बिहार में कांग्रेस की स्थिति काफी दयनीय है. 1990 के विधानसभा चुनाव में वह सत्ता से बेदखल हुई थी और फिर निरंतर सिकुड़ती चली गई. उस चुनाव में अविभाजित बिहार विधानसभा की 72 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी. अगले चुनाव में वह पचास सीटों के आसपास सिमट गई और फिर उसके अगले चुनाव में 23 पर. राज्य की मौजूदा विधानसभा में कांग्रेस के पांच विधायक हैं. आसन्न विधानसभा चुनाव में उसके हिस्से में कितनी सीटें आएंगी, यह कहना अभी मुश्किल है. इस अधोमुखी और ऐतिहासिक क्षरण की अपनी वजह है. जिन राजनीतिक ताकतों ने कांग्रेस का वोट बैंक तहस-नहस किया, पार्टी उनके लिए ही खाद बनती रही और उनकी दया पर विधानमंडल और संसद की दूरी तय करती रही.
बिहार में कांग्रेस की और कोई पहचान बची हो या नहीं, एक विशेषता ज़रूर शेष है, वर्चस्व का गुटीय संघर्ष. यहां कांग्रेस में जब कुछ नया या खास होता है, तो सूबे की राजनीति को पता लगने में थोड़ा भी विलंब नहीं होता यानी पार्टी का आंतरिक गुटीय सत्ता संघर्ष सड़कों पर आ जाता है. असंतुष्ट खेमों की गोलबंदी और दिल्ली दौड़ का सिलसिला अनायास शुरू हो जाता है. नई समिति बनी, तो विरोध होने लगा, अब तो इसमें प्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग जोड़ दी गई है. पटना में विरोधी खेमों की समान मांग पर गोलबंदी का सिलसिला चल रहा है, वहीं अनेक विक्षुब्ध नेता दिल्ली में जमे हैं. प्रदेश संगठन पर काबिज गुट विक्षुब्धों के अभियान को सत्ता से बेदखल समूहों की स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिक्रिया मानकर उस पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझता. उसके लिए तो चुनावी साल में पार्टी को ज़्यादा धारदार बनाने के कार्यक्रम अमल में लाना सबसे बड़ी राजनीतिक ज़रूरत है. गंभीर से गंभीर मामला फुस्स बना देने की यह पुरानी और आजमाई हुई कांग्रेसी शैली है. सो, विक्षुब्ध खेमों के क्रियाकलापों से बेफिक्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी और उनकी टीम घोषित पदयात्रा कार्यक्रम की तैयारी में जुटी है.
चुनावी साल में राज्य में पार्टी को नए सिरे से पहचान देने या पुरानी पहचान ताजा बनाने के ख्याल से प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व ने बुद्ध से गांधी तक की पदयात्रा का कार्यक्रम तय किया है, जो बोधगया से शुरू होकर दो चरणों में भीतिहरवा (पश्चिम चंपारण) तक जाएगी और 25 मार्च की रात पटना पहुंचेगी. पहला चरण पूरा होने के बाद अगले चरण का कार्यक्रम तय किया जाएगा. पदयात्रा में प्रदेश कांग्रेस समिति के दो सौ पदाधिकारी शामिल होंगे. हर ज़िले या क्षेत्र में भी स्थानीय स्तर पर लोग इसमें हिस्सा लेंगे. प्रदेश नेतृत्व का दावा है कि किसी भी बिंदु पर चार-पांच सौ लोग यात्रा में होंगे. कांग्रेस की यह पदयात्रा अपने दो उल्लेखनीय कार्यों की रक्षा या उनके बारे में लोगों को पूरी जानकारी देने के लिए आयोजित की गई है. कांग्रेस का मानना है कि मौजूदा केंद्र सरकार मनरेगा के नियम-कायद बदल कर ग़रीब ग्रामीणों को रोज़गार से वंचित करने की तैयारी कर रही है और इस कार्यक्रम में मशीनों के इस्तेमाल की योजना बनाई जा रही है. यह रोज़गार गारंटी कार्यक्रम बचाने के लिए ग्रामीणों को जागरूक करना ज़रूरी है.
पदयात्रा का दूसरा मकसद भूमि अधिग्रहण क़ानून में किसान विरोधी बदलाव का विरोध करना है. यूपीए सरकार ने 2013 में जो क़ानून पास कराया था, उसमें किसानों के हितों की रक्षा की गई थी, लेकिन एनडीए सरकार ने वे सारे प्रावधान समाप्त कर दिए हैं. इस मसले पर किसानों को गोलबंद किया जाएगा. भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलावों के लिए जारी अध्यादेश के विरोध में बिहार में कई स्थानों पर धरने दिए गए थे, जिनकी हालत क्या रही, बताने की ज़रूरत नहीं है. पदयात्रा किस हद तक सफल होती है, यह देखना बाकी है. हालांकि, कांग्रेस को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा से लोगों का मोह निरंतर भंग हो रहा है, लिहाजा वे राष्ट्रीय स्तर पर उसकी ओर रुख करेंगे. वजह, राष्ट्रीय स्तर पर वही भाजपा की मुखालफत कर रही है. कांग्रेस का संकट है कि उसके नेता (दिल्ली से लेकर ज़िला स्तर तक) यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि पार्टी निरंतर सिकुड़ती जा रही है और उन सभी राज्यों में उसकी ज़मीन छिन चुकी है, जहां कोई तीसरी राजनीतिक ताकत सक्रिय है.
बिहार में कांग्रेस की स्थिति काफी दयनीय है. 1990 के विधानसभा चुनाव में वह सत्ता से बेदखल हुई थी और फिर निरंतर सिकुड़ती चली गई. उस चुनाव में अविभाजित बिहार विधानसभा की 72 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी. अगले चुनाव में वह पचास सीटों के आसपास सिमट गई और फिर उसके अगले चुनाव में 23 पर. राज्य की मौजूदा विधानसभा में कांग्रेस के पांच विधायक हैं. आसन्न विधानसभा चुनाव में उसके हिस्से में कितनी सीटें आएंगी, यह कहना अभी मुश्किल है. इस अधोमुखी और ऐतिहासिक क्षरण की अपनी वजह है. जिन राजनीतिक ताकतों ने कांग्रेस का वोट बैंक तहस-नहस किया, पार्टी उनके लिए ही खाद बनती रही और उनकी दया पर विधानमंडल और संसद की दूरी तय करती रही. भागलपुर दंगे के बाद कांग्रेस के सामाजिक समर्थक आधार समूह क्षत-विक्षत हो गए, अल्पसंख्यक समुदाय जनता दल के साथ चला गया. फिर मंडल लहर में दलित एवं अति पिछड़ा तबका कांग्रेस से टूटकर लालू प्रसाद के साथ गया, वहीं अगड़ा समुदाय भाजपा की तरफ़ मुड़ गया. कांग्रेस ने इन तमाम राजनीतिक वास्तविकताओं का विश्लेषण किए बगैर लालू प्रसाद के कंधे पर चढ़कर कुछ हासिल करने को ज़्यादा फ़ायदेमंद समझा और शॉर्टकट की राजनीति के तहत अपने 23 में से 22 विधायकों को राबड़ी सरकार में मंत्री बनवा लिया. आम कांग्रेसी अब तक नहीं समझ सके कि अपनी राजनीति को धारदार बनाकर जनता का विश्वास हासिल करने के बजाय पार्टी नेतृत्व ने कंधे की राजनीति को तरजीह क्यों दी? पार्टी ने मंडल-कमंडल की अतिवादी राजनीति से दूरी रखने वाले बिहारी मतदाता समूहों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा, जिन्हें मजबूरन इधर-उधर जाना पड़ा और पार्टी चुनावी अखाड़े में नए-नए पराभव भोगने को विवश हो गई. बिहार की राजनीति में कांग्रेस की हैसियत अब सदाकत आश्रम और मीडिया तक सीमित रह गई है.
इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस एक बार फिर चुनावी अखाड़े में उतरने की तैयारी कर रही है. यह भी तय है कि आसन्न विधानसभा चुनाव में वह प्रस्तावित एकीकृत जनता परिवार के साथ रहेगी. यदि किसी कारण जनता परिवार के घटकों (लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के दलों) का विलय नहीं हुआ, तो उनमें से दोनों या किसी एक के साथ कांग्रेस को तालमेल करना होगा. उस राजनीतिक परिस्थिति में तालमेल लालू प्रसाद के राजद या नीतीश कुमार के जद (यू) के साथ होगा, कहना कठिन है. दोनों के पक्ष-विपक्ष में बिहार कांग्रेस में गोलबंदी है. लेकिन, इतना तय है कि किसी भी हालत में कांग्रेस के खाते में 40 से अधिक सीटें नहीं आनी हैं. यह भी तय है कि इन सीटों के उम्मीदवारों के चयन में सहयोगी दल के प्रमुख की भूमिका बड़ी होगी. पिछले कई चुनावों का अनुभव यही रहा है. कांग्रेस के कई पुराने प्रबंधकों का मानना है कि पार्टी की आंतरिक खेमेबंदी का मकसद दबाव बनाकर चुनाव में अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ाना भर है. बिहार में पिछले कई वर्षों से कांग्रेस में नए खून का प्रवेश लगभग बंद है. हालांकि, सदस्यता अभियान के बाद सदस्यों की संख्या बढ़ी है, पर उनमें युवाओं की संख्या काफी कम रही. हर खेमे का नेता चुनाव में अपना हिस्सा चाहता है, खुद के लिए भी और अपने खास लोगों के लिए भी. पार्टी के पुराने गुमनाम प्रबंधक आंतरिक खेमेबंदी तेज होने के लिए इसी चाहत को ज़िम्मेदार मानते हैं. क्या बिहार में कांग्रेस नेताओं की यह चाहत दिल्ली नहीं समझ पा रही है?