आज़ादी के तक़रीबन दो दशक पहले 1928 के आसपास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा था, जनता की भाषा एक और शासन की भाषा दूसरी होने से जनता संसद तथा विधानसभाओं के सदस्यों पर समुचित नियंत्रण नहीं रख सकेगी, इसलिए उचित यही है कि हम अपनी सुविधा के लोभ में आकर अंग्रेजी के लिए दुराग्रह नहीं करें. यदि अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही, तो इससे देश का स्वराज्य अधूरा रहेगा. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के इस कथन पर भारतीयों ने ध्यान नहीं दिया और कालांतर में अंग्रेजी के चाहने वालों ने एक ऐसा माहौल पैदा किया, जिसमें अन्य भारतीय भाषाएं हिंदी को अपना दुश्मन समझने लगीं. नतीजा यह हुआ कि हिंदी राजभाषा तो बनी, लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा. जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही. न तो हिंदी को उसका हक़ मिला और न अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व.
केंद्र में नई सरकार के गठन के बाद एक बार फिर से यह उम्मीद जगी है कि हिंदी को उसका हक़ मिलेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ़ से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि हिंदी को सरकार में अहमियत मिलने वाली है. संसद सत्र के पहले दिन प्रधानमंत्री ने हिंदी में शपथ ली. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत कई सांसदों ने संस्कृत एवं हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में शपथ ली. संस्कृत में शपथ लेने को कई बुद्धिजीवी हिंदुत्व से भी जोड़कर देखने की फिराक में हैं. यह सही है कि इस वक्त देश में संस्कृत एक विषय और पूजा- पाठ में मंत्रोच्चार की भाषा के तौर पर प्रचारित है, लेकिन अब भी कई लोग संस्कृत में गंभीर काम कर रहे हैं. संसद में संस्कृत में शपथ लेने से हाशिये पर गई इस भाषा को जीवनी शक्ति तो नहीं मिलेगी, परंतु इसमें काम करने वालों का उत्साह अवश्य बढ़ेगा. यह प्रतीक अपने भाषा से प्रेम और अंग्रेजी के वर्चस्व पर प्रहार का भी है.
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय की राह में अहं का इतना बड़ा अवरोध खड़ा कर दिया गया कि उससे पार पाना मुश्किल हो गया. यह अनायास नहीं है कि बांग्ला भाषा के कई लोगों ने आज़ादी पूर्व हिंदी भाषा का समर्थन किया था, चाहे वह केशव चंद्र सेन की स्वामी दयानंद को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुवाई में अदालत की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो. लेकिन, बाद में हिंदी के मुकाबले दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं को खड़ा करने की साजिश हुई, तो बांग्ला भाषी लोग अपनी साहित्यिक विरासत की तुलना हिंदी से करने लगे. हिंदी ने तो वह दौर भी देखा, जिसमें बांग्ला भाषी लोग हिंदी को हेय समझने लगे थे. जिस प्रांत के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी के विकास के लिए अथक प्रयास किया, वहीं तमिल भाषी लोग अपने महाकाव्यों की दुहाई देकर हिंदी को नीचा दिखाने लगे.
यह गंभीर शोध का विषय है कि क्यों और कैसे यह माहौल बना कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के लोग दुश्मन की तरह समझने और उसी मुताबिक बर्ताव करने लगे. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि आज़ादी के बाद प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी का माहौल बना था, किंतु जब हिंदी विरोधियों ने यह देखा कि हिंदीतर भाषाएं अब हिंदी के विरुद्ध भड़काई नहीं जा सकतीं, तब उन्होंने अंग्रेजी का गुणगान प्रारंभ कर दिया. अब वे यह तर्क देने लगे हैं कि अंग्रेजी को अगर हमने छोड़ दिया, तो शिक्षा और शासन के क्षेत्रों में हमारी प्रगति में अवरोध पैदा हो जाएगा. इस तरह का माहौल बनते देखकर अंग्रेजी के खैरख्वाहों ने एक सुनियोजित साजिश के तहत यह प्रचारित किया कि अगर हिंदी का वर्चस्व कायम हो गया या हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया गया, तो अन्य भारतीय भाषाएं ख़त्म हो जाएंगी. इस अफवाह को इतने जोर-शोर से फैलाया गया कि अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी को लेकर एक दुर्भावना का भाव उत्पन्न हुआ, जो कालांतर में हिंसक आंदोलन में तब्दील हो गया. 5 जुलाई, 1928 को यंग इंडिया में लिखी गई गांधी की नसीहत को भुला दिया, जिसमें उन्होंने लिखा था, हज़ारों नवयुवक अपना क़ीमती समय इस विदेशी भाषा (अंग्रेजी) को सीखने में ही नष्ट करते हैं, जबकि उनके दैनिक जीवन में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है. अंग्रेजी सीखने में समय लगाते हुए वे अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करते हैं. वे इस अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं कि ऊंचे दर्जे के विचार अंग्रेजी में ही प्रकट किए जा सकते हैं. अंग्रेजी के लादे जाने से राष्ट्र की शक्ति सूख गई है. विद्यार्थी आज जनता से दूर जा पड़े हैं, शिक्षा पाना बड़े खर्चे का काम हो गया है. गांधी जी ने तब चेताया था कि अगर यही हाल रहा, तो बहुत संभव है कि राष्ट्र की आत्मा का नाश हो जाए. आज ऐसा माहौल बना दिया गया है कि अंग्रेजी में दक्ष युवाओं के लिए रा़ेजगार के ज़्यादा अवसर हैं.
शिक्षा का अधिकार तो दे दिया गया, लेकिन देश में मुकम्मल शिक्षा नीति के अभाव में भाषा नीति पर बात नहीं हो पाई. हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाएं मजा मारने का अड्डा बनती चली गईं. जिन पर हिंदी के विकास और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने का दायित्व था, वे छोटी-छोटी चीजों में उलझे रहे. इसी वर्ष साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में अकादमी पुरस्कार से नवाजे गए लेखकों से मुलाकात का मौक़ा मिला. उनसे बातचीत के क्रम में यह बात उभर कर आई कि अब तक उनके मन में हिंदी को लेकर एक खास किस्म की ऐसी भावना है, जो सहोदर भाषा के लेखकों के मन में नहीं होनी चाहिए. ऐसी भावना का विकास एक दिन में नहीं हुआ. अफ़सोस की बात यह है कि साहित्य अकादमी या राज्य की भाषा अकादमियां भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बनाने के काम में बुरी तरह फ्लॉप रहीं.
साहित्य अकादमी में साठ साल के बाद हिंदी भाषा का अध्यक्ष हुआ है. उनसे कई उम्मीदें हैं, लेकिन साहित्य अकादमी की गतिविधियों से ऐसा कोई संकेत फिलहाल मिलता नहीं दिख रहा है. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय की कोई कोशिश दिख नहीं रही है. हिंदी के विकास के लिए बनाए गए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब जाकर आकार ले पाया है. इस विश्वविद्यालय के साथ यह दिक्कत हुई कि शुरुआत से ही इसकी दिशा भटक गई. विश्वविद्यालय पत्रिका निकालने और किताब छापने के काम में उलझ गया. दस वर्षों तक तो इसकी इमारत ढंग से नहीं बन पाई. इन सारे संस्थानों को हिंदी के विकास के लिए एक कार्ययोजना बनानी चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए. साथ ही यह कोशिश भी होनी चाहिए कि अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों में हिंदी को लेकर जो आशंकाएं हैं, वे दूर हों. परस्पर सहयोग और समन्वय का माहौल बने. ये संस्थाएं एक भाषा की कृति का अनुवाद दूसरी भाषा में कराकर परस्पर विश्वास का माहौल बना सकती हैं.
साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट यह काम कर रहे हैं, लेकिन इसे और व्यापक बनाना होगा. दूसरी एक बात और कि हिंदी के लोगों को भी अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों से परहेज छोड़ना होगा. अपनी भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग सहजता से होने देना होगा. अब एक बार फिर हिंदी के पक्ष में माहौल बनता दिख रहा है. ख़बरों के मुताबिक, देश के प्रधानमंत्री ने यह तय किया है कि वह विदेशी मेहमानों से हिंदी में ही बात करेंगे. यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र में अपना भाषण हिंदी में देकर अटल बिहारी वाजपेयी की विरासत आगे बढ़ाते हैं या नहीं. अगर वह ऐसा करते हैं, तो एक बार फिर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में मान्यता दिलाने की मुहिम जोर पकड़ेगी, तब विदेश मंत्रालय के लिए यह तर्क देना आसान नहीं होगा कि सालाना 82 करोड़ रुपये के खर्च की वजह से संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाने का काम नहीं हो पा रहा है.
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