भूजल पर अब आम लोगों का अधिकार नहीं होगा. सरकार अब भूजल के दोहन पर टैक्स लगाने की तैयारी में है. भूजल दोहन पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार जल संरक्षण फीस वसूलने जा रही है. इस संबंध में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने दिशा-निर्देश तैयार कर लिए हैं. जलसंरक्षण मंत्रालय ने यह ड्राफ्ट सभी राज्य सरकारों को भेजकर दो महीने में फीडबैक मांगा है. केंद्र इस मामले में गंभीर है और राज्य सरकारों से जवाब मिलने के बाद इस गाइडलाइंस को तुरंत लागू किया जा सकता है.

इसके तहत व्यक्ति, आवासीय कॉलोनियों, टाउनशिप, अपार्टमेंट्स, औद्योगिक इकाइयों और क्लबों से यह फीस पानी के बिल के साथ ही वसूली जाएगी. अनुमान है कि भूजल के प्रयोग व ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के अनुसार यह फीस 1 रुपए से लेकर 6 रुपए प्रति हजार लीटर तक हो सकती है. कह सकते हैं कि जमीन के नीचे के पानी का जो इकाई जितना अधिक इस्तेमाल करेगी, उसी के हिसाब से जल संरक्षण फीस भी वसूली जाएगी, यानी आप फीस भरिए और भूजल का अंधाधुंध दोहन कीजिए.

पर्यावरणविदों को आशंका है कि सरकार के इस फैसले से बड़ी औद्योगिक इकाइयों, शीतलपेय और खनन कंपनियों को अंधाधुंध भूजल दोहन की छूट मिल जाएगी. जल संरक्षण से जुड़े संगठनों का मानना है कि सरकार जल संरक्षण फीस वसूल कर कुछ हद तक ही भूजल के इस्तेमाल को नियंत्रित कर सकती है, लेकिन जल संरक्षण के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग और वाटर रिचार्ज की सुविधा पर जोर देना चाहिए था. इस दिशानिर्देश में औद्योगिक इकाइयों को बोरवेल की खुदाई से पहले सक्षम अधिकारी से एनओसी लेना अनिवार्य किया गया है. सिर्फ किसानों को एनओसी नहीं लेने की छूट मिलेगी.

पानी के बाजारीकरण का खेल 1990 के दौर से ही शुरू हो गया था. नवउदारीकरण के दौर में केंद्र और राज्य की सरकारें वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के एजेंट की तरह काम करने लगीं. आंध्रप्रदेश के चंद्रबाबू नायडू ने अपने यहां भूजल पर टैैैैक्स लगाने की शुरुआत की. इसके बाद नीतीश कुमार ने भी विधानसभा में भूजल के इस्तेमाल पर टैक्स लगाने से संबंधित विधेयक पास करा लिया था. यह भी सच है कि जमीन के नीचे बह रहे पानी पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं होता है.

यह पानी जमीन के नीचे सैकड़ों किलोमीटर दूर से बहकर आता है. अब अगर कोई औद्योगिक इकाई इस पानी का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करे, तो उसे इसका भुगतान जरूर करना चाहिए. अभी तक हो यह रहा है कि एक ट्‌यूबवेल लगाने पर आ रहे खर्चे के बाद औद्योगिक इकाइयों को भूजल मुफ्त में मिलने लगता है. अगर भूजल पर टैक्स लगाया जाए, तो स्वाभाविक है कि औद्योगिक इकाइयां पानी का कम दोहन करेंगी.

वे इस्तेमाल भर का पानी ही जमीन से निकालेंगी और बाकी छोड़ देंगी और भूजल संरक्षण के उपायों पर भी जोर देंगी. लेकिन अभी तक होता यह है कि अगर तीन सौ मीटर पर पानी नहीं निकल रहा, तो अन्य औद्योगिक इकाइयां चार सौ मीटर जमीन की खुदाई कर ट्‌यूबवेल लगा लेती हैं, जिससे कम गहराई वाले सभी ट्‌यूबवेल बेकार हो जाते हैं. फिर अगर कोई पांच सौ मीटर गहराई वाला ट्‌यूबवेल लगा लेता है, तो इलाके के अन्य सभी ट्‌यूबवेल सूख जाते हैं. औद्योगिक इकाइयों की इस प्रतियोगिता में नुकसान भूजल का होता है, जिसपर सभी लोगों का हक है.

आंकड़ों के अनुसार देश भर में 6,607 विकासखंड, मंडल, तालुका और जिलों में से 1,071 में भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है. इनमें से 900 इलाके डेंजर जोन में पहुंच गए हैं. इस पर रोक लगाने के लिए देशभर में भूजल दोहन को लेकर एकसमान नीतियां बनाने की जरूरत महसूस की जा रही थी. इसे ध्यान में रखकर उद्योगों द्वारा पानी की बर्बादी को लेकर जल संसाधन मंत्रालय एवं नीति आयोग ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं. इसके अलावा उद्योगों द्वारा पानी के कम इस्तेमाल पर टैक्स में छूट देने की योजना पर भी विचार हो रहा है. पानी के अंधाधुंध प्रयोग पर रोक लगाने का एक उपाय यह भी है कि नए ट्यूबवेल लगाने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया जाए. पर्यावरणविदों का कहना है कि जिन क्षेत्रों में भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है, वहां ट्‌यूबवेल पर रोक लगा दी जानी चाहिए.

गुजरात में भूमिगत पानी को 2000 फुट की गहराई से निकाला जा रहा है. पंजाब और हरियाणा में भी भूजल स्तर 70 प्रतिशत तक नीचे पहुंच चुका है. महाराष्ट्र और तेलंगाना में भी स्थिति अच्छी नहीं है. भूमिगत पानी की मात्रा सीमित है और उसे बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. ऐसे में जाहिर है कि पानी का अंधाधुंध दोहन कर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं. इसका एकमात्र उपाय यही है कि औद्योगिक इकाइयों और खनन व शीतल पेय कंपनियों से पानी का उचित मूल्य वसूला जाए. पानी पर कर लगाने का सुझाव गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना (जीआरबीएमपी) के पूर्व संयोजक प्रो. विनोद तारे ने दिया था. उनका मानना था कि नदियों के पानी और भूजल के औद्योगिक इस्तेमाल के लिए उद्योगों पर जल उपकर लगाया जाए.

झारखंड के पठारी क्षेत्रों में पथरीली चट्‌टानों के ऊपर 150 फीट तक मिट्‌टी की परत जमी है. भूवैज्ञानिक इसे वेदर जोन कहते हैं. बोरवैल या डीप बोरिंग से वेदर जोन के साथ नीचे की चट्‌टानें भी खोखली हो जाती हैं. इसके परिणामस्वरूप वेदर जोन में संरक्षित पानी भी नीचे के चट्‌टानों में चला जाता है. अगर इस भूजल के गिरते स्तर को कम करना है, तो इसके लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर जोर देना होगा. अभी बिहार के सीतामढ़ी जिले में भूजल के गिरते स्तर से निपटने के लिए सोक पिट्‌स बनाए गए हैं. जल संरक्षण के इस प्रयास के तहत हैंडपंप के समीप एक साथ दो हजार से अधिक सोक पिट्‌स बनाए गए. इसके जरिए हैंडपंप का बहता पानी फिर से जमीन के जल स्तर तक पहुंचना संभव हो सका. इसके जरिए लगभग 26 करोड़ लीटर पानी का संचयन किया जा सकेगा. वहीं महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले में कुछ गांवों में भी सोक पिट्‌स के सफल प्रयोग किए गए हैं.

भूजल स्तर में तेजी से गिरावट के बावजूद हमने जल संरक्षण की कोई प्रणाली विकसित नहीं की है. अरबों घनमीटर वर्षा का जल हर साल बेकार चला जाता है. प्रति व्यक्ति सालाना जल की उपलब्धता के मामले में भारत चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से बहुत पीछे है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारत जल सप्ताह में कहा था कि भारत में दुनिया की एक प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन यहां जल उपलब्धता केवल चार प्रतिशत ही है.

अभी खबर आई है कि मनरेगा के तहत 80 फीसद जल संरक्षण, सिंचाई और भूमि विकास से जुड़े कार्यों को अधूरा छोड़ दिया गया है. ज्यादातर कार्य उन राज्यों में पूरे नहीं किए गए, जिन जिलों को तीन साल के भीतर सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा है. महाराष्ट्र में, जहां सूखे की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं, यहां सिंचाई और जल संरक्षण से संबंधित 40 प्रतिशत काम पूरे नहीं किए गए. अगर ये काम समय पर पूरे नहीं हुए, तब जल संरक्षण की यह नीति भी अधूरी रह जाएगी.

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