वर्ष 2012 में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने के प्रयास किए जाएंगे, लेकिन आज तक ऐसा संभव नहीं हो सका. पिछले दिनों देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार बनी है. ऐसे में, हिंदी प्रेमियों को एक बार फिर उम्मीद बंधी है कि इस दिशा में जो प्रयास अधूरे रह गए हैं, वे अवश्य पूर्ण होंगे.
हमारे देश, खासकर हिंदीभाषी राज्यों और हिंदी प्रेमियों की तरफ़ से यह बात लगातार उठाई जाती रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं. यह एक बड़ी विडंबना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अधिसंख्यक जनता द्वारा बोली जाने वाली भाषा राष्ट्रों के संगठन में मान्यता प्राप्त नहीं है, जबकि अरबी जैसी कई अन्य भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता प्राप्त है. आज़ादी के बाद से ही उठ रही इस मांग को लेकर सरकारें समय-समय पर बयान देती रही हैं. सरकार के उन बयानों से जो भावार्थ निकलता रहा है, वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए भारत सरकार गंभीरता से प्रयासरत है. अटल बिहारी वाजपेयी ने जब संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में अपना भाषण दिया था, तबसे इस मांग ने और जोर पकड़ा था. एनडीए सरकार के दौरान हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इस तरह का प्रस्ताव भी पारित किया गया था, लेकिन हाल में विदेश मंत्रालय ने सूचना का अधिकार क़ानून के तहत मांगी गई जानकारी में बताया है कि सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं भेजा है.
राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने देश के आज़ाद होने के तुरंत बाद हरिजन में लिखे एक लेख में कहा था, मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पने वाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका, उसी तरह हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करने वाली अंग्रेजी को हटा देना चाहिए. इस आवश्यक परिवर्तन में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती चली जाएगी.
विदेश मंत्रालय की दलील है कि अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा का आधिकारिक दर्जा मिल जाता है, तो एक अनुमान के मुताबिक, सरकार को हर साल तक़रीबन 82 करोड़ रुपये या उससे अधिक खर्च करने होंगे. विदेश मंत्रालय का मानना है कि अगर भारत ऐसा प्रस्ताव करता है, तो संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमों के मुताबिक उसे वित्तीय सहायता देनी होगी. यह वित्तीय सहायता अनुवाद और हिंदी में दस्तावेज छपवाने में आने वाले खर्च के मद्देनज़र देनी पड़ेगी. 1973 में संयुक्त राष्ट्र संघ में पारित एक प्रस्ताव के मुताबिक, किसी भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रस्तावक राष्ट्र को उस भाषा के अनुवाद कराने, उन्हें छपवाने आदि पर आने वाला खर्च वहन करना होगा. भारत सरकार के विदेश मंत्रालय का यह तर्क गले नहीं उतर रहा है. देश की राजभाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और मान्यता दिलाने के लिए 82 करोड़ रुपये सालाना खर्च का तर्क बेमानी है. स़िर्फ 82 करोड़ या मान लिया जाए कि सौ करोड़ रुपये सालाना के खर्च से बचने के लिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर प्रस्तावित न करना देश के करोड़ों हिंदीभाषियों के लिए एक झटका है.
हिंदी प्रेमियों के अलावा किसी देश की भाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता उस देश के गौरव के साथ जुड़ी होती है. भारत जैसे विशाल देश के लिए, हिंदी के गौरव के लिए सौ करोड़ रुपये सालाना खर्च करना बहुत मामूली काम है. हर साल हिंदी दिवस के मौ़के पर सरकार के विभिन्न विभाग और सार्वजनिक उपक्रम करोड़ों रुपये फूंक देते हैं और उससे कुछ हासिल भी नहीं होता है. हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाली रस्म अदायगी में ही अगर कटौती कर दी जाए, तो सौ करोड़ रुपये से ज़्यादा की बचत संभव है. केंद्र में सरकार बदलने और शपथ ग्रहण के मौ़के पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत ज़्यादातर मंत्रियों ने हिंदी में शपथ ली. यहां तक कि उत्तर-पूर्व से आने वाले गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी शपथ ग्रहण के दौरान हिंदी भाषा अपना कर एक मिसाल पेश की. मोदी मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह और मोदी के हिंदी भाषा के प्रति रुझान को देखते हुए इस बात की उम्मीद जगी है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने के लिए केंद्र सरकार 82 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने के लिए तैयार हो जाएगी.
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का हिंदी के प्रति अनुराग सार्वजनिक तौर पर जाहिर है. सुषमा स्वराज संसद में भी ज़्यादातर वक्त हिंदी में ही बोलती रही हैं और उनकी हिंदी है भी बेहतरीन. प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की संयुक्त कोशिश से अगर यह संभव होता है, तो हिंदी भाषा के अलावा हिंदी प्रेमियों के लिए भी यह गौरव का क्षण होगा. नरेंद्र मोदी प्रतीकों को लेकर खासे सजग रहते हैं. माना जाता है कि प्रतीकों की राजनीति में उन्हें महारथ हासिल है. प्रतीकों के माध्यम से जनता को संदेश देने का उनका अपना एक खास अंदाज है. अब अगर भारत के प्रधानमंत्री प्रतीकात्मक तौर पर भी हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने के लिए 82 करोड़ रुपये का फंड आगामी आम बजट में रखवाने का उपक्रम करते हैं, तो हिंदी को सालों बाद उसका देय हासिल हो पाएगा. यही नहीं, इससे हिंदी के फैलाव के लिए की जा रही कोशिशों को बल भी मिलेगा.
वर्ष 2012 में जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में पहली बार इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए समयबद्ध योजना पर काम किया जाएगा. जोहानिसबर्ग विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित हुए लगभग डेढ़ साल बीत गए हैं. अब विदेश मंत्रालय द्वारा खर्च को आधार बनाकर इससे इंकार करना विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान पारित प्रस्ताव का अपमान भी है. सम्मेलन के दौरान जब प्रस्ताव पारित हो रहा था, तब उस वक्त की विदेश राज्य मंत्री परनीत कौर वहां मौजूद थीं. बावजूद इसके विदेश मंत्रालय का यह रवैया समझ से परे है. दरअसल, विदेश मंत्रालय में हिंदी को लेकर एक खास किस्म की उदासीनता का वातावरण है. वहां अंग्रेजी का बोलबाला है. अब सुषमा स्वराज के कैबिनेट मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह के विदेश राज्य मंत्री बनने के बाद यह आस जगी है कि अंग्रेजी का बोलबाला ख़त्म तो नहीं होगा, लेकिन हिंदी को भी तवज्जो मिलेगी.
राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने देश के आज़ाद होने के तुरंत बाद हरिजन में लिखे एक लेख में कहा था, मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पने वाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका, उसी तरह हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करने वाली अंग्रेजी को हटा देना चाहिए. इस आवश्यक परिवर्तन में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती चली जाएगी. आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी महात्मा गांधी के उक्त कथन पर अमल नहीं हो सका. मंत्रालयों से अभी तक हम अंग्रेजी का वर्चस्व ख़त्म नहीं कर सके हैं. नतीजतन, हिंदी को अब तक उसका देय नहीं मिल पाया है. दरअसल, आज़ादी के बाद माहौल कुछ ऐसा बना कि हिंदी को अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के दुश्मन की तरह पेश कर दिया गया. अन्य भारतीय भाषाओं को हिंदी को गले लगाकर सहोदर-भ्राता की तरह प्रेम करना होगा. इस दिशा में साहित्य अकादमी की एक भूमिका हो सकती है, लेकिन अकादमी में जिस तरह कामकाज हो रहा है, उससे बहुत उम्मीद तो नहीं जगती है.
साहित्य अकादमी में हर भारतीय भाषा के प्रतिनिधि होते हैं. उनके साथ मिल-बैठकर यह माहौल बनाया जा सकता है. इसके लिए अकादमी के आकाओं को पहल करनी होगी. अगर ऐसा होता है, तो हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं को भी ताकत मिलेगी. इसके अलावा अगर सरकारी स्तर पर मोदी सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने के गंभीर प्रयास करती है, तो हिंदी को विश्व भाषा का दर्जा हासिल होगा. हिंदी अब बाज़ार की भाषा बन चुकी है. बाज़ार ने उसे अपना लिया है. आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की सरकार हिंदी को तहेदिल से अपनाए और उसके विकास एवं संवर्धन के लिए होने वाले खर्च को उसकी राह का रोड़ा न बनने दे. अगर मोदी की अगुवाई वाली सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने में कामयाब हो जाती है, तो जिस तरह लोग अब भी अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते हैं, उसी तरह मोदी भी इतिहास में दर्ज हो जाएंगे.