बुकर पुरस्कार से सम्मानित मशहूर लेखिका अरुंधति राय ने पिछले दिनों केरल विश्‍वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि महात्मा गांधी जातिवादी थे. अरुंधति के मुताबिक़, अब समय आ गया है कि गांधी के नाम पर बने शैक्षणिक संस्थानों के नाम बदल देने चाहिए और इसकी शुरुआत महात्मा गांधी विश्‍वविद्यालय से ही करनी चाहिए.
arundhati-roy_janandharसचमुच जो गांधी जी को मानने वाले लोग हैं, वे भयंकरतम आहत करने वाली घटनाओं से गुजर चुके हैं. वह 30 जनवरी, 1948 का दिन था. उससे बड़ी आहत करने वाली घटना क्या हो सकती है. हकीकत यह है कि हम लोग स्वभाव से लोकतांत्रिक नहीं हैं, क्योंकि लोकतंत्र में अपनी ही बात मानी जाए, ऐसा आग्रह रखा जाना लोकतांत्रिक तरीका नहीं है. जितना यह आवश्यक है कि जितनी हमारी बात सुनी जाए, हमें अपनी बात कहने की आज़ादी हो, उतनी ही ज़रूरी बात यह है लोकतंत्र के लिए कि अपने से भिन्न विचार सुनने का धैर्य हमारे अंदर होना चाहिए. 30 जनवरी, 1948 को जिस विचारधारा ने गांधी जी को अपनी कल्पना का राष्ट्र बनाने में अवरोध के रूप में देखा, उसी विचारधारा ने उनकी हत्या करने की प्रेरणा दी. गांधी अपनी साधना, सत्य एवं अहिंसा के प्रति निष्ठा, अपने अपूर्व क्रांतिकारी प्रयोगों और उनके परिणामों के कारण लोकमान्य हुए. यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि गांधी अपने व्यक्तिगत सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में विभिन्न अहिंसक शक्ति के प्रयोगों के परिणामस्वरूप स्वीकार्य हुए थे. वह ग्रंथ की उपज नहीं थे. लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि हम लोग विश्‍वविद्यालयों में पढ़कर और ग्रंथों के अध्ययन से किसी विषय के जानने-समझने के अभ्यासी हैं. हमारे लिए गांधी को समझना बहुत कठिन होता है, क्योंकि गांधी एक अभिनव संघर्ष के बीच से निखरे हुए व्यक्ति हैं.
उन्हें उनके विचारों और प्रयोगों को एक साथ सामने रखकर समझने की कोशिश करनी पड़ती है. दुनिया में कोई भी महापुरुष ऐसा नहीं हुआ, जिसका कहीं न कहीं, किसी न किसी द्वारा विरोध न हुआ हो. खासकर ऐसे व्यक्तियों का, जिन्होंने निर्भयता के साथ अपने अनुभूत सत्य को, प्रयोगसिद्ध सत्य को समाज के सामने रखने का साहस किया. इतिहास साक्षी है कि उन्हें इसकी भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ी है. गांधी उन्हीं साहसी प्रयोगवीरों में एक अनुपम व्यक्ति हैं. अरुंधति रॉय ने गांधी की जो आलोचना की है, उसे पूरी तरह मैंने पढ़ा नहीं है. समाचारों के रूप में छिट-पुट सुना और पढ़ा है. वह एक ख्याति प्राप्त, बहुचर्चित लेखिका हैं, विश्‍व स्तर के पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं. उनका एक बड़ा पाठक वर्ग होगा. इधर के कुछ वर्षों में उन्होंने गांधी के विचारों को मानने वाले जन-आंदोलनों से जुड़कर कुछ करने की भी कोशिश की है, लेकिन समाज की समस्याओं को हल करने के लिए किन्हीं विचारों और मूल्यों के आधार पर सीधे संघर्ष में उतरना अपने पर दांव लगाने जैसा होता है. जहां तक मेरी जानकारी है, उन्होंने जन-आंदोलनों में आंशिक भागीदारी की है. कुछ समय और शायद यत्र-तत्र धन भी खर्च किया है, लेकिन शायद वह भी यह दावा नहीं कर पाएंगी कि समाज की किसी समस्या को हल करने के लिए स्वयं को उन्होंने दांव पर लगाया हो, अपने अस्तित्व और सुरक्षा के आधार को ख़तरे में डाला हो. ग्रंथों के लिखने और संवादों द्वारा अपने विचार लोगों तक पहुंचाने, उनको मान्यता दिलाने की कोशिश और गांधी के अहिंसक संघर्ष के प्रयोगों में एक बुनियादी फर्क है. गांधी स्वयं को दांव पर लगा देते हैं, अपने अनुभूत सत्य को प्रयोगसिद्ध करने के लिए और इसी बिंदु पर आकर हम भारत की जाति व्यवस्था के प्रति गांधी के दृष्टिकोण और प्रयोगों को समझना चाहेंगे.
अस्पृश्यता भारत के माथे पर एक कलंक है, यह गांधी ने महसूस किया, तो केवल उन्होंने इसके बारे में लेख नहीं लिखे. उन्होंने इस कलंक को मिटाने के लिए कुछ क्रांतिकारी और बुनियादी क़दम उठाए. सफाई का काम अस्पृश्यता के भाव को टिकाए रखने का सबसे बड़ा आधार था और उन्होंने अपने आश्रमों में स्वयं परिवार और सहयोगियों के साथ सफाई का कार्य शुरू किया, जिसमें पाखाना सफाई भी शामिल था. मैं स्वयं जब गांधी विचार की एक संस्था में वर्ष 1956 में दाखिल हुआ, तो मुझे दूसरे दिन से ही पाखाना सफाई का काम सहजता के साथ स्वीकार करना पड़ा. जाति व्यवस्था में सवर्ण और अवर्ण या छूत और अछूत के भेद की सबसे मजबूत बुनियाद है, रोटी-बेटी के संबंधों के समय ऊंच-नीच की भावना का निर्णायक रूप में प्रस्तुत होना. गांधी के जीवन को थोड़ा भी जानने और समझने वाला इससे अवगत होगा कि साबरमती आश्रम के रसोई घर में दलित की सादर उपस्थिति से परिवार में पैदा हुए विवाद के दौरान गांधी जी ने अपनी बहन को आश्रम छोड़कर जाने के लिए कहा था और उस दलित को रसोई घर में बनाए रखा. इसी तरह गांधी जी ने यह घोषणा कर रखी थी कि मैं उन्हीं शादियों में शामिल होऊंगा, जिनमें एक पक्ष दलित समुदाय का होगा. अध्ययन करने वालों को इस विषय पर भी शोध करना चाहिए कि गांधी की प्रेरणा से कितनी शादियां दलित और सवर्ण या छूत और अछूत परिवारों के बीच हुई थीं. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा आंध्र प्रदेश के श्री रामचंद्र राव गोरा का. वह स्वयं ब्राह्मण थे और उन्होंने ब्राह्मण और दलित के बीच भेद पैदा करने वाले सारे विभाजनकारी तत्वों को अपने जीवन से, परिवार से निकाल बाहर किया था. उनके सभी लड़के और लड़कियों ने अंतरजातीय विवाह किए थे. गांधी विचार को मानने वाले देश भर में ऐसे एक नहीं, बल्कि अनेक उदाहरण हैं, जहां शादी के रिश्तों में छूत और अछूत के भेद को व्यवहार में समाप्त किया.
महात्मा गांधी ने जब हरिजन सेवक संघ की स्थापना की, तो दलितों की सेवा के लिए बनाई गई उस संस्था की ज़िम्मेदारी सवर्ण समुदाय के लोगों को सौंपी और कहा कि सदियों-सदियों से सताए गए इन दलितों की सेवा हम सबको प्रायश्‍चित भाव से करनी है और हरिजन सेवक संघ का काम इसी आधार पर आगे बढ़ा. गांधी जी एक गतिशील व्यक्तित्व के रूप में देखे जाने चाहिए. गतिशीलता का अर्थ यह है और इसमें वैज्ञानिकता भी है कि अगर कल तक हमारी यह मान्यता थी और आज वह गलत सिद्ध हो रही है, तो हमें खुले मन से और नि:संकोच उसे छोड़ना चाहिए और नई भूमिका में आना चाहिए. यह ठीक है कि गांधी ने शुरू में वर्ण व्यवस्था की कुछ अच्छाइयों को माना था, लेकिन जैसे-जैसे शास्त्रों के दायरे निकल कर गांधी समाज के जीवन में पैठते गए और हकीकतों से रूबरू हुए, तो उन्होंने पाया कि भारत के बुनियाद को कमजोर करने वाले तत्वों में अस्पृश्यता या जाति व्यवस्था सबसे अधिक विध्वंसक भूमिका अदा करती है.
बावजूद इसके बीच-बीच में अरुंधति राय जैसे किताबी लोग या राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश में जुटे लोग गांधी के बारे में ऐसे बेबुनियादी सवाल उठाते रहे हैं. वर्षों पहले जब बहन मायावती जी ने राजनीति में प्रवेश किया था, तो गांधी जी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन भाजपाई मुख्यमंत्री ने कहा था, मैं गांधी को राष्ट्रपिता नहीं मानता हूं. और अब, अरुंधति राय ने गांधी पर जातिवादी होने का आरोप मढ़ा है. प्रख्यात व्यंग्यकार स्वर्गीय हरिशंकर परिसाई ने एक बार अपने एक व्यंग्य लेख में एक कहानी प्रस्तुत की थी, जिसके नायक ने अपनी प्रसिद्धि के लिए अपने प्रवचन का विषय घोषित किया था, भगवान बुद्ध की बेवकूफियां. इसी तरह अनेक अपकथनों से उसने स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करने की कोशिशें की, जो अंतत: विफल हुईं.
मैं नहीं जानता कि अरुंधति राय किस मकसद से गांधी जी को जातिवादी घोषित कर रही हैं, पर मुझे इसका जरा भी भय नहीं है कि उनके ऐसे लेखों एवं भाषणों से इस देश की जनता और दुनिया के उन करोड़ों लोगों, जो गांधी को जानने-समझने में जुटे हैं, की धारणा बदल जाएगी और वे गांधी को जातिवादी मानने लगेंगे. गांधी जी आज एक विश्‍व मानव के रूप में स्थापित हैं और दुनिया के चिंतक एवं विचारक उनके विचार दर्शन को मानवता के भविष्य के रूप में स्वीकार करते हैं. यह संभव है कि अरुंधति राय इस तरह की बातें करके कुछ समय तक अख़बारों और अन्य सूचना प्रसारण तंत्रों की चर्चाओं में बनी रहें, लेकिन इससे उनका कोई स्थायी लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा. मैं अरुंधति राय से जन-आंदोलनों के संदर्भ में एक-दो बार मिला हूं. उनकी लेखकीय एवं बौद्धिक क्षमता के प्रति मेरे मन में आदर है और मेरी सलाह यही है कि वह गांधी जैसे लोगों को छोटा सिद्ध करने की कोशिश के बदले ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपने विचार और कर्म द्वारा स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में अपनी ऊर्जा लगाएं, तो बेहतर होगा. मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं.

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