राजस्थान में बीपीएल कार्डधारियों के लिए एक अनूठा सरकारी फरमान आया है. इसके अनुसार, गरीबों को अगर सरकारी फायदा लेना है, तो उन्हें अपने घर पर ‘मैं गरीब हूं’ का इश्तेहार चस्पां करना होगा. सरकारी अधिकारियों का आदेश है कि अगर ऐसा नहीं किया, तो उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के लाभ से वंचित कर दिया जाएगा. यह कुछ ऐसा ही है, जैसे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में बिजली अधिकारियों ने हाल में यह आदेश जारी किया है कि बिजली बिल डिफॉल्टर्स का नाम शहर के प्रमुख चौक-चौराहों पर लिख दिया जाएगा.
दोनों का उद्देश्य एक ही है, लोगों की सार्वजनिक भर्त्सना करना. जहां पहले मामले में मकसद यह है कि बीपीएल कार्डधारी सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकें, वहीं दूसरे का मकसद यह है कि सार्वजनिक लानत-मलामत से आजिज होकर डिफॉल्टर्स बिजली बिल जमा करा देंगे. छोटे लोन डिफॉल्टर्स, जिसमें अधिकतर किसान होते हैं, के साथ बैंक भी कुछ ऐसा ही करते हैं.
सवाल यह है कि एक तरफ सरकार जनकल्याणकारी योजनाओं की जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए खर्च करती है, फिर यह भी चाहती है कि उन योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुंचे. ऐसा करने से फायदा किसे होगा? गौर करें तो स्पष्ट है कि इस तरह के तुगलकी फरमान से अंततः सरकारी अधिकारी व बिचौलिए ही लाभान्वित होंगे.
राजस्थान के दौसा जिले में 50 हजार गरीबों के घरों पर गरीब होने का इश्तेहार लगा दिया गया है. घर के मुख्य गेट के पास पीले रंग से पोतकर लिख दिया गया है कि यह परिवार गरीब है और सरकारी मदद लेता है. हड़बड़ी में एक ही घर पर चार-चार बार इश्तेहार लगा दिया गया है, ताकि इसे मिटाया नहीं जा सके और आते-जाते सब की नजर इस पर पड़ सके. सामाजिक अपमान और लोक-लाज के भय से लोगों ने अब घरों से निकलना बंद कर दिया है. एक ग्रामीण ने बताया कि महज 10 किलो गेहूं के लिए हम लोगों को इस तरह अपमानित होना पड़ रहा है.
अब तो गांववाले भी कहने लगे हैं कि अपना राशन गोदाम में ही रखो, लेकिन हमें इज्जत के साथ जीने दो. दौसा जिले के निवासी रामशंकर बताते हैं कि हमारी सामाजिक मान-मर्यादा तो गई ही, अब लोग हमारे यहां शादी-ब्याह भी बंद कर देंगे. अभी से गांव के लोगों ने हमारे साथ उठना-बैठना बंद कर दिया है. वे हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रहे हैं. घरों की दीवार पर यह संदेश लिखवाने के लिए राज्य सरकार ने बीपीएल कार्डधारियों को 750 रुपए देने की पेशकश भी की थी. गौरतलब है कि प्रदेश में करीब 4 करोड़ 37 लाख लोग बीपीएल योजना का लाभ उठा रहे हैं.
यहां गरीबी का आलम यह है कि बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडीशा, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में गरीबों की मौजूदा संख्या अफ्रीका के सबसे निर्धन 25 देशों के गरीबों से भी अधिक है. 2016 में भीलवाड़ा में इसी तरह बीपीएल कार्डधारक परिवारों के घर के बाहर पीले रंग से लिख दिया गया था, ताकि पता चल सके कि कौन-कौन परिवार बीपीएल की सुविधा ले रहा है. गरीबी का सामाजिक प्रदर्शन कर वंचित तबके को सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित करने की नीति पर अब सवाल उठने लगे हैं. कभी राहुल गांधी ने कहा था कि गरीबी एक मानसिक स्थिति है.
शशि थरूर के लिए भी यह एक कैटल क्लास है. दरअसल राजनेताओं द्वारा जाने-अनजाने में गरीबों का मजाक उड़ाने की एक रवायत बन गई है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो किसी दिन वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ भी भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय के दरवाजे पर लिखवा देंगे-भारत एक गरीब देश है, हमसे दान लेता है.
भाजपा के नेता कह रहे हैं कि अशोक गहलोत सरकार ने 6 अगस्त, 2009 में दीवारों पर लिखने का काम शुरू किया था. उस दौरान बीपीएल लिस्ट में कई अमीर लोगों को भी शामिल कर लिया गया था. इन लोगों को बीपीएल लिस्ट से बाहर करने के लिए ही स्थानीय प्रशासन ने यह कदम उठाया है.
राज्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ कहते हैं कि वसुंधरा राजे सरकार ने ऐसा कोई भी निर्देश नहीं दिया है. कुछ दिनों पहले अशोक गहलोत ने अपने टि्वटर पर एक फोटो पोस्ट कर इस मुद्दे को उठाया था. वहीं कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं कि पीडीएस की सुविधा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मिलती है और यह उनका अधिकार है. सरकार इन लोगों को कोई खैरात नहीं दे रही है.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक हालिया सर्वे पर नजर डालें, तो पता चलता है कि दुनिया में सबसे अधिक गरीब बच्चों का 31 फीसदी हिस्सा भारत में है. विश्व में 69 करोड़ गरीब बच्चे हैं, जिसमें से 22 करोड़ भारत में हैं. अफ्रीकी देश नाइजीरिया 8 फीसद, इथोपिया 7 फीसद और पाकिस्तान 6 फीसद के साथ हमसे काफी बेहतर स्थिति में हैं. सर्वे में स्वास्थ्य, शिक्षा और रहन-सहन के स्तर को आधार बनाया गया था. यह स्थिति तब है, जब हम दुनिया भर में बच्चों के लिए सबसे बड़ी योजना समेकित बाल विकास सेवा, आईसीडीएस का संचालन कर रहे हैं. यह कार्यक्रम 80 हजार से भी अधिक आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से पूरे देश में संचालित हो रही है.
बच्चों की शिक्षा और पोषाहार के लिए ये आंगनबाड़ी केंद्र देश भर में चलाए जा रहे हैं. लेकिन आप किसी भी आंगनबाड़ी केंद्र का मुआयना कर लें, आपको आधे से अधिक बंद मिलेंगे. अगर खुले हैं भी तो यहां आने वाले अनाज बाजार में महंगे दामों पर बेच दिए जाते हैं. अभी उत्तर प्रदेश से खबर आई थी कि आंगनबाड़ी केंद्रों में आने वाले अनाज पशुचारे के लिए बेच दिए जा रहे हैं. लखनऊ में बख्शी का तालाब विकासखंड के कठवारा, मदारीपुर, सोनवा सहित 280 केंद्रों पर यह धंधा खुलेआम चल रहा है. स्थानीय लोग बताते हैं कि ये अनाज केंद्र में नहीं रखे जाते, बल्कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताएं अपने घर से ही इन अनाजों को बेच देती हैं.
आंगनबाड़ी कार्यकताएं कहती हैं कि घटिया क्वालिटी के अनाज होने के कारण बच्चे इसे नहीं खाते हैं. हमें सुपरवाइजर को भी हर माह एक हजार रुपए देने पड़ते हैं. ऐसे में हमलोग मजबूरी में ही पोषाहार की बिक्री करते हैं. कह सकते हैं कि सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं की भांति पोषाहार योजना भी सरकारी अधिकारियों के लूट-खसोट और कमाने का जरिया बनकर रह गई है.
सच्चाई यह है कि सरकार गरीबों की असली संख्या से डर रही है. उसका मकसद गरीबी हटाना नहीं, बल्कि बीपीएल लाइन को थोड़ा और नीचे करना है, ताकि कम से कम गरीबों को सरकारी योजना में शामिल किया जा सके. सरकार लोकल्याणकारी योजनाओं पर कम से कम धन का आवंटन करना चाहती है. सरकार की चिंता यह है कि अगर गरीबों की संख्या 37.2 फीसद से ज्यादा बढ़ गई, तब खाद्य सब्सिडी के मौजूदा बिल में 6 हजार करोड़ रुपए का इजाफा हो जाएगा.
यह बिल अभी 55, 780 करोड़ रुपए है. दुनिया भर के देश विश्व बैंक की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 1.25 डॉलर खर्च करने की क्षमता के आधार पर गरीबी का आकलन करते हैं. इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन-स्तर का आकलन किया जाता है. इस सूचकांक के मुताबिक भारत में 55.4 फीसदी लोग गरीब हैं. अगर भारत इसे स्वीकार करता है तब खाद्य सब्सिडी का बोझ उठाना सरकार के लिए काफी मुश्किल होगा.
लेकिन हमारे देश ने एक नायाब तरीका ढूंढ निकाला है. गरीबों के चयन के लिए तीन श्रेणी बनाई गई है-सीधे तौर पर नजर आने वाले गरीब, सीधे तौर पर गरीबी की सीमा से बाहर के लोग और गरीबी के विभिन्न स्तर के लोग. सरकार जब चाहे सहूलियत के हिसाब से सरकारी योजनाओं में गरीबों को शामिल करती है और जब चाहे बाहर कर देती है.
हर योजना के अपने-अपने गरीब नजर आते हैं. एक बार सुप्रीम कोर्ट ने भी योजना आयोग से पूछा था कि गांव में 15 रु. प्रतिदिन और शहर में 20 रु. प्रतिदिन से अधिक कमाने वाले व्यक्ति को वह किस आधार पर गरीबी रेखा से बाहर कर रहा है. सवाल यह है कि अपनी उपलब्धियां गिनाने के बजाय सरकार अगर इन गरीबों को अपनी नीतियों में प्राथमिकता दे, तो हम ज्यादा संवेदनशील समाज का निर्माण कर पाएंगे.