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ग्रीस या यूनान को पश्चिमी सभ्यता का उद्‌गम स्थान कहा जाता है. लेकिन आज यह दीवालिया होने वाला विश्व का पहला विकसित देश बन गया है. यह सब कुछ अचानक से नहीं हुआ है. इसकी शुरुआत वर्ष 2009 के आखिरी दिनों में ही हो गई थी. जिसके  लिए बहुत हद तक 2008 की वैश्विक  आर्थिक मंदी जिम्मेदार थी. वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी से पूरी दुनिया जूझ ही रही थी कि ग्रीस की आर्थिक समस्या ने अपना सिर उठाना शुरू कर दिया था.  2010 के आते ग्रीस दीवालिया होने की कगार पर पहुंच गया. जिसकी वजह से एक नए वैश्विक आर्थिक संकट की आशंका व्यक्तकी जाने लगी. इस संकट से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष(आईएमएफ), यूरोपीय सेंट्रल बैंक और यूरोपियन कमीशन (जिसे ट्रोइका भी कहा जाता है) ने ग्रीस के लिए 240 अरब यूरो के दो बेलआउट पैकेज दिए. ये बेलआउट पैकेज ग्रास को इस शर्त पर दिए गए थे कि ग्रीस अपने खर्च में कटौती करेगा. टैक्स कलेक्शन की प्रणाली को मजबूत करने के साथ-साथ कर चोरी रोकने के उपाय करेगा और व्यापार के लिए देश में बेहतर माहौल बनायेगा. इस पैकेज का मक़सद ग्रीस को अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए पर्याप्त समय मुहैया करवाना भी था. लेकिन इन कदमों के कोई सकारात्मक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए. इसके उलट पिछले पांच वर्षों में ग्रीस की अर्थव्यवस्था और कमजोर हो गई. दरअसल इस पैकेज में मिली राशि का उपयोग ग्रीस ने देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के बजाये अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ चुकाने में लगा दी. लेकिन इसके बावजूद क़र्ज़ का बोझ ज्यों का त्यों बना रहा. बहुत से अर्थशास्त्री और ग्रीस के  नागरिक खर्च में कटौती के उपायों और मितव्ययता को आर्थिक संकट के लगातार जारी रहने का कारण मानते हैं. जबकि जर्मनी जैसे कर्जदाता यह आरोप लगते हैं कि एथेंस ने बेलआउट पैकेज से संबंधित समझौतों का पालन नहीं किया इसलिए यह स्थिति पैदा हुई है.

बहरहाल, ग्रीस के मौजूद हालात की वजह देश की पेंशन पॉलिसी, सरकारी कर्मचारियों को दिए जाने वाले लाभ, शीघ्र सेवानिवृति, अत्यधिक बेरोज़गारी और कर चोरी आदि शामिल हैं. जहां तक पेंशन पर खर्चे का सवाल है तो यूरोस्टेट 2012 के आंकड़ों के मुताबिक ग्रीस अपनी कुल आमदनी का  17.5 फीसद पेंशन पर खर्च करता था, जो कटौती के बाद भी 16 प्रतिशत था. सरकार अपने कर्मचारियों को अनेक तरह के लाभ देती थी, जैसे पिता की मृत्यु के बाद भी उसकी अविवाहित पुत्री पेंशन का लाभ उठा सकती थी. इस पॉलिसी को 2010 में समाप्त कर दिया गया था. जो कर्मचारी समय पर अपने काम पर आते थे उन्हें बोनस देने का प्रावधान था. उसी तरह जल्द सेवानिवृति के बाद भी पेंशन की सुविधा बहाल रखने का प्रावधान था. इसका नतीजा यह हुआ कि आर्थिक तंगी के बाद ग्रीस में बेरोज़गारी की दर 25 प्रतिशत से अधिक हो गई. हालात ऐसे हो गए कि सरकार पेंशन भोगियों को भी पेंशन उपलब्ध कराने में असमर्थता महसूस करने लगी. अखबारों में छपी रिपोर्टों के मुताबिक बैंक बंद हो रहे हैं. लोग एटीएम से 66 यूरो से अधिक की निकासी नहीं कर सकते. कई अर्थशास्त्री इसके लिए पिछले पांच वर्षों से चल रहे मितव्ययिता के उपाय को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. यूरोपियन यूनियन ने इस संकट के  लिए देश की कर टैक्स पॉलिसी को जिम्मेदार मान रहा है. उसका कहना है कि ग्रीस अपने नागरिकों से कर उगाही करने में असफल रहा है. इन सभी परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि ग्रीस का कर्ज कुल उसकी जीडीपी का 177 प्रतिशत हो गया है.

वर्ष 2001 में काफी विचार विमर्श के बाद ग्रीस यूरोपियन करेंसी जोन (यूरोजोन) में शामिल हुआ था. इसके बाद देश में निवेश की वजह से जबरदस्त आर्थिक उछाल आया था. इसी बीच साल 2004 में एथेंस में ओलिंपिक खेलों का आयोजन भी हुआ. कुछ विशेषज्ञ ओलिंपिक को भी इस देश की आर्थिक संकट का कारण मानते हैं. बहरहाल,  विश्व आर्थिक मंदी ने साल 2009 के आखिरी दिनों में अपना असर दिखाना शुरू किया. चूूंकि ग्रीस यूरोपियन यूनियन का सबसे गरीब और सबसे अधिक कर्ज में डूबा हुआ देश था इसलिए इस मंदी कि मार यहां अधिक महसूस की गई और साल 2010 के आते-आते देश को आर्थिक सहायता की जरुरत महसूस होने लगी. जिसपर आईएमएफ, यूरोपीयन सेंट्रल बैंक और यूरोपियन कमीशन की ट्रोइका ने 240 अरब यूरो का कर्ज दिया. 30 जून,2015 तक ग्रीस द्वारा आईएमएफ को 1.7 अरब यूरो का क़र्ज़ लौटना था, जिसे वह समय सीमा बीत जाने के बावजूद नहीं लौटा सका. इसके साथ ही ग्रीस आईएमएफ का कर्ज़ न चुकाने वाला पहला विकसित यूरोपीय देश बन गया. बहरहाल इस संबंध में यूरोपियन यूनियन और ग्रीस के बीच चल रही वार्ता भी नाकाम हो गई. इसके बाद जर्मनी सहित दूसरे कर्ज दाताओं ने ग्रीस को और कर्ज  देने से इंकार कर दिया है. कर्जदाता देशों की तरफ से ग्रीस से आर्थिक नीतियों में मूलभूत परिवर्तन करने को भी कहा गया. जिसके जवाब में अब ग्रीस की वामपंथी सरकार बेलआउट पैकेज के बदले मितव्ययिता बरतने पर जनमत संग्रह करा रही है. लेख लिखे जाने तक प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास का पक्ष भारी था. यदि जनमत संग्रह में उनकी सरकार असफल रहती है तो अटकलें लगाई जा रही हैं कि सिप्रास अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. 5 जुलाई को होने वाला यह जनमत संग्रह देश के आर्थिक और राजनीतिक भविष्य का भी फैसला करेगा.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री सिप्रास की सरकार मितव्ययिता के सवाल के मुद्दे पर ही सत्ता में आई थी. सिप्रास का कहना था कि सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार नए सिरे से बेलआउट पैकेज पर बातचीत करेगी. लेकिन हालिया बातचीत की नाकामी का और क़र्ज़ दाता देशों के सख्त रुख के  बाद प्रधानमंत्री सिप्रास ने ऋणदाता देशों के समक्ष कुछ नए प्रस्ताव रखे हैं. एक अख़बार में छपी रिपोर्ट के  मुताबिक ग्रीस के  प्रधानमंत्री उन सभी शर्तों को मानने के लिए तैयार हैं जो बातचीत की नाकामी का कारण बने थे. जहां तक ग्रीस के कर्ज संकट के अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले परिणामों का सवाल है, तो इसका सबसे ज्यादा प्रभाव यूरोपियन यूनियन और उसके सदस्य देशों पर पड़ने की आशंका है. यूरोपियन यूनियन 28 देशों का एक संघ है. साल 1999 में संघ के  देशों ने यूरोपियन संट्रल बैंक के तत्वाधान में एक साझी मुद्रा (यूरो) जारी करने पर सहमती जताई थी, लेकिन बजट और टैक्स पॉलिसी को संबंधित देशों पर छोड़ दिया था. 2009 में ग्रीस क़र्ज़ संकट के शुरू होते ही अधिकतर अंतरराष्ट्रीय बैंकों और निवेशकों ने अपने ग्रीक बांड बेच दिए थे इसलिए ग्रीस में होने वाले आर्थिक संकट से वे प्रभावित नहीं होंगे. वहीं पुर्तगाल, आयरलैंड, और स्पेन जैसे देशों ने अपनी आर्थिक नीतियों में मूलभूत परिवर्तन किए हैं, इसलिए वे भी मौजूदा संकट से प्रभावित होने से बच जायेंगे. लेकिन जब तक इस संकट का हल नहीं हो जाता है तब तक यूरोपियन यूनियन और यूरो के भविष्य पर खतरा मंडराता रहेगा.

ग्रीस संकट का भारत पर प्रभाव

कुछ दिनों पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि ग्रीस संकट का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन ग्रीस के दीवालिया घोषित होने के बाद राजन ने आशंका व्यक्त की है कि ग्रीस संकट की वजह से रुपये पर अप्रत्यक्ष असर पड़ सकता है. भले ही भारत का यूरोपीय देशों के साथ व्यापार के मामले सीमित प्रत्यक्ष निवेश है. साथ में यह भी आशंका जताई जा रही है कि ग्रीस के आर्थिक संकट की वजह से भारत जैसे विकासशील देशों के बाजारों से पूंजी बाहर जाएगी. इस वजह से भारत को सावधान रहने की जरूरत है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ग्रीस से बहुत अधिक संबंध नहीं है लेकिन इस संकट का असर दुनिया भर के  शेयर बाजारों में भी देखने को मिल रहा है. भारत शेयरबाजार भी इससे अछूते नहीं है.

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