उत्तराखंड में गुटों में विभाजित भारतीय जनता पार्टी के नेता इस क़दर आपस में भितरघात का खेल खेलने में मशगूल रहे कि राज्य में तीन विधानसभा सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा. राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों भुवन चंद्र खंडूड़ी,भगत सिंह कोश्यारी, रमेश पोखरियाल निशंंक के तीन गुटों में बंटी भाजपा ने दो माह पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में दो विधानसभा क्षेत्रों में शानदार बढ़त हासिल की थी वहां भाजपा को कांग्रेस प्रत्याशियों के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा है. सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी अल्पमत सरकार को बहुमत दिलाने के लिए जो ताना बाना बुना, उसमें भाजपा ऐसी उलझी कि सोमेश्वर व डोईवाला की महफूज समझी जाने वाली सीटें भी भाजपा गंवा बैठी.
डोईवाला सीट पहली बार कांग्रेस के कब्जे में आई है. 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में भी सोमेश्वर सीट पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी. डोईवाला सीट पर निशंक को शानदार जीत मिली थी. मोदी लहर में संपन्न संसदीय चुनाव में भाजपा ने राज्य में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था और राज्य की पांचों लोकसभा सीट पर कब्जा कर लिया था. निशंक को हरिद्वार से सासंद बनाने में डोईवाला क्षेत्र की जनता ने बड़ी बढ़त प्रदान कर निशंक और मोदी दोनों का मान रखा था.
विधानसभा चुनाव में कोटद्वार से जनरल खंडूड़ी की हार के लिए हुई भितरघात के लिए पूर्व मुख्यमंत्री निशंक पर आरोप लगे थे. त्रिवेन्द्र सिंह की हार के लिए भाजपा कार्यकर्ताओं ने भाजपा कार्यालय पहुंचकर निशंक पर भीतरघात करने का आरोप और उनके खिलाफ नारा भी लगाया. इस बार जब निशंक अपने चहेते को टिकट दिलाने में डोईवाला सीट से टिकट दिलाने में असफल हुए. राजनाथ सिंह के समर्थक खेमे के त्रिवेन्द्र सिंह रावत को डोईवाला से प्रत्याशी बनाया गया. इस वजह से निशंंक पर कोटद्वार में खेले गए खेल की पुनरावृत्ति करने का आरोप लग रहा है. एक बार फिर पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हार की वजह से सवालों के घेरे में है. चुनाव के दौरान किए गए अदूरदर्शी निर्णयों को भी पार्टी की हार से जोड़ कर देखा जा रहा है.
प्रदेश के तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव भाजपा के सूबाई नेतृत्व के लिए काफी अहम माने जा रहे थे. कारण यह कि लोकसभा चुनाव की जीत को मोदी लहर से जोड़ा गया, ऐसे में उपचुनावों में भाजपा प्रदेश नेतृत्व को खुद को साबित करने का मौका मिला था, वह उसमें वह नाकाम साबित हुई. भाजपा इन चुनावों में शुरू से ही कमजोर नजर आ रही थी. लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश के सभी कद्दावर नेताओं के केंद्र की राजनीति में चले जाने से प्रदेश इकाई कमजोर हुई है. प्रदेश अध्यक्ष व नेता प्रतिपक्ष के अलग-अलग गुटों से जुड़ने के कारण चुनाव में भाजपा तालमेल नहीं बैठा पाई. टिकट बंटवारे में भी यह गुटबाजी साफ नजर आई. भाजपा का प्रदेश नेतृत्व उपचुनावों में भी काफी हद तक मोदी लहर के भरोसे ही रहा जो इन चुनावों में कहीं नज़र नहीं आई. यहां तक कि भाजपा, कांग्रेस सरकार की विफलताओं को भी मुद्दा नहीं बना पाई. यही नहीं, प्रत्याशियों के चयन को लेकर व्यवहारिकता का ध्यान भी नहीं रखा गया. सोमेश्वर सीट पर जिस रेखा आर्य को भाजपा टिकट देने से कन्नी काटती रही, उन्होंने ने ऐन वक्त में चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल होकर दस हजार से अधिक मतों से इस सीट पर जीत दर्ज की. यहां तक कि हाल ही में हुए पंचायत चुनाव से भी भाजपा ने कोई सबक नहीं लिया. नतीजतन भाजपा को तीनों सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा है. उपचुनाव में भाजपा की हुई करारी हार ने प्रदेश संगठन की कलई खोल कर रख दी है. सबसे खास बात यह है कि उपचुनाव के मतदान के एक सप्ताह पहले तक संगठन की ओर से यह दावा किया जा रहा था कि डोईवाला,धारचूला और सोमेश्वर विधानसभा क्षेत्रों के लिये पार्टी के वरिष्ठ नेता आपस में मिलकर बूथ मैनेजमेंट की रणनीति को अंतिम रूप देंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. डोईवाला के प्रत्याशी त्रिवेंद्र सिंह रावत, सोमेश्वर के भाजपा प्रत्याशी मोहन राम आर्य एवं धारचूला के प्रत्याशी बीडी जोशी ने स्वयं ही बूथ मैनेजमेंट को अंजाम दिया. सूत्रों की माने तो यदि संगठन की ओर से यह बात पहले ही बता दी गई होती, तो प्रत्याशी पहले से ही बूथ मैनेजमेंट का ब्लूप्रिंट तैयार कर लेते. लिहाजा कम समय में प्रत्याशियों से जो बन पड़ा उतना उन्होंने किया. इसके अलावा स्टार प्रचारकों की सूची भी प्रचार के लिये संगठन की ओर से जारी नहीं की गई जबकि कांग्रेस ने काफी पहले ही अपने स्टार प्रचारकों की सूची जारी कर दी थी. स्थानीय स्तर पर भी पार्टी के वरिष्ठ नेता केवल प्रचार के नाम पर फर्ज अदायगी करते रहे. पार्टी के दिग्गज नेता तो प्रचार में उतरे ही नहीं. पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने खुद ही डोईवाला, धारचूला और सोमेश्वर में प्रचार के लिए पहल की उनके भी चुनावी दौरे की तिथि को प्रदेश भाजपा ने मंजूरी नहीं दी. व्यक्तिगत स्तर पर भाजपा प्रत्याशियों ने कुछ प्रदेश स्तर के नेताओं को प्रचार के लिए बुलाया. प्रदेश भाजपा की ओर से अपने स्तर पर न ही कार्यकर्ताओं और न ही नेताओं के लिये कोई वाहन की व्यवस्था की गई. जो कुछ थोड़ी बहुत व्यवस्था हुई वह प्रत्याशियों ने अपने स्तर पर ही की. प्रदेश स्तर के कुछ हैवीवेट नेता जरूर अपने हिसाब से प्रचार के नाम पर इधर-उधर की राजनीति करने में जुटे रहे. उप चुनाव में हारे भाजपा प्रत्याशियों का साफ तौर पर कहना है कि संगठन की ओर से थोड़ी बहुत भी मदद मिली होती तो पार्टी की उप चुनाव में इस तरह की दुर्दशा नहीं होती. प्रत्याशियों के मुताबिक संगठन की ओर से उप चुनाव को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं रही. प्रदेश भाजपा मुख्यालय में बैठने वाले जिम्मेदार नेताओं से जब कभी भी आवश्यक चीजों की मांग की गई तो उनका एक ही जवाब मिलता कि मोदी लहर है इसलिये चिंता की कोई बात नहीं है. ज्यादा खर्च करने की जरूरत इस उप चुनाव में नहीं है. तीनों सीटें भाजपा की झोली में ही आएंगी.
मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद हिमालयी आपदा की मार झेल रही जनता के प्रति अब तक कुछ भी नही किया है. इसी कारण राज्य की जनता ने भी मोदी को आईना दिखाने में भी देर नहीं की. मोदी ने अपने मंत्री मंडल के गठन में भी जिस तरह उत्तराखंड, हिमाचल के सांसदों को जगह नहीं दी, इसका असर भी मतदान पर पड़ा. हरीश रावत की जन सेवा रंग लाई, कांग्रेस जब देश में अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है, ऐसे समय मिली यह शानदार जीत कांग्रेस के लिए निश्चित तौर पर संजीवनी का काम करेगी. मोदी को भी एक बार आत्ममंथन करना होगा कि अपनी फिदरत से देश की सत्ता और भाजपा संगठन पर भले ही कब्जा हासिल कर लिया हो, लेकिन उन्हें जनता के भरोसे पर भी खरा उतरना होगा. जनता को लोगों को अर्श से फर्श पर बैठाने में देर नहीं लगती.
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