उत्तराखंड में एक बार फिर तेज़ बारिश और बादल फटने की वजह से जान-माल का भारी नुकसान हुआ है. राज्य के पिथौरागढ़ और चमोली जिलों में बीते 1 जुलाई को लगातार बारिश, बादल फटने और भूस्खलन की वजह से मरने वालों का आंकड़ा 20 तक पहुंच गया, हालांकि खुछ रिपोर्टों में मरने वालों की संख्या इससे अधिक बताई जा रही है. चूंकि सबसे अधिक बारिश चमोली और पिथौरागढ़ जिलों में हुई इसलिए सबसे अधिक नुकसान इन्हीं जिलों में हुआ है. हालांकि तेज बारिश की वजह से राज्य की छोटी और बड़ी नदियों में आए उफान के बाद पानी नीचे उतर गया और उत्तर काशी में गंगोत्री और यमुनोत्री नेशनल हाईवे पर आए मलबे को सा़फ करने के बाद चारधाम की यात्रा शुरू कर दी गई. लेकिन अचानक बारिश और बादल फटने के बाद जिस प्रकार नदियों का जल स्तर बढ़ा उसने उत्तराखंड के लोगों को एक बार फिर जून 2013 जैसी त्रासदी के खौफ में जीने को मजबूर कर दिया. मौसम विभाग ने खतरे को भांपते हुए चेतावनी जारी कर दी जिसका मतलब होता है कि आपदा की वजह से त्रासदी आ सकती है. लिहाजा अधिकारियों को किसी भी तरह की त्रासदी से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए. अब सवाल यह उठता है कि 2013 के बाद फिर उसी तरह की त्रासदी क्यों दस्तक दे रही है? क्या वैसी तबाही फिर आ सकती है? क्या हिमालय में मानवीय हस्तक्षेप इतना बढ़ गया है जिसकी वजह से बड़ी त्रासदी आ सकती है?
अगर हम इन सवलों के जवाब जानना चाहें, तो सवालों के जवाब हैं हां. क्योंकि इस क्षेत्र को लेकर पिछले वर्षों के दौरान हुए अध्ययन और बार-बार प्रकट होने वाली आपदाएं यह साबित करती हैं कि मानवीय हस्तक्षेप से की वजह से यह सब कुछ हो रहा है. हिमालय में जहां भूस्खलन की संख्या में बृद्धि हुई है, तो वहीं बादल फटने की घटनाएं भी पहले के मुकाबले अधिक हो रही हैं और उसका नतीजा यह है कि तबाही अब भयानक रूप ले रही है. बनारस हिंदु विश्वविद्यालय में भूगोल के प्राध्यापक डॉ सऱफराज़ आलम इसके लिए जलवायु परिवर्तन और प्रकृति से मानव हस्तक्षेप को मानते हैं. उनका कहना कि पिछले पिछले कुछ सालों में केवल उत्तराखंड ही नहीं पूरे हिमालय में विकास के नाम पर बहुत सारे निर्माण कार्य हुए हैं, जिसका नतीजा प्राकृतिक आपदा से आने वाली तबाही के रूप में हमारे सामने है. उनका कहना है कि उत्तराखंड में गरीबी है और वहां के लोगों को रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर दूसरी जगहों पर जाना पड़ता है. यहां हुए निर्माण कार्यों की वजह से स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के अवसर तो पैदा हुए हैं, लेकिन इसके नतीजे में उन्हें भूस्खलन और बाढ़ की तबाही के रूप में प्रकृति की मार झेलनी पड़ रही है. यानी उत्तराखंड के लोगों के सामने आगे कुआं और पीछे खाई की स्थिति बनी हुई है.
हिमालय क्षेत्र में बादल फटने और भूस्खलन की घटना कोई अनोखी और नई चीज़ नहीं है. बादल का फटना मौसम विज्ञान से जुड़ी एक ऐसी घटना है जो पहाड़ों पर हमेशा होती रहती है और आगे भी जारी रहेगी. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बादल फटने की घटनाओं में भारी इजाफा हुआ है, जिसकी वजह से भूस्खलन भी पहले के मुकाबले अधिक हो रहे हैं. इसके लिए जहां हिमालय क्षेत्र में हो रहे अंधाधुंध निर्माण कार्यों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, तो वहीं मौसम के बदलाव को भी इसकी वजह बताया जा रहा है. राज्य में हो रहे निर्माण कार्यों से पैदा हुई स्थिति को राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत भी स्वीकार कर चुके हैं. वह कहते हैं कि हमारे पहाड़ कभी इतने कमज़ोर नहीं थे, कच्ची सडकों पर भारी वाहनों के चलने से ये कमज़ोर हो गए हैं. उनकी इस बात की पुष्टि डॉ सरफाज़ भी करते हैं, उनका कहना है कि पहाड़ काट कर बनाई गई सड़कों पर वाहनों के लगातार चलने की वजह से गुरुत्वाकर्षण असंतुलन पैदा होता है. जिसकी वजह से भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि होती है.
हिमालय और मानसून का बहुत ही गहरा रिश्ता है और ये दोनों एक दुसरे पर आश्रित हैं. अगर हिमालय नहीं होता तो भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून नाम की कोई चीज़ नहीं होती और वहीं मानसून हिमालय की नदियों और हिमनदों को संचालित रखने में अहम किरदार अदा करता है. जैसा कि पहले भी कहा गया कि विकास परियोजनाओं ने पर्वत के स्वाभिक स्वरूप को बिगाड़ दिया है. मौसम का मिजाज बदलने में भी इनकी अहम भूमिका है. होली गंगा नाम की किताब के लेखक कौशल किशोर कहते हैं कि प्रकृति अपनी नैसर्गिक अवस्था में वायुमंडल में जमा वाष्प को समान रूप से वितरित करती है. जबरन किए गए मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा बादलों के फटने के रूप में सामने आता है. आज हिमालय में जलविद्युत परियोजनाओं के साथ ही अंधाधुंध विकास के अनेक नमूने मौजूद हैं. अकेले उत्तराखंड में 70 परियोजनाओं पर काम चल रहा है. भविष्य में ऐसी आपदाओं की संख्या और उसकी विभीषिका और बढ़ेगी ही. दरअसल उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के तहत राज्य में 45 पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं और कम से कम 199 छोटी और बड़ी परियोजनाओं का प्रस्ताव रखा गया है. वहीं 260 मीटर ऊंचे टिहरी डैम के रिजरवायर में दरार आने की रिपोर्टें भी आ चुकी हैं. हिमालय में स्थित इस बड़े डैम के बारे में यह दावा किया जाता है कि यह रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता वाला भूकंप बर्दाश्त कर सकता है. लेकिन 2015 में आए नेपाल के भूकंप ने इस डैम की सुरक्षा पर एक बार फिर विशेषज्ञों को दुविधा में डाल दिया है और इसकी सुरक्षा को लेकर अब सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं.
बहरहाल मोनटाना यूनिवर्सिटी की जियोलॉजी की प्रोफेसर रेबेका बेनडिक्ट ने वर्ष 2015 में नेपाल में आए भयानक भूकंप और उससे पहले के भूकंपों का अध्ययन कर इस नतीजे पर पहुंची हैं कि हिमालय में रिक्टर स्केल पर 8 या उससे अधिक तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है. अब ऐसी स्थिति में जब पर्यावरणविद और भूवैज्ञानिकों की लगातार चेतावानी के बाद भी हिमालय के नाज़ुक इकोसिस्टम के साथ मानवीय छेड़छाड़ जारी है. यदि हिमालय में रिक्टर स्केल पर 8 की तीव्रता का भूकंप आता है तो उससे देश को एक बड़ी भयानक त्रासदी से गुजरना पड़ सकता है. अब सवाल यह है कि क्या इस त्रासदी से बचाव मुमकिन है? तो इस का जवाब है हां मुमकिन है. लेकिन देश के नीति-निर्माताओं को शायद इस भयानक स्थिति का अहसास नहीं है. इसलिए वे हिमालय में चल रहे अंधाधुंध विकास कार्य को रोकने की दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं और हिमालय की बार-बार दी जा रही चेतावनी को नज़रंदाज़ कर रहे हैं.