1452एक बार पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरॉल्ड मैकमिलन से यह पूछा गया कि वह किस बात को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित होते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया था, अवांछित घटनाएं मेरे दोस्त. भारत में नई सरकार बने अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं और उसे अभी से ही यह महसूस होने लगा है कि उसके इर्द-गिर्द की दुनिया कितनी कठिन है. सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद एक सड़क हादसे में केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की मौत हो गई, मेघवाल के विरुद्ध दुष्कर्म का मामला एक बार फिर खुल गया (आख़िर जब तक उनका केस समाप्त नहीं हो जाता, उन्हें निलंबित क्यों नहीं किया जा सकता), प्याज के मूल्यों में एकदम से उछाल आ गया. अब इराक की परेशानी और वहां फंसे भारतीयों की समस्या मुंह बाये खड़ी हो गई है. भाजपा सरकार को लोगों ने बहुत ही आशा के साथ चुना था. प्रधानमंत्री ने हमें उस समय आश्‍चर्यचकित भी कर दिया था, जब उन्होंने दक्षेस देशों के प्रमुखों को अपने शपथ ग्रहण कार्यक्रम में बुलाया था. इस आश्‍चर्य को और बल तब मिला, जब उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि उनकी सरकार चौबीसों घंटे काम करने वाली होगी, उनके साथियों द्वारा अनुशासन दिखाया जाएगा और कैबिनेट के पदों के लिए कलह खुलेआम नहीं दिखाई देगी. साथ ही उनकी भूटान यात्रा ने भी काफी संतोष दिया.
लोगों के लिए यह सुखद था कि अब देश के पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है, जो जनता से बात करता है, न कि स़िर्फ संसद से. इसके बावजूद सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह जनता को समझा पाने में कामयाब हो जाए कि सबसे बेहतरीन प्रयास करने के बावजूद स्थितियां बेहतर होने में समय लगेगा. मुद्रास्फीति अगले छह से नौ माह के बाद ही कम हो पाएगी. सरकारी खजाने पर दोष मढ़ना अब पुरानी बात हो चुकी है. असली नीति वह होगी, जिसमें अनाज को भंडार गृहों से बाहर निकाला जाए, दुर्लभ वस्तुओं को नियमित समय अंतराल पर मंगाया जाए और परेशानियों का स्थायी समाधान करते हुए आपूर्ति की बाधाएं समाप्त की जाएं. आगामी बजट ही सरकार के काम करने का तरीका बता पाएगा. यह बजट सरकार के लिए कठिन भी होगा, क्योंकि पिछली सरकार ने उसके लिए काफी परेशानियां पहले से छोड़ रखी हैं. यहां तक कि रूटीन खर्चों के लिए भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं होगी. सरकार को थोड़ी आलोचनाएं झेलनी ही होंगी और तेल के दामों में वृद्धि करनी होगी. हम पेट्रोल का इस्तेमाल करने वालों को ग़रीब नहीं कह सकते हैं. एक भी रुपये की सब्सिडी दिए जाने का मतलब है कि घाटे को एक रुपये और बढ़ाना, जिसकी वजह से मुद्रा स्फीति ज़्यादा समय तक टिकी रहेगी. मूल्यों में सब्सिडी दिया जाना किसी भी रूप में मुद्रा स्फीति का जवाब नहीं है.
लेकिन वर्तमान समय में जो डराने वाली बात है, उसका संबंध तेल के मूल्यों से नहीं है. वह है, इराक की समस्या. पूर्व में ऑटोमान साम्राज्य का हिस्सा रहे इस स्थान पर काफी लंबे समय से शिया और सुन्नी के बीच जंग चल रही है. 19वीं सदी के दौरान दक्षिण एशिया के मुस्लिम इस्तांबुल में बैठे खलीफा को अपना आध्यात्मिक नेता मानते रहे. पहले विश्‍व युद्ध के दौरान जब ऑटोमान साम्राज्य हार गया, तो उसके सहयोगियों द्वारा नई सीमा रेखाएं तय की गईं, जो वर्तमान समय में एक बार फिर से खींची जा रही हैं. सीरिया, इराक, लेबनॉन एवं जॉर्डन के अलावा भी शिया और सुन्नी के आधार पर दूसरे देश बन सकते हैं, जिनमें एक नया कुर्दिस्तान भी हो सकता है. ये नए देश पुरानी सीमा रेखाओं को बदल सकते हैं. सीरिया भी दो भागों में बंट सकता है, जिनमें एक असद की सरकार वाला सीरिया होगा और बाकी का हिस्सा अलग होगा. सुन्नियों के कब्जे वाले हिस्सों पर भी अलग देश शायद बने. यह समस्या सीरिया के गृह युद्ध की शुरुआत के बाद से ही लगभग तीन सालों से चल रही है, जो इराक तक फैल गई है.
इस्लामिक चरमपंथी ज़्यादातर उन देशों में सरकार के विरोधी बने हुए हैं, जहां पर मुसलमानों की बहुलता है. वे इन देशों में चरमपंथियों की सरकार बनाना चाहते हैं और किसी भी लोकतांत्रिक या तानाशाही सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. हम इस्लाम के दो समुदायों के लगभग 1300 साल पुराने बंटवारे के सबसे खराब दौर में पहुंच चुके हैं. अगर पाकिस्तान की बात की जाए, तो वह दोनों तरह की समस्याओं की चपेट में है. जहां एक तरफ़ तालिबान सरकार से लड़ रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ़ वह शियाओं को भी मौत के घाट उतार रहा है. भारत सरकार को इस बात के लिए चौकन्ना रहना चाहिए कि देश में अगला दंगा शिया और सुन्नी के बीच भी हो सकता है. आलोचक चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा की आलोचना इस बात को लेकर करते रहे हैं कि यह मुस्लिम विरोधी है. खैर, आलोचक कुछ भी कहें, लेकिन एक बात का विशेष ख्याल रखना होगा कि अगर ऐसी कोई विषम परिस्थिति बने, तो सरकार को यह दिखाना होगा कि वह पूरे देश के लिए है, न कि स़िर्फ किसी एक समुदाय के लिए.

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