इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जाएगी. पर महत्वपूर्ण यह है कि देश में जानबूझ कर तनाव का वातावरण बनने दिया गया. जो लोग रोज़ाना टेलीविजन देखते हैं और अ़खबार पढ़ते हैं, उन्हें भी यह भ्रम है कि फैसला, राम मंदिर था या बाबरी मस्जिद, इस पर आने वाला है. बहुत कम लोगों को इस बात का पता है कि फैसला टाइटिल सूट यानी ज़मीन किसकी है, इस पर आने वाला है. अगर सरकार और टेलीविजन तथा अ़खबार इस बात को सा़फ कर देते तो तनाव नहीं बढ़ता. सांप्रदायिक ताक़तें तनाव बढ़ाने में सफल तो नहीं हो पाईं, लेकिन जितनी कोशिश वे कर सकती थीं, उन्होंने की. दस हज़ार में कम से कम एक के मन में शंका पैदा हो गई कि अगर फैसला आता है तो दंगे अवश्य होंगे. यही सांप्रदायिक ताक़तों की सफलता है और यही ग़ैर सांप्रदायिक शक्तियों और सरकार की हार है.
राम जन्मभूमि के नाम पर सत्ता चाहने वालों को मुसलमानों से ज़्यादा हिंदुओं ने रोका. हिंदू स्वभाव से सांप्रदायिक नहीं है और न वह सांप्रदायिक ताक़तों का साथ देता है. इसलिए सारी कोशिशों के बाद भी हमें आम जनता में कहीं तनाव देखने को नहीं मिला. इससे बड़ी सांप्रदायिक ताक़तों की हार क्या हो सकती है. अ़फसोस तब होता है, जब सांप्रदायिक ताक़तों को हिंदुओं का प्रतिनिधि मान बयानबाजी शुरू हो जाती है. अगर यह ग़लती न हो तो सा़फ गिना जा सकता है कि सांप्रदायिक ताक़तें कितनी कम संख्या में हैं.
सांप्रदायिक ताक़तों ने इस बात को फैलाने की कोशिश की है कि फैसला यदि व़क्फ बोर्ड के पक्ष में आता है तो हिंदू दंगा करेंगे और यदि वक्फ बोर्ड के खिला़फ आता है तो विजय जुलूस निकाल कर वे ऐसी स्थिति पैदा कर देंगे कि दंगा हो जाए. इनका अदालत में विश्वास नहीं है, दूसरे शब्दों में कहें तो इनका संविधान में ही विश्वास नहीं है. जो भी आस्था का सवाल उठाता है, उससे सवाल पूछना चाहिए कि देश के ज़्यादातर मंदिरों और मठों में गद्दी के उत्तराधिकारियों में मुकदमा चल रहा है. देश के ज़्यादातर लोग किसी न किसी मसले पर अदालतों में उलझे हैं. अपने व्यक्तिगत मसलों में ये लोग अदालत का फैसला मानते हैं, लेकिन राम जन्मभूमि के मसले पर ये आस्था का सवाल उठाते हैं. अयोध्या में हर दसवां घर यह दावा करता है कि राम वहीं पैदा हुए थे. उन बेचारों की आस्था कमज़ोर है, क्योंकि उनके साथ सत्ता चाहने वाली राजनैतिक जमात नहीं है.
आपको एक खास बात बताना चाहेंगे. फैज़ाबाद और अयोध्या दियरा राज्य के अंतर्गत आते हैं. जब ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो शहरी संपत्ति को इससे अलग रखा गया. दियरा राज्य को आज भी अयोध्या और फैज़ाबाद के सरकारी महकमे चार आना दो आना के हिसाब से किराया देते हैं. इसी दियरा राज्य के राजा लाल शिवेंद्र प्रताप सिंह को एक बड़ी गठरी में परशियन में लिखे का़फी काग़ज़ मिले. उन्होंने किसी जानकार को तलाशा तो पता चला कि यह ज़मीन जहां बाबरी मस्जिद थी, उन्हें शेरशाह सूरी ने दान में दी थी. इनके पूर्वजों में से एक धर्म बदल कर मुसलमान हो गए थे, अत: परिवार ने मस्जिद को वैसा ही रहने दिया और उसकी देखभाल की.
लाल शिवेंद्र प्रताप सिंह ने अदालत में इन तथ्यों के आधार पर हस्तक्षेप की गुज़ारिश की तथा कहा कि यह ज़मीन तो उनकी है तथा सुबूत में शेरशाह सूरी हस्ताक्षरित काग़ज़ भी दिए. अदालत ने उन्हें हस्तक्षेप की इजाज़त भी दे दी. अदालत में यह पक्ष भी है. उनका कहना था कि सरकार ने ज़मीन अधिग्रहीत नहीं की है, इसलिए ज़मीन पर मालिकाना हक़ उनका है. संयोग से राजा लाल शिवेंद्र प्रताप सिंह की मृत्यु लिवर की बीमारी की वजह से साल भर पहले हो गई, लेकिन मुकदमे के वह एक पक्ष हैं. पर यहां हम मुकदमे में क्या होगा और सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट क्या फैसला देगा, इस पर बात नहीं कर रहे हैं.
हम स़िर्फ यह बताना चाहते हैं कि इस देश का हिंदू कहा जाने वाला व्यक्ति सनातन धर्म को मानने वाला है तथा वह सांप्रदायिक नहीं है. बाबरी मस्जिद के शहीद होने के बाद चार राज्यों में चुनाव हुए थे. इन चारों राज्यों में भाजपा का शासन था. चुनावों में भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल में हार गई थी तथा राजस्थान में वह भैरो सिंह शेखावत की वजह से सत्ता में वापस आ पाई थी. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल में चुनाव राम मंदिर बनाने के नाम पर हुए थे तथा बहुमत ने इसे मुद्दा मानने से इंकार कर दिया था. इसके बाद लोकसभा के चुनाव हुए, जिसमें भाजपा ने फिर राम मंदिर का मुद्दा उठाया था, पर जनता ने उसे नहीं माना. नरसिंहराव और भाजपा का नहीं, जनता दल का प्रधानमंत्री दो बार बना, पहले एच डी देवेगौड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल. वी पी सिंह ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा था, अगर प्रकाश करात विरोध न करते तो आज देश का इतिहास दूसरा होता.
देवेगौड़ा और गुजराल के असफल होने के बाद देश ने भाजपा को अकेले नहीं चुना. भाजपा को जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार की मदद लेनी पड़ी और संयुक्त सरकार बनी. हम कहना चाहते हैं कि राम जन्मभूमि के नाम पर सत्ता चाहने वालों को मुसलमानों से ज़्यादा हिंदुओं ने रोका. हिंदू स्वभाव से सांप्रदायिक नहीं है और न वह सांप्रदायिक ताक़तों का साथ देता है. इसलिए सारी कोशिशों के बाद भी हमें आम जनता में कहीं तनाव देखने को नहीं मिला. इससे बड़ी सांप्रदायिक ताक़तों की हार क्या हो सकती है.
अ़फसोस तब होता है, जब सांप्रदायिक ताक़तों को हिंदुओं का प्रतिनिधि मान बयानबाजी शुरू हो जाती है. अगर यह ग़लती न हो तो सा़फ गिना जा सकता है कि सांप्रदायिक ताक़तें कितनी कम संख्या में हैं. ये दंगे कराने की कोशिश कर सकती हैं, छोटी-मोटी जगहों पर करा भी सकती हैं. अ़फसोस इस बात का है कि इनकी सफलता के पीछे सरकार की काहिली, अदूरदर्शिता और बेवकूफी होती है, पर सत्ता इनके हाथों में नहीं जा सकती.
देश का हर सोचने-समझने वाला व्यक्ति संविधान में विश्वास करता है और अदालतें संविधान की रक्षा और व्याख्या करती हैं. इसलिए उसका फैसला मानना उसका कर्तव्य होता है. अदालत का आदेश न मानना और आस्था की दुहाई देना जंगलराज की ओर ले जाता है तथा बताता है कि संविधान का राज कुछ लोगों को पसंद नहीं है. लेकिन देश का हर आदमी यह जानता है कि अदालत का फैसला आखिरी है और उसे सभी को मानना चाहिए.
आप सब, जो अ़खबार पढ़ते हैं, देश-दुनिया और समाज पर नज़र रखते हैं, से हम एक सवाल पूछना चाहते हैं, क्या सचमुच बाबरी मस्जिद और राम मंदिर ऐसा मुद्दा है, जिसके लिए बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, विकास, भूख, मौत और बराबरी की हिस्सेदारी की लड़ाई को छोड़ दिया जाए. अगर जान देनी है तो बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि की अमूर्त लड़ाई के लिए देनी चाहिए या गैर बराबरी, बराबर की हिस्सेदारी, विकास, भूख से लड़ने और बीमारी को हराने के लिए देनी चाहिए. फैसला करने का समय आ गया है कि मुल्क को कहां जाना है. फैसला कीजिए.