चौथी दुनिया आम जनता में सच्चाई सामने लाने के लिए कितना प्रसिद्ध है, इसका अंदाज़ा इस बात से होता है कि जब यह पत्रकार हाशिमपुरा पर इस स्टोरी के संबंध में समाज के विभिन्न लोगों से मिल रहा था. कई लोगों ने कहा कि इस संबंध में आपको चौथी दुनिया की मध्य 1987 की फाइलें देखनी चाहिए. सच भी यही है कि चौथी दुनिया ने 27 वर्ष पूर्व यह सच्चाई सामने लाने में असाधारण भूमिका निभाई थी. अब जबकि इससे संबंधित मुकदमा दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में सुनवाई के आख़िरी दौर में है और शीघ्र ही किसी निर्णय की आशा है, चौथी दुनिया एक बार फिर यह पूरा मामला क़िस्तवार पेश कर रहा है. गत अंक (1-7 सितंबर, 2014) में हमने बताया कि हाशिमपुरा प्रकरण आख़िर है क्या और अदालत को इसे निपटाने में 27 वर्ष क्यों लग गए? इस बार जानिए कि हाशिमपुरा की सच्चाई सामने लाने, प्रभावितों की मदद करने और अदालत में मुकदमा आगे बढ़ाने में किन-किन मुस्लिम एवं मानवाधिकार संगठनों और व्यक्तियों की क्या भूमिका रही.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 22-23 मई, 1987 की रात्रि में पीएसी द्वारा उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के मुहल्ला हाशिमपुरा से 42 मुस्लिम युवकों को ट्रक में भरकर गाजियाबाद के मुरादनगर कस्बे में गंग नहर पुल के समीप अबुपुर गांव जा रही सड़क और हिंडन नहर के पास ले जाकर गोली मारकर बहते हुए पानी में फेंक दिया गया था. यह घटना सुनकर आज भी पूरा राष्ट्र कांप उठता है. कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जनता की सुरक्षा के लिए तैनात पीएसी के जवान यह घिनौना काम अंजाम देंगे. इसी के साथ यह भी नहीं सोचा जा सकता था कि मुस्लिम संगठन इस मामले में बेरुखी दिखाएंगे और प्रभावितों के लिए भेजी गई रकम उनके लिए इस्तेमाल न होकर बैंक की जीनत बनेगी. इस घटना का स्थानीय पुलिस और मीडिया में तो कुल मिलाकर खूब नोटिस लिया गया. गाजियाबाद के लिंक रोड थाना इंचार्ज वीरेंद्र सिंह द्वारा उसी वक्त मालूम होने पर एसपी विभूति नारायण राय एवं डीएम नसीम जैदी जिस प्रकार हरकत में आए, वह निश्चय ही उल्लेखनीय है. विभूति नारायण राय ने तो इस दु:खद घटना पर एक किताब ही लिख डाली, परंतु इस कटु सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राज्य एवं केंद्र में विराजमान कांग्रेसी सरकारों का रोल बहुत खराब और निंदनीय रहा. बजाय इसके कि राज्य एवं केंद्रीय सरकार हाशिमपुरा के उन परिवारों के साथ सहानुभूति बरतते हुए उनकी मदद करतीं, जिनके लोग पीएसी की गोलियों का निशाना बन कर गंग और हिंडन नहरों की बलि चढ़ा दिए गए थे, जमकर टालमटोल किया गया, जिसके चलते यह मामला निपटाने में 27 वर्ष लग गए.
ग़ौरतलब है कि 13 वर्षों तक गाजियाबाद की अदालत में क़ानून के साथ खिलवाड़ होता रहा. 2000 में पीएसी के 19 जवानों में से 16 ने सरेंडर किया, तो उन्हें जमानत भी मिली और वे अपनी-अपनी नौकरी पर वापस लौट आए. अब तो उनमें से तीन का निधन हो चुका है. जिन 16 जवानों के विरुद्ध मामला अदालत में चल रहा है, उन्हें से पीएसी से निलंबित भी नहीं किया गया. कुछ जवान रिटायर हो चुके हैं, जबकि कुछ अब भी नौकरी कर रहे हैं, आज़ाद घूम रहे हैं. राष्ट्र के क़ानून के साथ यह खिलवाड़ हो रहा था, जिसे देखकर हर शख्स परेशान था. मुस्लिम संगठन हों या मानवाधिकार संगठन या फिर अन्य लोग, सबके सब बेबस नज़र आ रहे थे. उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर इकबाल अंसारी, जो देश के विभिन्न मानवाधिकार संगठनों से जुड़े थे, के लिए यह असंभव हो गया कि वह खामोश रहें. वह बेचैन हो उठे कि 1987 से चल रहे मुकदमे को गाजियाबाद की अदालत से दिल्ली की किसी अदालत में किस प्रकार ट्रांसफर कराया जाए, ताकि हो रहे विलंब से बचा जा सके और शीघ्र इंसाफ मिल सके. इस संबंध में उन्होंने विभिन्न मानवाधिकार एवं मुस्लिम संगठनों के दरवाजे खटखटाए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. इसी दौरान उनकी मुलाकात सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड मुश्ताक अहमद अली से हुई. मुश्ताक कहते हैं, उस समय जब मैंने स्वर्गीय इकबाल साहब को भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मुकदमा किसी कारण ट्रांसफर न भी हुआ, तो उसमें तेजी लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट निर्देश तो दे ही देगा, तो वह उछल पड़ेे. 2001 में सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन दी गई, जिस पर सितंबर 2001 में ट्रांसफर की अनुमति मिली.
इस प्रकार यह मुकदमा गाजियाबाद की अदालत से दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में आ गया. इस मुकदमे का ट्रांसफर निश्चय ही एक महत्वपूर्ण निर्णय था और इसका श्रेय स्वर्गीय इकबाल साहब को जाता है. इस पत्रकार को अभी भी याद है कि इकबाल साहब इस संबंध में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डॉ. मुहम्मद मंजूर आलम द्वारा की जा रही नैतिक एवं माली मदद का वर्णन बार-बार करते थे. हाशिमपुरा मामले में किसकी क्या भूमिका रही, इस संबंध में मुश्ताक अहमद ने चौथी दुनिया को बताया कि उनकी जानकारी में क़ानूनी कार्रवाई के लिए किसी भी आम या मुस्लिम संगठन ने कोई भूमिका नहीं निभाई. उन्होंने कहा, चूंकि गाजियाबाद के लिंक रोड थाने में हाशिमपुरा के दो लोगों की ओर से एफआईआर दर्ज थी और सरकार स्वयं पक्ष बन गई थी, इसलिए सरकार की ओर से स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर नियुक्त किया गया था, जो इस मामले को देख रहा था. इसके अलावा जब यह ज़रूरत महसूस की गई कि प्रभावितों के लिए अलग से इंटरवेंशन पिटीशन दी जाए, तब मिल्ली काउंसिल की ओर से बतौर वकील मैंने साल 2000 में गाजियाबाद अदालत में यह ज़िम्मेदारी निभाई. उस समय मैं मिल्ली काउंसिल की इस पिटीशन के लिए वकालतनामे पर प्रभावितों एवं मारे गए लोगों के संबंधियों से हस्ताक्षर कराने के लिए हाशिमपुरा भी गया. मेरे साथ स्वर्गीय इकबाल साहब एवं स्वर्गीय मौलाना यामीन भी गए थे. लेकिन, 2002 में दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में मुकदमा ट्रांसफर होने के बाद मिल्ली काउंसिल ने अपनी कोशिश जारी नहीं रखी. मैंने निजी तौर पर दो-तीन सुनवाई में हिस्सा लिया, लेकिन जब देखा कि इस मामले में वकीलों की भीड़ बढ़ती जा रही है, तब मैंने दिलचस्पी लेना छोड़ दिया. अगर मिल्ली काउंसिल इस मामले को तीस हज़ारी में भी आगे बढ़ाती रहती, तो आज उसकी भूमिका प्रशंसनीय होती. दूसरी ओर स्वर्गीय इकबाल साहब ने प्रभावितों के लिए तीस हज़ारी कोर्ट में प्रसिद्ध वकील वृंदा ग्रोवर की भी सेवाएं लीं. इससे अंदाजा होता है कि यह मामला निपटाने में मानवाधिकार एवं मुस्लिम संगठन यानी किसी को भी कोई दिलचस्पी नहीं रही.
हाशिमपुरा प्रकरण और मुस्लिम संगठनों की बेरुखी
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