगह अगर सरकार ने मध्यम वर्ग को पहले से मिल रहे राहतों को बनाए रखा होता, तो शायद जनता को ज्यादा फायदा होता.

उज्ज्वला का लक्ष्य पूरा लेकिन उद्देश्य नहीं

मुफ्त रसोई गैस वितरण के द्वारा ग्रामीण महिलाओं को धुएं वाले इंधन से दूर करना प्रधानमंत्री की महत्वकांक्षी योजना थी. उज्ज्वला योजना के जरिए इसके क्रियान्वयन को लेकर प्रधानमंत्री ने कई बार अपनी सरकार की पीठ भी थपथपाई. इस बार के बजट में इस योजना का दायरा बढ़ा दिया गया है. बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा कि ‘उज्ज्वला योजना के तहत शुरू में 5 करोड़ गरीब महिलाओं को निशुल्क एलपीजी कनेक्शन उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इस योजना के क्रियान्वयन और महिलाओं के बीच इसकी लोकप्रियता को देखते हुए हमने निशुल्क गैस कनेक्शन उपलब्ध कराने का लक्ष्य बढ़ाकर 8 करोड़ करने का फैसला किया है.’ इस योजना को लेकर गौर करने वाली बात यह है कि सरकार भले ही आंकड़ो के जरिए अपने लक्ष्य को प्राप्त होते देखकर खुश हो रही है, लेकिन इसके उद्देश्य कहीं न कहीं पीछे छूट रहे हैं. योजना का उद्देश्य केवल यह नहीं था कि ग्रामीण महिलाओं के नाम पर रसोई गैस का आवंटन हो जाय, बल्कि उन्हें धुएं से आजादी देने की बात कही गई थी. इस योजना के बाद गैस कनेक्शन में जिस रफ्तार से बढ़ोतरी हुई है, उस रफ्तार से सिलेण्डर की खपत नहीं बढ़ी है. यानि स्पष्ट है कि लोग कनेक्शन तो ले रहे हैं, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि उज्ज्वला योजना के बाद घरेलू गैस कनेक्शन में 16.26 फीदसी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन गैस सिलेण्डर का इस्तेमाल महज 9.83 फीसदी ही बढ़ सका.

बीमार ही रहेगी स्वास्थ्य व्यवस्था!

इस बार के बजट को लेकर जो सबसे पहली और बड़ी बे्रकिंग न्यूज आई, वो थी- 10 करोड़ गरीब परिवारों के 50 करोड़ लोगों को सालाना 5 लाख का स्वास्थ्य बीमा देने की योजना. 50 हजार करोड़ की इस भारी-भरखम योजना को मोदी केयर का नाम देकर इसकी तुलना पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की स्वास्थ्य योजना ओबामा केयर से की जाने लगी. जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में किसी भी देश में ऐसी योजना नहीं है. लेकिन इसके बारे में गौर करने वाली बात यह है कि यह स्वास्थ्य योजना नहीं, बीमा योजना है. हालांकि इस योजना की सफलता भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में देश की दशा बदल सकती है, लेकिन इसे लेकर संशय है, क्योंकि इस तरह की पूर्व की योजनाएं भी सफलता से काफी दूर हैं. वृहद बजट वाली इस बीमा योजना में सबसे बड़ा सवाल इसके प्रीमियम को लेकर है. इस बारे में एक निजी समाचार चैनल से बात करते हुए वित्त सचिव हसमुख अधिया ने कहा कि इस योजना के लिए प्रीमियम भुगतान केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त जिम्मेदारी होगी. प्रीमियम का 60 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार देगी जबकि 40 फीसदी राज्य सरकारें. इस योजना के क्रियान्वयन को लेकर वित्त सचिव ने खुद कहा कि इसमें करीब एक साल लग जाएगा. हालांकि एक साल बाद भी यह सुनिश्चित होना सुखद होगा कि देश की 40 फीसदी आबादी को सरकार 5 लाख का स्वास्थ्य बीमा देगी. लेकिन इस योजना के क्रियान्वयन का तरीका वही है, जो इस तरह की पुरानी योजनाओं के लिए था और यही तथ्य विश्व की इस सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना की संभावित असफलता का संकेत है. 1 अप्रैल 2008 को तत्कालीन यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की थी, जिसे मोदी सरकार ने 2016 में नया कलेवर दिया, लेकिन रूप बदलने के बाद भी इसकी पहुंच जनता तक नहीं हो सकी. लागू करने के उसी तरीके ने इस योजना में पेंच फंसाया, जिसके जरिए नई योजना को जनता से जोड़ने की बात कही जा रही है, यानि प्रिमियम को लेकर केंद्र और राज्य के बीच 60:40 का बंटवारा. वर्तमान में लागू स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 21 राज्यों के 21 करोड़ लोग मझधार में फंसे हैं, कारण है केंद्र और राज्यों के बीच प्रीमियम भुगतान को लेकर विवाद. इसे लेकर केंद्र का राज्यों के लिए निर्देश है कि वे प्रीमियम का भुगतान करें और बाद में केंद्र उन्हें 60 फीसदी राशि लौटा देगा, लेकिन राज्यों की मांग है कि उन्हें पहले भुगतान किया जाय. इसी विवाद को लेकर पिछले 9 महीनों से 21 राज्यों के 21 करोड़ लोगों का बीमा कार्ड नहीं बन सका है.

अगर मान भी लें कि यह योजना कुछ हद तक सफल होती है, तो भी इसके जरिए निजी अस्पतालों का ही भला होगा न कि सरकारी अस्पतालों का. सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा को देखते हुए लोग निजी अस्पतालों का रुख करते हैं, तब तो वे सरकारी अस्पताल की तरफ देखेंगे भी नहीं, जब उनके इलाज का खर्च सरकार वहन करेगी. इस तरह से इसके जरिए सीधे तौर पर निजी अस्पताल अपना दायरा बढ़ाएंगे. इस बजट में सरकार ने अस्पतालों की संख्या बढ़ाने की तो बात कही है, लेकिन पहले से दयनीय हालत में चल रहे अस्पतालों की दशा सुधारने का कोई जिक्र नहीं है. बजट में कहा गया है कि देश भर में 24 नए मेडिकल कॉलेजों एवं अस्पतालों की स्थापना होगी, जिसमें हर तीन संसदीय क्षेत्र के बीच एक मेडिकल कॉलेज बनाने का लक्ष्य है. साथ ही डेढ़ लाख आरोग्य सेंटर बनाने की भी बात कही गई है. बजट के इन प्रावधानों पर चर्चा के बीच पिछले साल आई सीएजी की रिपोर्ट पर भी गौर करने की जरूरत है, जिसमें यह खुलासा हुआ था कि 27 राज्यों के लगभग हर स्वास्थ्य केंद्र में 77 से 87 फीसदी डॉक्टरों की कमी है, वहीं 13 राज्यों के 67 स्वास्थ्य केंद्रों में कोई डॉक्टर ही नहीं है. डॉक्टर और स्टाफ की कमी के कारण स्वास्थ्य उपकरण भी बेकार हो रहे हैं और मरीजों को उनका लाभ भी नहीं मिल रहा. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 17 राज्यों में 30 करोड़ की लागत वाले अल्ट्रा साउंड मशीन, एक्स रे मशीन, ईसीजी मशीन जैसे कई उपकरणों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है, क्योंकि उन्हें ऑपरेट करने वाले मेडिकल स्टाफ नहीं हैं. साथ ही ज्यादातर अस्पतालों में उन्हें रखने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं है, जिसके कारण वे बेकार पड़े-पड़े खराब हो रहे हैं. अब सोचने वाली बात यह है कि जब पहले से मौजूद अस्पतालों में ही इलाज, दवा और डॉक्टरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है तो फिर जरूरत इन्हें सुविधासंपन्न बनाने की है या और नए अस्पताल बनाने की?

किसान बजट : आंकड़ों में

2000 करोड़:कृषि बाज़ार

500 करोड़: ऑपरेशन ग्रीन

100 अरब डॉलर: कृषि उत्पाद निर्यात लक्ष्य

2022: किसानों की दोगुनी आय

10 हजार करोड़: मछली पालन और पशुपालन

42 मेगा फूड पार्क

1400 करोड़:कृषि प्रोसेसिंग सेक्टर

इस बजट में किसानों के लिए कुछ नहीं है. यह बजट झूठ का पुलिंदा है. पीएमओ में जमा की गई एफसीआई की एक रिपोर्ट में 2015-16 के लिए धान की लागत मूल्य 3264 रुपए प्रति क्विंटल बताई गई है, लेकिन 2017 में सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1590 रुपए दिया. अब जबकि रिपोर्ट के हिसाब से लागत मूल्य ही 3264 रुपए है, तो इसपर अलग से 50 फीसदी लाभ देकर सरकार क्या एमएसपी तय करेगी? सवाल है कि सरकार किस तरह डेढ़ गुना अधिक मूल्य देगी? पिछले बजट से इस बजट का मिलान कर लें, तो पता चलता है कि सरकार ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया है.

-विनोद सिंह, अध्यक्ष, किसान मंच

यह धूर्ततापूर्ण और पाखंडपूर्ण बजट है. भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में लागत पर 50 फीसदी अतिरिक्त मूल्य देने और स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था. पूरे देश के किसानों ने इन्हीं वादों के लिए नरेंद्र मोदी को वोट दिया था, लेकिन सरकार ने विश्वासघात किया. 50 फीसदी वाले उस जुमले को अब बजट में शामिल कर लिया गया है. लेकिन सवाल है कि क्या बजट में इसके लिए कोई राशि आवंटित की गई है? हमें उम्मीद थी कि खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि उपकरण यंत्र आदि पर जीएसटी को खत्म किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

-शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्का जी, राष्ट्रीय संयोजक, राष्ट्रीय किसान महासभा 

सुविधाहीन रेल को सुरक्षित बनाने की क़वायद

 

2019 लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार का यह आखिरी बजट है. इस आम बजट में रेल यात्रियों को उम्मीद थी कि रेलवे यात्रियों की सुविधाओं पर सरकार का खास ध्यान होगा. इस लिहाज से यह बजट रेल यात्रियों के लिए निराशाजनक रहा है. हालांकि यात्रियों के लिए राहत की बात यह है कि रेलवे सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता में है. भारतीय रेल के लिए इस बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 1 लाख 48 हजार करोड़ रुपए दिए हैं. इसमें 40,000 करोड़ रुपए एलिवेटेड कॉरिडोर के निर्माण पर खर्च किए जाएंगे. पिछले साल के बजट में रेलवे के लिए 1.31 लाख करोड़ रुपए दिए गए थे, जबकि 2015 में यह 1.21 लाख करोड़ रुपए था. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि रेलवे सुरक्षा उनकी सरकार का पहला लक्ष्य है. भारतीय रेलवे को पूरी तरह ब्रॉडगेज करने पर भी विशेष ध्यान दिया जाएगा.

सेफ जर्नी सरकार की प्राथमिकता

अरुण जेटली ने कहा कि सेफ जर्नी और ट्रैक मेंटिनेंस पर रेल बजट का बड़ा हिस्सा खर्च किया जाएगा. इसके लिए रेलवे पटरी और गेज बदलने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा. उन्होंने बताया कि अभी 5000 किलोमीटर लाइन के गेज परिवर्तन पर काम चल रहा है. 3600 किमी ट्रैक का नवीकरण किया जा चुका है. 3600 किलोमीटर नई रेल लाइन बिछाई जाएगी. 4000 किलोमीटर ट्रैक का विद्युतीकरण किया जाएगा.

रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए देश भर में प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने हैं. पिछली बजट में भी सरकार ने सीसीटीवी कैमरे लगाने का जिक्र किया था, लेकिन अभी तक केवल 395 रेलवे स्टेशनों और 50 ट्रेनों में ही सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. 2018-19 के बजट में सभी 11,000 ट्रेनों में सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने हैं. इस हिसाब से देखें तो 11,000 ट्रेनों में 12 लाख सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने की जरूरत होगी, यानी कह सकते हैं कि एक कोच में 8 सीसीटीवी कैमरे लगेंगे. इसके साथ ही रेलवे के सभी 8,500 स्टेशनों पर भी सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे. जाहिर है कि रेलवे में केवल सीसीटीवी कैमरे लगाने पर ही सरकार को भारी-भरकम रकम खर्च करनी पड़ सकती है. इसके लिए रेलवे को बाजार से भी फंड जुटाने की जरूरत पड़ेगी.

मरीजों और बुजुर्गों का ख्याल रखते हुए रेल स्टेशनों पर ऐस्केलेटर्स लगाने का जिक्र वित्त मंत्री ने पिछली बजट में भी किया था. इस बार फिर सरकार ने 25000 लोगों से ज्यादा की आवाजाही वाले प्लेटफार्म पर एस्केलेटर लगाने की घोषणा की है. रेलयात्रियों की सुविधा के लिए पूरे देश में प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर एस्केलेटर और लिफ्ट लगाने का प्रावधान किया जाना था. वृद्ध एवं शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को इससे प्लेटफॉर्म पर चढ़ने-उतरने में आसानी होगी. रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि एक एस्केलेटर पर एक करोड़ रुपए और एक लिफ्ट पर 40 लाख रुपए की लागत आती है. प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर एस्केलेटर लगाने के लिए रेल विभाग ने आमदनी नहीं, बल्कि रेल यात्रियों की संख्या को आधार बनाया है. जिन रेलवे स्टेशनों पर 25,000 या उससे अधिक यात्री रोज आते हैं, वहां लिफ्ट व एस्केलेटर की सुविधा दी जाती है. वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल 600 रेलवे स्टेशनों का आधुनिकीकरण किया जाएगा. रेलवे स्टेशनों के सौंदर्यीकरण पर भी रेलवे ध्यान देगी.

सरकार ने 4000 मानव रहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म करने का ऐलान किया है. भारतीय रेलवे में सिग्नल प्रणाली के आधुनिकीकरण पर 78,000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान है. उम्मीद थी कि इस बजट में रेलवे की अन्य सुरक्षा उपायों के बीच इस पर भी जोर दिया जाएगा. हालांकि रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि भीड़ वाले नेटवर्क में स्वचालित सिग्नल प्रणाली को आधुनिक बनाने पर काम चल रहा है. इसका मकसद सुरक्षा को बढ़ाना व रेल की रफ्तार को तेज करना है. मौजूदा सिग्नल प्रणाली को अत्याधुनिक प्रणाली से बदलने के साथ, इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग प्रणाली का प्रसार, यूरोपीय रेल नियंत्रण प्रणाली लेवल-2 को शामिल करना और मोबाइट ट्रेन रेडियो संचार प्रणाली रेलवे का उन्नतीकरण भी एजेंडा का हिस्सा है.

वित्त मंत्री जेटली ने घोषणा की है कि इस साल 700 नए रेल इंजन और 5160 नए कोच बनाए जाएंगे. उन्होंने बताया कि ट्रेनों के रख-रखाव और परिचालन पर भी विशेष ध्यान दिया जाएगा. रेलवे डीजल इंजनों को धीरे-धीरे चलन से बाहर कर रही है, इसलिए बड़ी संख्या में इलेक्ट्रिक इंजनों की जरूरत होगी.

इस बार बजट में मुंबई की लाइफ लाइन मुंबई लोकल का दायरा 90 किलोमीटर बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. मुंबई में लोकल ट्रेनों के लिए 11 हजार करोड़ दिए गए हैं. इसके अलावा बेंगलुरू में सबअर्बन इलाकों में 160 किलोमीटर रेलवे नेटवर्क बढ़ाने की योजना है. बड़ोदरा में रेलवे यूनिवर्सिटी बनाई जाएगी. सभी ट्रेनों और प्लेटफार्म्स पर वाई-फाई की सुविधा भी दी जाएगी.

बुलेट ट्रेन की महत्वाकांक्षी परियोजना का जिक्र करते हुए जेटली ने कहा कि मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड बुलेट ट्रेन का ट्रैक बनाने का काम जल्द शुरू किया जाएगा. बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए रेलवे कर्मचारियों को बड़ोदरा रेल यूनिवर्सिटी में ट्रेनिंग दी जाएगी. रेल मंत्री पीयूष गोयल ने बुलेट ट्रेन को भविष्य की मांग बताया था. उन्होंने कहा था कि मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल प्रोजेक्ट एनडीए सरकार की एक दूरंदेशी योजना है. इस प्रोजेक्ट के तहत हम यात्रियों को गति के साथ-साथ सुरक्षित और बेहतर सफर करा पाएंगे. उन्होंने राजधानी एक्सप्रेस का उदाहरण देते हुए कहा था कि 1968 में इस तेज रफ्तार गाड़ी को चलाने के विरोध में कई लोग थे. आज इसी राजधानी एक्सप्रेस से सफर करने के लिए हर कोई तैयार है.

उन्होंने दावा किया था कि जापानी तकनीक के इस्तेमाल से बनने वाली इस ट्रेन के चलने से हमारी अर्थव्यवस्था का भी विकास होगा और हजारों नौकरियां पैदा होंगी. अब मोदी सरकार की इस महत्वाकांक्षी परियोजना से कितनी नौकरियों का सृजन होता है, यह तो बुलेट ट्रेन चलने के बाद ही पता चलेगा. लेकिन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि रेल यात्रियों की सुविधा में इजाफा या ज्यादा एक्सप्रेस ट्रेन चलाना सरकार का लक्ष्य होना चाहिए था. बुलेट ट्रेन से एक खास तबके के लोग ही सफर कर पाएंगे. यह रेलवे के आम यात्रियों के लिए नहीं होगा.

चौथे साल भी नहीं बढ़ा किराया 

रेल यात्रियों के लिए राहत भरी खबर है कि लगातार चौथे साल किराए में बढ़ोत्तरी नहीं की गई है. 2014 में रेल किराए में 14 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी. इससे पहले 2013 में हर क्लास के टिकट पर 2 से 10 पैसा/किलोमीटर किराया बढ़ाया गया था. उस समय यूपीए सरकार ने यह तर्क दिया था कि ईंधन महंगा होने की वजह से किराया बढ़ाना पड़ा. 2012 में भी करीब 9 साल के बाद रेल किराया बढ़ाया गया था.

आमदनी बढ़ाने पर जोर

अपनी कमाई बढ़ाने के लिए रेलवे खाली पड़ी जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल करने पर जोर देगी. इंफ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा के विकास पर रेल विभाग बाजार और आंतरिक संसाधनों से भी धन जुटाने का प्रयास कर रहा है. रेल मंत्री पीयूष गोयल हमेशा इस बात पर जोर देते रहे हैं कि रेलवे को जीबीएस पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. रेलवे को अपने आंतरिक संसाधनों और बाजार से धन पैदा करना चाहिए. 2017 के आम बजट में यात्रियों की सुरक्षा, सफाई, कैपिटल एंड डेवलपमेंट वर्क और फाइनेंस एंड अकाउंटिंग रिफॉर्म पर सरकार का खास जोर था. पिछले वर्षों में रेल हादसों में वृद्धि को देखते हुए इस बार रेल बजट में सुरक्षा और दुर्घटनाओं को रोकने पर जोर दिया गया है.

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