कई दिनों से मन में समाए हुए अरमान, अपने सियासी आकाओं की चौखटबरदारी करते चटक चुकी जूतियां और हर बंदे को नम कर सम्मान से सलाम-प्रणाम करते कमान बन चुकी कमर… अचानक खुली एक पर्ची और अरमानों की अर्थी निकल गई…! जहां से वे मेयर बनने की ख्वाहिश लिए बैठे थे, सीट महिला खाते सरक गई… जिन्होंने बीवियों के लिए तैयारियों को आगे बढ़ाया था, वहां किसी मुसटंडे के चुनाव लड़ने के हालात बन गए…! सियासी समीकरणों और जुगाड़ का फिर नया दौर शुरू हो गया है…! जहां खुद फिट नहीं हो पा रहे हैं, भाभी जी के लिए जगह बनाई जाने लगी है…! खुद से ज्यादा घरवाली की लोकप्रियता टिकट दिलाने के हकदारों के सामने पेश की जाने लगी है…! जाति बंधन से टिकट से छिटकने के हालात से बचने भी कुछ लोग जुट गए हैं…! कल तक सवर्ण होने के नारे के साथ कॉलर खड़ी कर घूमने वाले खुद को दलित, पिछड़ा और समाज का सबसे निचले तबके का साबित करने पर भी उतारू होने में गुरेज नहीं करने वाला है…! प्रदेश की राजधानी से लेकर इसकी व्यवसायिक राजधानी तक में बने हालात में लायक उम्मीदवार का टोटा महसूस होने के हालात बने हुए हैं…! जो लड़ चुके, पा चुके और मिले सियासी प्रतिसाद से स्वयं संतुष्ट भी हो चुके, उनकी तरफ फिर नजरें उठते दिखाई दे रही हैं…! सत्तारूढ़ पार्टी में केन्द्रीय कद रखने वाले भिया जी के बालसखा की फिर बल्ले-बल्ले होते दिखाई देने लगी है…! पिछली दो सरकारों के दौर से अरमानों की डोली सजाए बैठे इन भिया के सामने दो विकल्प खुल गए हैं, ये दो या वो तो देना ही पड़ेगा, की लॉटरी उनके हाथ आ गई है…! आरक्षण के नाम की एक पर्ची ने कई के अरमानों को ठंडा तो किया ही है, इसी बीच हमारे छोटे भाई पत्रकार फरहान खान ने एक ताजा शेर खड़का दिया है, मुलाहिजा फरमाईए :
मैं भी हूं आरक्षण का हकदार,
मुहब्बत में मैं भी बहुत पिछड़ा हुआ हूं।
पुछल्ला
इस सलाम-कलाम की बारीकी जान लें…!
अरबों रुपए की संपत्ति वाले एक मुस्लिम इदारे में बड़े दिनों बाद एक सरकारी नियुक्ति हुई। यहां से, वहां से, इधर से उधर से मुबारकबादों का सिलसिला किसी बाढ़ की तरह चला आया है। किसी अफसर की, चुनाव जीते किसी नेता जैसी गुलपोशी उन्हें बेशक खुशियों से लबरेज कर रही होगी। लेकिन गुलों के दस्ते के साथ अपनी ख्वाहिशों के पिटारे लाने वालों से साहब नावाकिफ हैं। इदारे के उसूलों और नियमों से संभवत: अनजान साहब जोश में उन बातों के वायदे भी करते नजर आ रहे हैं, जो उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। मेहमान के तौर पर आमद देने के बदले उनके जिम्मे महज कार्यालयीन व्यवस्थाएं दुरुस्त रखना है, मिलने आने वालों ने यह जंचा दिया है कि अब यहां से लेकर वहां तक, वहां से लेकर यहां तक सारी रियासत उनके ही इशारों पर चलने वाली है। साहब को कुछ करने से पहले यहां पहले सेवाएं दे चुके अफसरों के हाल-बेहाल पर एक नजर जरूर डाल लेना चाहिए, ताकि कल किसी तरह का पछतावा न रहे।
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