गन्ना मूल्य को लेकर संसद से स़डक तक विरोध ही विरोध है. मुद्दे में कई पेंच हैं और सवाल भी. आ़खिर कृषि मंत्री शरद पवार क्यों चाहते हैं कि पूरे देश में गन्ने की एक ही क़ीमत हो और उसे तय करे केंद्र सरकार? विपक्ष इस मुद्दे को तभी क्यों समझ पाता है, जब किसान स़डक पर उतर आते हैं? बहुत ज़रूरी है इन सवालों के जवाब ढूंढना.
बीते 19 नवंबर को दिल्ली का नज़ारा आम दिनों से अलग था. स़डक पर वाहनों की जगह जनसैलाब. हाथों में गन्ने का पौधा लेकर सरकार के खिला़फ नारा लगाते हज़ारों किसान. जंतर-मंतर के एक तऱफ हुक्का गु़डगु़डाते किसान यूनियन के नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत तो दूसरी ओर राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजीत सिंह अपने-अपने समर्थकों के साथ डटे थे. उसी दिन संसद का सत्र शुरू होकर अगले दिन तक के लिए स्थगित भी हो चुका था. सो, नेताओं के पास समय की कमी नहीं थी. अलग-अलग घाट का पानी पीने वाले विभिन्न नेता यानी समूचा विपक्ष एक साथ, एक ही मंच से यूपीए सरकार का मर्सियां प़ढने में जुटा हुआ था. ज़ाहिर है, ऐसा मौक़ा बार-बार नहीं मिलता, वह भी बिना कुछ किए-धरे. दरअसल यह सारा विरोध केंद्र सरकार की नई गन्ना नीति को लेकर है. केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया है, जिसके तहत गन्ने का उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) साल 2009-10 के लिए 129 रुपये 85 पैसे प्रति क्विटल तय किया गया है. साथ ही इस अध्यादेश के मुताबिक़, अगर राज्य सरकारें गन्ने का मूल्य एफआरपी से अधिक तय करती हैं तो उसकी भरपाई भी राज्य सरकार को ही करनी प़डेगी.
यह मामला इतना सीधा नहीं है. क़ीमत तय करने से लेकर क़ीमत ब़ढाने की मांग और उसके विरोध तक की राह में कई पेंच हैं और सवाल भी. आ़खिर पवार ऐसा क्यों चाहते हैं कि पूरे देश में गन्ने की क़ीमत एक हो और उसे तय भी केंद्र सरकार ही करे. क्या वजह है कि विपक्ष इस मुद्दे को तभी समझ पाता है जब गन्ना किसान दिल्ली की स़डकों पर उतर आते हैं? इस मुद्दे पर स़िर्फ उत्तर प्रदेश और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान ही क्यों आंदोलन कर रहे हैं? क्या एफआरपी लागू होने से बिहार या महाराष्ट्र के गन्ना किसानों को ऩुकसान नहीं होगा? गन्ना उत्पादकों के ग़ढ पश्चिमी उत्तर प्रदेश से इस अध्यादेश का विरोध शुरू हुआ है और अहम बात यह है कि अब तक इस आंदोलन की आग किसी अन्य राज्य में नहीं फैली है और न ही किसी वहां के गन्ना किसानों ने इस आंदोलन में भागीदारी की है. भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत पिछले कई दिनों से इस ठंड में भी जंतर-मंतर पर डेरा डाले हुए हैं. चौथी दुनिया से बातचीत करते हुए टिकैत कहते हैं कि जब तक सरकार हमारी मांग नहीं मान लेती, तब तक हम यहां से हिलने वाले नहीं हैं. बागपत और मुजफ्फर नगर से आए हज़ारों गन्ना किसान भी मानों पूरी तैयारी के साथ दिल्ली आए हैं. वे ठंड से ल़डने और सोने-बिछाने के लिए गांव से पुआल लेकर आए हैं. दोपहर के खाने में चावल और क़ढी का इंतजाम रहता है. टिकैत की मांग है कि गन्ने का मूल्य कम से कम 300 रुपया प्रति क्विटल होना चाहिए. ध्यान देने की बात है कि देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान का़फी संपन्न माने जाते हैं. रैली में आए कई किसानों से बातचीत के बाद इतना तो तय हो गया था कि चाहे जो हो, इनकी हालत विदर्भ, बिहार या उत्तर प्रदेश के अन्य भागों के किसानों से कहीं बेहतर है.
जब इस आंदोलन की खबर मीडिया में आने लगी और इसकी धमक सत्ता के गलियारों में सा़फ सुनाई देने लगी तो विपक्ष ने शोरशराबा मचाना शुरू कर दिया. संसद की कार्यवाही स्थगित करा दी गई. 19 नवंबर से शुरू हुआ संसद का शीतकालीन सत्र बार-बार स्थगित होता रहा और अंत में 23 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया. सरकार को घेरने के लिए विपक्ष को एक अच्छा-खासा मुद्दा मिल चुका था, लेकिन यहां सवाल यह है कि जब जनता उग्र होगी, राजधानी को घेरेगी, क्या तभी विपक्ष को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होगा? विपक्षी दल एकता परिषद के नेतृत्व में दिल्ली आए हज़ारों भूमिहीन, वंचित और दलित लोगों की शांतिपूर्ण मांग का समर्थन क्यों नहीं करते अथवा उस पर सरकार को क्यों नहीं घेरते?
इस मामले में अभी तक विरोध की आवाज़ स़िर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही आ रही है. शायद यही वजह है कि इस आंदोलन में चौधरी अजीत सिंह ज़ोर-शोर से कूद प़डे हैं और ऐसा करना उनकी मजबूरी भी है, क्योंकि उनकी राजनीतिक ज़मीन और विरासत पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही रहा है. दरअसल, उत्तर प्रदेश के इस हिस्से में राजनीति की दशा और दिशा तय करने में कृषि व खासकर गन्ने की खेती की अहम भूमिका होती है. इसके अलावा गन्ने के बहाने ही सही, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकल कर राज्य के अन्य इलाक़ों में भी अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाशने का एक मौका अजीत सिंह को मिल गया है. इस बहाने उन्हें एक ऐसा मौक़ा भी मिला है, जबकि वह अपने नए-पुराने राजनीतिक रिश्तों को खंगाल सकें. शायद तभी वर्षों बाद किसी राजनीतिक मंच पर एक अजब नज़ारा देखने को मिला. रालोद के नेतृत्व में आयोजित इस रैली, जिसे अजीत समर्थक पंचायत का नाम देते हैं, में मुलायम सिंह यादव व अमर सिंह (सपा), अरुण जेटली (भाजपा), डी राजा व ए.वी.वर्धन(सीपीआई), रघुवंश प्रसाद सिंह (राजद), शरद यादव (जदयू) और आचार्य वासुदेव (माकपा) एक साथ नज़र आए. सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में केंद्र सरकार को कोसते हुए किसानों को गन्ने की क़ीमत 250 से 300 रुपये प्रति क्विटल देने की मांग की, लेकिन कीमत ब़ढाने की मांग के बीच किसानों की कुछ और बुनियादी समस्याएं थीं, जो इन नेताओं के भाषण में कहीं गुम हो गईं. मुजफ्फरनगर से आए ओमकार, राधेश्याम और जीतेंद्र ने चौथी दुनिया को बताया कि उनके लिए गन्ने की ज़्यादा क़ीमत से अहम है बिजली, क्योंकि बिजली के बग़ैर गन्ने की सिंचाई कर पाना उनके वश की बात नहीं है. डीजल इतना महंगा है कि पूछिए मत. हम बैंक से क़र्ज़ लेकर खेती करते हैं तो मुना़फा बिल्कुल कम हो जाता है. शायद अजीत सिंह समेत समूचे विपक्ष को बिजली व डीजल के ब़ढते दामों और क़र्ज़दार हो रहे किसानों से कोई मतलब नहीं है.
उधर भाजपा ने केंद्र सरकार के इस क़दम को ग़रीब विरोधी बताया है. जबकि अजीत सिंह ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर उनकी मांगों को नहीं माना गया तो वह न तो संसद का शीतकालीन सत्र चलने देंगे और न ही दिल्ली. सपा महासचिव अमर सिंह ने शरद पवार पर गन्ना किसानों को लूटने का आरोप लगाया और कहा कि शरद पवार को देश के गन्ना किसानों की कोई चिंता नहीं है. इन आरोपों में कितना दम है, यह तो अमर सिंह ही बता सकते हैं, लेकिन महाराष्ट्र के उन नेताओं के लिए केंद्र सरकार की वर्तमान गन्ना नीति फायदेमंद साबित होगी, जिनकी खुद कीया नाते-रिश्तेदारों की चीनी मिलें हैं. निश्चित तौर पर इस बात का अहसास कृषि मंत्री शरद पवार को भी होगा.