भारत को सनातन धर्म की आदि भूमि कहा जाता है. सनातन धर्म को ही हम हिंदू धर्म के नाम से भी जानते हैं. हिंदू धर्म की गुत्थियों को सुलझाने से पहले ज़रूरी है कि हम हिंदू धर्म को मानने वाले इस देश की बहुसंख्यक आबादी के मूल के बारे में तहकीकात करें कि हमारी जड़ें कहां छिपी हैं? ऐसा इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हज़ारों वर्षों से एक ही भू-भाग, एक ही तरह की जलवायु, एक ही सामाजिक ढांचे और एक ही आर्थिक पद्धति के भीतर जीवनयापन की वजह से भारतीय समाज के सभी लोगों के रूप-रंग, वेशभूषा, रहन-सहन, भाव-विचार और जीवन विषयक दृष्टिकोण में आश्चर्यजनक रूप से एकरूपता आ गई है.
ऐसे में एक नस्ल के लोगों को दूसरी नस्ल के लोगों से अलग करने का काम अस्वाभाविक और ज़रा मुश्किल भरा मालूम होता है. ऐसा करना कठिन अवश्य है, लेकिन कुछ ऐसी कसौटियां हैं, जिनके आधार पर उनमें वैज्ञानिक आधार पर अंतर कर एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है. दुनिया में जितनी भी प्रजातियां हैं, उनकी मूल नस्लों की पहचान उनकी भाषा और शारीरिक संरचना के आधार पर की जाती है. इस विषय का अध्ययन अलग-अलग शास्त्रों के रूप में किया जाता है. इनके प्रयोग से मानव जाति के इतिहास की रचना में बहुत सहायता मिली है. रूप-रंग और क़द-काठी के आधार पर भी मनुष्य जाति का अध्ययन जिस शास्त्र के अंतर्गत किया जाता है, उसे मानुषमिति या जनविज्ञान कहते हैं. जबकि भाषा विज्ञान में प्राचीन भाषा का अध्ययन किया जाता है.
भाषा वर्गीकरण के आधार पर मनुष्य की नस्ल का पता लगाना अपेक्षाकृत कुछ सरल हो गया, मगर रंग-रूप और शरीर के ढांचे को देखकर आदमी के मूल का पता लगाना आसान नहीं है, क्योंकि जलवायु के प्रभाव और विजातीय विवाह आदि के चलते रक्त सम्मिश्रण की वजह से मनुष्य के मूल के निर्धारण में बड़ी उलझनें पैदा हो जाती हैं. फिर भी विज्ञान में प्रजाति निर्धारण की जो कसौटियां बनाई गई हैं, उन पर आदमी की नस्ल की पहचान बहुत हद तक सही-सही कर ली जाती है.
जनविज्ञान की पहली कसौटी रंग की है. जनविज्ञानियों का एक साधारण विश्वास है कि गोरे रंग के लोग आर्य हैं और जिनका रंग पक्का काला है, वे आर्येतर हैं अथवा आर्यों और आर्येतर जातियों के बीच वैवाहिक मिश्रण से उत्पन्न जाति के हैं, जिन पर आर्येतर प्रभाव व्यापक है. खोपड़ी की संरचना देखकर भी नस्ल की पहचान की जाती है. इसी तरह नाक की बनावट भी आदमी की नस्ल को ज़ाहिर करने में मदद करता है. आदमी का क़द या डीलडौल और उसके मुंह या जबड़े की बनावट भी नस्ल की पहचान कराती है.
जनविज्ञान ने संसार की सभी जातियों को मुख्यतः तीन नस्लों में बांट रखा है. पहली नस्ल गोरे लोगों की है, जिन्हें हम कॉकेशियन कहते हैं. दूसरी नस्ल पीले रंग की प्रधानता वाले लोगों की है. ऐसे लोग मंगोल प्रजाति के होते हैं. तीसरी नस्ल की श्रेणी में वे लोग हैं, जिनकी त्वचा का रंग काला है. इन्हें इथोपियन परिवार का बताया गया है. काकेशस रूस से दक्षिण यूरोप एवं एशिया के बीच का भूभाग है और अफ्रीका महादेश के इथोपिया में है. यह विभाजन मुख्यतः रंगों के आधार पर किया गया है, क्योंकि रंग की दृष्टि से संसार में तीन प्रकार के लोग हैं-गोरे, काले और पीले. बाक़ी जो भी रंग हैं, उनमें इन्हीं तीन रंगों में से किसी न किसी की प्रधानता होती है. भारत की आबादी में इन तीनों रंगों के प्रतिनिधियों को देखा जा सकता है.