पिछले कुछ हफ़्तों के घटनाक्रम ने सबका ध्यान जम्मू-कश्मीर के तीन क्षेत्रों में से एक जम्मू पर केन्द्रित कर दिया है. पहली घटना डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह की जन्म तिथि पर छुट्टी के प्रस्ताव को लेकर खड़े विवाद से संबंधित है. इस प्रस्ताव पर कश्मीर में तीखी प्रतिक्रिया हुई है, जिसकी पृष्ठभूमि यह थी कि डोगरा वंश ने तकरीबन सौ वर्ष के शासनकाल में कश्मीर पर निरंकुशता के साथ शासन किया. ऐसे घावों को कुरेदने से तकली़फ होती है.
छुट्टी का यह मुद्दा अभी विधान परिषद् तक प्रस्ताव के रूप में सीमित ही है कि क्षेत्रीय राजनीति में निहित एक और पहलू सामने आ गया, जो बज़ाहिर उतना महत्वपूर्ण नहीं है. फार्मासिस्ट एसोसिएशन ने एक हड़ताल बुलाई है, जिसमें उन्होंने आर्टिकल 370 का हवाला देते हुए जम्मू-कश्मीर मेडिकल सप्लाई कॉरपोरेशन लिमिटेड (जेकेएमएससीएल) द्वारा एक बाहरी व्यक्ति (यानी जम्मू-कश्मीर के गैर-निवासी) को कॉन्ट्रैक्ट दिए जाने का विरोध किया है.
शायद बहुत ही कम लोग होंगे, जिन्हें यह जानकारी होगी कि जम्मू में अभी आर्टिकल 370 चिंता का विषय होगा. एक लंबे समय तक इस मुद्दे का संबंध केवल कश्मीर से रहा है. दरअसल भाजपा ने न सिर्फ राज्य में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी सत्ता पाने के लिए एक प्रभावी चुनावी हथियार के रूप में इसका इस्तेमाल किया है.
1998 में जब भाजपा पहली बार केंद्र में सत्ता में आई (हालांकि एक छोटी अवधि के लिए) और फिर 1999 में वापस सत्ता हासिल की, तो उसके दो मुख्य मुद्दे थे. पहला, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और दूसरा, जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 को समाप्त करना.
हालांकि बहुमत के अभाव में भाजपा को इन मुद्दों को त्यागना पड़ा, क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए उसे ऐसी पार्टियों की मदद लेनी पड़ी, जो शायद सेक्युलर थीं. लेकिन भाजपा ने इन मुद्दों को कभी नहीं छोड़ा और ये दोनों मुद्दे विचारधारा का आधार बने रहे. भाजपा जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण की पक्षधर है और इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा, राज्य और केंद्र के बीच संवैधानिक रिश्ते को परिभाषित करने वाले संवैधानिक प्रावधान को समाप्त करना चाहती है.
जम्मू-कश्मीर में चुनावों के दौरान भाजपा धर्म के मुद्दे को उठाती रही है, क्योंकि जम्मू हिंदू बहुल क्षेत्र है. हालांकि पीर पंजाल और चिनाब क्षेत्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं. आर्टिकल 370 की समाप्ति भी हमेशा पार्टी के चुनाव अभियान के केन्द्र में रहा है. आर्टिकल 370 की वजह से विकास में राज्य के पिछड़ जाने की अवधारणा और कश्मीर घाटी के मुसलमानों के वर्चस्व के इर्द-गिर्द तैयार की गई धार्मिक भावना ने जम्मू में धीरे-धीरे भाजपा को चुनावी लाभ देना शुरू कर दिया है.
2014 के आम चुनाव के ध्रुवीकरण ने मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सफलतापूर्वक दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचा दिया. जम्मू में भी इसका खास असर देखने को मिला और दिसम्बर 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 25 सीटें जीत ली. 2008 के चुनावों में भाजपा को इसकी आधी सीटें मिली थीं. भाजपा ने मोदी लहर और अच्छे दिनों के वादे के साथ जम्मू जीत लिया और 23 प्रतिशत वोट के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. हालांकि पीडीपी को उससे थोड़ा कम, 22.7 प्रतिशत वोट मिला.
दरअसल, राज्य में कांग्रेस का जो नुक़सान था, वही भाजपा का फायदा था. कांग्रेस पहले ही भ्रष्टाचार के दलदल में डूब चुकी थी. कांग्रेस ने 2002 से 2008 तक पीडीपी के साथ और 2009 से 2014 तक एनसी के साथ गठबंधन सरकार बना राज्य में ध्रुवीकरण का बीज भी बोया. परंपरागत रूप से कांग्रेस जम्मू क्षेत्र की अधिकांश सीटों पर जीतती आई है और कश्मीर की पार्टियों एनसी और पीडीपी के साथ गठबंधन करती आई है.
हालांकि लद्दाख में भी इसकी उपस्थिति मजबूत है, लेकिन इसने हमेशा खुद को जम्मू के रक्षक के रूप में पेश किया है. अपने 12 वर्ष के शासनकाल में कांग्रेस के मंत्रियों ने यह लक्ष्य बना लिया था कि जम्मू में कोई भी मुसलमान किसी महत्वपूर्ण पद पर न आए. लिहाज़ा जम्मू में उसका सांप्रदायिकतावाद अंततः भाजपा की मदद कर गया.
अब फार्मासिस्ट एसोसिएशन की हड़ताल की तरफ वापस लौटते हैं. इस हड़ताल ने दो दिनों के लिए जम्मू में अपने कारोबार को ठप्प रखा. यह हड़ताल एक ऐसी कहानी कह रही है, जो अब तक न तो कही गई है और न ही सुनी गई है. राजनीतिक दावपेंच और भावानाओं के शोषण से इतर इस एक घटना ने उस सिद्धांत की हवा निकाल दी है, जिसने जम्मू में भाजपा की राजनीति को आधार दिया था. हालांकि इसके फायदे-नुक़सान के पहलुओं और आर्थिक हित (जिसने फार्मासिस्टो को निगम के आदेश के खिलाफ विद्रोह करने पर मजबूर किया) पर अलग से बहस हो सकती है.
लेकिन यह क्षेत्र की असली चिंता और राज्य की विशेष पहचान के बारे में बहुत कुछ कह जाती है. हो सकता है, यह केवल व्यावसायिक हितों के साथ जुड़ा हो, लेकिन आख़िरकार यह व्यापारियों की एक बड़ी राजनीतिक अभिव्यक्ति है, जो दिखाती है कि धारा 370 उनके लिए कितनी पवित्र है. यह पहला मौक़ा नहीं है, जब लोगों ने राज्य के विशेष दर्जे पर अपनी चिंता जताई हो, पूर्व में भी राज्य की नागरिकता का प्रमाण-पत्र जम्मू में मुद्दा रहा है, हालांकि इस तरह के प्रमाण-पत्र हजारों की संख्या में राज्य के गैर निवासियों को गुप्त रूप से दिया गया है.
इस से इतर कि जम्मू दलों के लिए राजनीतिक फुटबॉल बन गया और राजनीतिक दलों ने इसका इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए किया है, यह विद्रोह उन लोगों के लिए आंखें खोलने वाला है, जो इस मुद्दे को विवादास्पद बना कर अब तक लोगों का शोषण करते रहे हैं. प्रोफेसर रेखा चौधरी जैसी प्रतिष्ठित राजनीति शास्त्री ने जम्मू को हमेशा ध्रुवीकरण और सांप्रदायिकता के चश्मे से देखे जाने पर अपनी आपत्ति जताई है. उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि वहां हाशिए के तत्वों से परे भी बहुत कुछ है.
गौरतलब है कि फार्मासिस्टों की हड़ताल से पहले भी जून 2016 में सरकार को राज्य के एक गैर-निवासी को दिए गए खनन लीज के विवादास्पद आदेश को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा था. विधानसभा में हंगामे के बाद सरकार ने अनुबंध को रद्द कर दिया था. उस समय भी यही चिंता व्यक्त की गई थी कि विशेष राज्य के दर्जे को कमज़ोर किया जा रहा है.
हालांकि पैंथर्स पार्टी जैसी पार्टियां भी हैं, जो जम्मू के साथ भेदभाव का नारा लगा कर भाजपा की जगह लेने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन मौजूदा घटनाक्रम ने ऐसी ताकतों को अप्रासंगिक बना दिया है. अब जागो जम्मू और रोहिंग्या मुसलमानों को भगा दो का नारा भी कारगर साबित नहीं होगा.
लेकिन असल मुद्दा यह है कि क्या हुर्रियत सहित सभी कश्मीरी पार्टियां आगे आकर जम्मू की इन भावनाओं को मजबूती प्रदान करेंगी, जो दरअसल छुपी होती हैं और आर्थिक हितों का नुकसान होने पर प्रकट होती हैं. यह एक साझा मुद्दा है कि राज्य की विशेष पहचान की रक्षा की जाए और सभी दलों की भागीदारी इसमें सुनिश्चित की जाए.
अब चुनावी राजनीति इसे सफल होने देगी यह नहीं यह कहना मुश्किल है. लेकिन भाजपा के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि आर्टिकल 370 समाप्त करने का उसका नारा भविष्य में कारगर साबित नहीं होगा. राज्य की पहचान और विशेष दर्जा को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर करने के लिए जम्मू की खामोश बहुमत को सलाम किया जाना चाहिए.