उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के लिए छोटे-बड़े तमाम दल हाथ-पैर मार रहे हैं. मेरी कमीज तेरी कमीज से कैसे ज्यादा सफेद की तर्ज पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है. सभी दल एक घाट पर पानी पी रहे हैं, जिसके पास 20-22 सीटें हैं वह भी और जिसके पास 2-4 या वो भी नहीं हैं, उनके भी जीत के बड़े-बड़े दावे हैं. सभी दलों के आका अपने को दूसरे से बेहतर साबित करने में लगे हैं. किसी को मुस्लिम वोटों का सहारा है तो कोई हिन्दू वोटों का रहनुमा बन बैठा है. हवा से लेकर जमीन तक सभी तरह के वादे किए जा रहे हैं. अखिलेश सरकार लोकार्पण और शिलान्यासों के बूते जनता का ध्यान आकर्षित करने में जुटी है तो बसपा, भाजपा और कांगे्रस को सपा सरकार नाकामियों का पुतला नजर आती है. चुनावी जंग में कौन शेर है और कौन गीदड़ किसी को नहीं पता. जनता ने सबको भरमा रखा है. राहुल आते हैं तो उन्हें सुनने के लिए लाखों की भीड़ पहुंच जाती है. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की तो सरकार ही है, इसलिए उनके लिए भीड़ जुटा लेना कोई मुश्किल काम नहीं है. मोदी को सुनने और देखने वालों की तो बात ही निराली है. बसपा सुप्रीमो मायावती तो भीड़ जुटाने के लिए पहचानी ही जाती है. यही नजारा अन्य दलों की रैली में भी देखने को मिल रहा है. ऐसा लग रहा है कि नेताओं और जनता के बीच एक-दूसरे को भरमाने का खेल चल रहा हो. हवा का रुख नहीं भांप पाने से तमाम दलों के दिग्गज हैरान और परेशान नजर आ रहे हैं. 2014 लोकसभा चुनाव का एजेंडा पूरा करने के लिए सभी दल कमर कस कर यूपी में खुद को आगे रखने के लिए सारे जतन कर रहे हैं. देश की सर्वाधिक 80 सीटों वाले यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच होना तय है. कुछ सीटों पर पीस पार्टी, अपना दल, कौमी एकता दल जैसे छोटे-छोटे वोटनोचवा की भूमिका में दिख सकते हैं. यह दल स्वयं न जीतें, लेकिन दूसरों का खेल बिगाड़ सकते हैं. बीते विधानसभा चुनाव में इन दलों ने एकता मंच बना कर बड़े दलों का खेल बिगाड़ने की कोशिश की थी, लेकिन कोई खास सफलता इनके हाथ नहीं लगी थी. यूपी मेें चुनावी तैयारियों के लिहाज से भाजपा और सपा के बीच रैलियों की जोर आजमाइश हो रही है. सपा दस रैलियांं कर सबसे आगे है. वहीं भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी आठ रैलियां कर चुके हैं. उनका कानपुर से शुरू हुआ रैलियों का कारवां 2 मार्च को लखनऊ में अंतिम पड़ाव पर पहुंचा. मोदी कानपुर के अलावा झांसी, आगरा, बनारस, गोरखपुर, मेरठ, बहराइच और लखनऊ में बड़ी रैलियां करके पार्टी में फैली आपसी गुटबाजी को आंशिक रूप से कम करने में सफल रहे हैं. इसके बावजूद भाजपा अब तक बूथ स्तर पर वह तैयारी नहीं कर पाई जिसकी जरूरत भाजपा के प्रदेश प्रभारी अमित शाह कई बार जता चुके हैं. भाजपा को लग रहा है कि प्रदेश में संगठन जिस स्थिति में भी हो नरेंद्र मोदी के सहारे पार्टी यूपी में 35 से 40 सीटों पर फतह हासिल कर सकती है.
बात सपा की करें तो समाजवादी पार्टी ने प्रदेश में सर्वाधिक दस रैलियां कर अपने सभी प्रतिद्वंद्वी दलों को पीछे छोड़ दिया है. रैलियों में जुटी भीड़ से भी पार्टी का उत्साह बढ़ा है. घोषणाओं को पूरा करके सपा यूपी में फ्रंट पर है. सपा ने मुस्लिम मतों को अपने पक्ष में करने के लिए अल्पसंख्यकों के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं. आजमगढ़, बरेली, मैनपुरी, झांसी, बनारस, गोरखपुर, सहारनपुर, गोंडा, बदायूं और इलाहाबाद में बड़ी रैलियां करके अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रही है. सपा की पूरी कोशिश है कि राज्य में लड़ाई सपा और भाजपा के बीच हो जाए, लेकिन भाजपा अपना अलग राग अलाप रही है. भाजपा के प्रदेश चुनाव प्रभारी अमित शाह के बयान पर गौर करने वाला है जो उन्होंने मोदी की लखनऊ रैली के बाद दिया. भाजपा मुख्यालय पर पत्रकारों से रूबरू होते हुए अमित शाह ने कहा कि यूपी में भाजपा का बसपा से मुकाबला है. भाजपा लोकसभा चुनाव में नंबर एक पार्टी होगी और बसपा दूसरे स्थान पर रहेगी. सपा और कांगे्रस के बीच तीसरे और चौथे नंबर के लिए मुकाबला होगा. शाह के बयान को सिर्फ भाजपा की रणनीति का हिस्सा मान कर नहीं देखा जा सकता है. समाजवादी सरकार के तमाम दावों के बाद भी हकीकत यही है कि सपा सरकार को लेकर आम जनता में रोष बढ़ रहा है. बसपा की तैयारी काफी सुनियोजित तरीके से चल रही है. हालांकि रैली के नाम पर बसपा एक ही बार मैदान में कूदी है, लेकिन यह रैली आज भी सपा की दस और भाजपा की आठ रैलियों से बीस ही दिखाई देती है. कड़ाके की ठंड केे बीच जनवरी माह में लखनऊ में बड़ी भीड़ इकट्ठी करके बसपा सुप्रीमो मायावती सभी विरोधी दलों को चेतावनी दे चुकी हैं. यह रैली पार्टी सुप्रीमो मायावती के जन्मदिन पर 15 जनवरी को आयोजित की गई थी. बसपा प्रत्याशियों के नामों की घोषणा साल भर पहले ही(लोकसभा प्रभारी के रूप में)करके उन्हें तैेयारी करने का मौका दे चुकी है. सपा की तरह बसपा ने थोक में प्रत्याशी भी नहीं बदले. कुछ सीटों पर बदले भी तो इससे पार्टी की सेहत पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है. बसपा ने बूथ स्तर पर अपने आप को सबसे मजबूत बना रखा है. अन्य दल संगठन की चिंता छोड़कर रैलियों में व्यस्त थे तो बसपा बूथ इकाइयों के गठन में जुटी हुई थी. बसपा को लगता है कि इस बार उसकी झोली में मुस्लिम वोट बड़ी तादात में पड़ सकते हैं.
कांगे्रस की हालत सबसे खराब है. प्रदेश में 22 सांसदों वाली कांग्रेस को केन्द्र सरकार की नाकामियों की सजा मिलती दिख रही है. महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को लेकर घिरी यूपीए सरकार का सारा ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ा जा रहा है. इसके चलते कांग्रेस के खिलाफ पूरे प्रदेश में माहौल बना है. राहुल ने 2009 के लोकसभा चुनाव में तो कांगे्रस की नैया पार करा दी थी, लेकिन 2012 के विधान सभा चुनाव में उनका ग्लैमर फीका पड़ गया. संगठन के भीतर आपसी खींचतान से भी कांग्रेस की स्थिति यूपी में खराब हुई है. प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री, बेनी प्रसाद वर्मा, पी एल पुनिया आदि नेताओं के बीच की रस्साकसी से भी कांग्रेस को नुकसान हो रहा है. कांगे्रस संगठन स्तर और जनसभा करने जैसे सभी मामले मे पिछड़ रही है. यूपी में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की केवल चार रैलियां ही हों पाई हैं. भीड़ के लिहाज से यह रैलियां बुरी तरह नाकाम रहीं. रोड शो करके राहुल ने नया पैतरा चला, लेकिन इसके नतीजे भी कोई खास अच्छे नहीं रहे, उत्तर प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष निर्मल खत्री लंबे समय तक अपनी कमेटी ही गठित नहीं कर पाए. इसका परिणाम यह रहा कि कांग्रेस चुनावी तैयारियों में पिछड़ गई है. छोटे दलों में रालोद और पीस पार्टी दो-दो बड़ी रैली करके अपनी तैयारियों का जायजा ले चुके हैं. अपना दल ने अभी तक कोई रैेली नहीं की, लेकिन प्रभावी इलाकों में पार्टी को मजबूत करने का काम जारी है. आप पार्टी की बात की जाए तो इसका आगाज यूपी में तो कम से कम अच्छा नहीं रहा. न तो रोड शो सफल रहा, न ही कानपुर की रैली में केजरीवाल के नाम पर भीड़ जुटी. अलबत्ता, मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की संभावना को देखते हुए केजरीवाल खेमे ने यह हवा जरूर उड़ा दी कि केजरीवाल वाराणसी से मोदी के खिलाफ आप पार्टी के प्रत्याशी हो सकते हैं. इसके बाद आरएसएस और भाजपा आलाकमान मोदी को वाराणसी की बजाए गुजरात से ही चुनाव लड़ाने का मन बनाने लगा है.
हवा का रुख नहीं भांप पाने की बेचैनी
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